अंधेरों में लोगों से छुपकर चूचाप देर रात सन्नाटे में तो सिर्फ गलत काम ही किया जाता है सुन रखा है बचपन से । क्या इसीलिए रात का कर्फ्यू लगाया है कि जनता को घरों में नजरबंद कर तमाम अनैतिक और असंवैधानिक कामों को रात के सन्नाटे में आसानी से अंजाम दिया जा सके ? यदि नीयत साफ और इरादे नेक होते हैं तो डंके की चोट पर सबको बताकर खुले आम जोर शोर से विधिवत काम का आगाज़ किया जाता है। बूढ़ा तालाब के सौंदर्यीकरण के नाम पर सप्रे मैदान और दानी स्कूल के साथ जो किया जा रहा है वो इसी श्रेणी में गिना जाएगा। काम के तरीके और परदादारी से संदेह होना लाजिमी है। लोगों को विश्वास में लिए बिना, एमआईसी से पास करवाए बिना गुपचुप तरीके से काम करेंगे तो सवाल उठेंगे ही। दूसरी बात ये कि प्रशासनिक स्तर पर भी संवैधानिक औपचारिकताओं का भी पालन नहीं किया जाना अनेक प्रश्नों को जन्म देता है। आखिर तुम भी बिल्कुल उन जैसे निकले । बड़ी उम्मीद से लोग जिन्हे सत्ता सौंपते हैं यदि वो ही पारदर्शिता से काम करने की की बजाय चालबाजियां करने लगे तो क्या कहा जाए।
बूढ़ा तालाब इस शहर की धरोहर है, सप्रे शाला और दानी स्कूल इस नगर की शान। छत्तीसगढ़ बनने के बाद पिछले दो दशकों में बूढ़ा तालाब में जाने कितनों करोड़ सिरा दिए । हर बार नयी नगर सरकार, नया मेयर नए प्रोजेक्ट के साथ सामने आ जाते हैं। पुराने डूबत रुपए जलकुंभी हो जाते हैं । पिछले दो दशक में तालाबों का शहर कहलाने वाला रायपुर अब बाजारों का शहर हो गया है। ऐसी कोई सड़क, चौक गली नहीं जिस पर खाली पड़े मैदान बाज़ार न बना दिए गए हो। तालाब पाटकर कॉम्प्लेक्स खड़े कर दिए गए। नगर निगम के तमाम स्कूलों में दुकानें खड़ी कर दी गई।
ऑक्सीजोन बनाते हैं और इसके नाम पर छोटे छोटे व्यापारियों को दरबदर कर देते हैं, उनकी रोजी रोटी छीन लेते हैं यहां तक कि उन्हें दूसरी जगह तक नहीं देते यही है स्मार्ट सिटी की अवधारणा ? रीडिंग ऑक्सीजोन के नाम पर नालन्दा परिसर बनाते हैं और आखिरी में अचानक मुख्य सड़क पर दुकानें तानकर अपने खास आदमी को औने पौने दे देते है, सत्ता बदल जाती है मगर न तो उसकी कोई जांच होती है और न उसकी कोई जानकारी ही जनता को दी जाती है। दूध के जले, ऐसे अनगिनत धोखे खाने के बाद भी कोई नेक इरादों और साफ नीयत का दावा करे तो भला कौन यकीन करेगा।
नैसर्गिक सौंदर्य ही असली सुंदरता होती है । तालाब का सौन्दर्य सिर्फ लबालब भरा पानी ही होता है और स्कूलों का सौंदर्य खुले बड़े मैदान। आज ये आलम है कि पता नहीं कितनी एजेंसियां लग गई है शहर को सुंदर बनाने। अब स्मार्ट सिटी लिमिटेड भी शामिल हो गई हैं इस खेल में । स्मार्ट सिटी लिमिटेड कभी अस्पताल नहीं बनाता , कभी रोजगार के प्रकल्प खडे नहीं करता मगर शहर की तमाम बेशकीमती ज़मीने मुफ्त हथिया लेता है। स्मार्ट सिटी क्या बस इमारतों से ही होता है, क्या एक नागरिक की इसमें कोई जगह नहीं होती? खाली ज़मीनों तालाबों मैदानों में बाज़ार खड़े करना ही स्मार्ट होना है। स्मार्ट सिटी के नाम पर सिटिज़न के साथ किए जा रहे छल बन्द होने चाहिए।
फ़ूहड़ मनोरंजन के नाम पर इस तरह का भद्दा मज़ाक एक लोकतंत्र में कैसे किया जा सकता है। क्या हम आज भी मध्ययुगीन राजशाही ,नवाबी दुनिया में हैं जहां जनता के पैसों से बादशाहों की सनक और ऐशो आराम के लिए ऐशगाह और मीनाबाज़ार बना दिए जाते थे। बादशाहों के इस क्रूर अय्याशी पर साहिर लुधिवानवी ने एक नज़्म लिखी है जिसका बहुत प्रसिद्ध शेर है-
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर,
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक,
राजा महाराजा, नवाब बादशाहों के दिन तो जाने कब के लद गए मगर लोकतंत्र के चुने हुए जनप्रतिनिधि अपने आप को आज के महाराज, शहंशाह और जनता की संपत्ति को अपनी पूंजी समझने लगे हैं। आज भी हम सामंती मानसिकता से उबर नहीं पाए है। बस एक बात ये नई हुई है कि ये आज ये कारपोरेट के गुलाम हो चुके हैं। कॉरपोरेट के लिए ही सारी योजनाएं बनती हैं जिसे ये साम दाम सब हथकंडे अपनाकर मुकम्मल अंजाम देते हैं । ।कॉर्पोरेट गुलामी का आलम है ये कि पार्टियां बदलती रहती हैं मगर ‘सरकार’ नहीं बदलती , ‘सरकार’ का रवैया नहीं बदलता । पद वही रहता है पदासीन चेहरे अदल बदल होते रहते हैं मगर सत्ता या चेहरे बदलने से भी कॉर्पोरेटों के प्रोजेक्ट पर आंच नहीं आती ।
लोकतंत्र में सत्ता की तरह विरोध भी स्थायी भाव होता है । अतः हर बार विरोध भी होता है। कुछ लोग होते हैं जो वास्तव में ईमानदारी से आवाज उठाते हैं । कभी कभी मगर विरोध भी सुविधानुसार होता है। सत्ता की तरह यहां भी चेहरे बदलते रहते हैं । आवाज़ उठाने वालों की भी अदला बदली होते रहती है । कभी तुम पद पर हम पंडाल में तो कभी हम पद पर तुम पंडाल में की तर्ज पर सब सधा बधा सा होता रहता है और इन्हीं की बहुतायत के बीच वास्तविक, ईमानदार विरोध की आवाज कब नक्कारखाने में तूती की तरह गुम हो जाती है और कब ये लोग हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं पता ही नहीं चल पाता । कभी कभी एक बहुत बड़ा तबका कब क्यों खामोश रह जाता है साधारण आदमी समझ ही नहीं पाता। मुक्तिबोध कह गए हैं-
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
उनके ख़याल से यह सब गप है
मात्र किंवदन्ती।
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
फिर भी कुछ लोग हैं जो तालाब, मैदान , स्कूल बचाने में लगे हैं और कुछ इसे लुटाने में भी भिड़ गए हैं। सदा की तरह इस बार भी निर्बल की लड़ाई बलवान से है देखिए इस बार कौन सफल हो पाता है ।
जीवेश चौबे
आपने बहुत सुंदर और तर्कपूर्ण विश्लेषण किया है वर्तमान समस्या का राजनीति के इस खेल में सच तो केवल एक ही है , चेहरे भर बदलते हैं खेल बदस्तूर वही जारी रहता है बेबाक और निर्भीक बात कहने की बधाई
प्रणाम भैया शानदार लेख