धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ वैसे बड़ा फिल्मी नाम है,(बाद में इस नाम से दो बंबइया फिल्में और एक टीवी सीरियल भी बना) मगर अपनी किशोरावस्था में जब इसे पढ़ा था,तब यह अहसास नहीं था।तब पढ़कर कम से कम मुझे लगा था कि ऐसी भाषा कोई मनुष्य नहीं लिख सकता,देवता ही लिख सकता है।रोमांटिक-सामाजिक उपन्यास की श्रेणी में वह गुलशन नंदा को आईना दिखानेवाला उपन्यास है और उसकी लोकप्रियता से गुलशन नंदा को जरूर ईर्ष्या रही होगी।बाद में उनका उपन्यास’सूरज का सातवां घोड़ा’भी पढ़ा।उनकी कहानियाँ ‘गुल की बन्नो’ और ‘ बंद गली का आखिरी मकान ‘भी काफी अच्छी लगी।’ठेले पर हिमालय’ संस्मरण भी ठीक था मगर उनकी कविताओं से हमेशा विरक्ति रही। उनका संग्रह ‘ठंडा लोहा’ वाकई बर्फ की तरह ठंडा था। ‘फिरोजी होठ’ सुन कर मुझे न जाने क्यों अब भी हँसी आ जाती है। उनके खंड काव्य ‘ अंधायुग एन’एसडी द्वारा भव्य मंचन देखा ,उसे कभी पढ़ा नहीं। ‘धर्मयुग’ का उत्थान और पतन,दोनों,उनके नेतृत्व में हुआ।उसमें सबसे पहले मेरी परिचर्चा छपी थी लेकिन यह 1974 में मुंबई में टाइम्स समूह की नौकरी शुरू करने से पहले की बात है।
एक ही संस्थान में होने की वजह से आरंभ में कभी- कभी जरूरी होने पर मिलना हो जाता था।उन्होंने मेरा एक लेख ‘चुप्पी के विरुद्ध’ भी छापा।एक बार उन्होंने प्रस्ताव किया कि तुम लघु पत्रिकाओं के बारे में करीब तीन सौ शब्दों का एक स्तंभ लिखो।मैंने सबसे पहले ज्ञानरंजन द्वारा संपादित ‘पहल’ पर लिखा,जो उस समय अपने उरूज पर थी मगर ज्ञानरंजन का वामपंथी और इलाहबादी होना,दोनों शायद भारती जी को रास नहीं आया। वामपंथियों के वह सख्त खिलाफ थे।वामपंथी लेखन के खिलाफ वह पहले लिखवा भी चुके थे।इस स्तंभ की भी मौत जन्म लेते ही हो गई !
फिर तो समस्याएँ ही समस्याएँ आने लगीं-एक प्रतिष्ठित संपादक और 24 साल के इस लड़के के बीच। तब तक मध्य प्रदेश कला परिषद की पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ का प्रकाशन आरंभ हो चुका था। उससे पहले ही शरद जोशी और अशोक वाजपेयी के बीच सौहार्द न केवल खत्म हो चुका था बल्कि शरद जी ने तलवार तान ली थी।’पहचान’ सीरिज में मेरी कविता पुस्तिका कुछ ही समय पहले छप कर आई थी और अशोक जी से पत्र व्यवहार था।
इस बीच शरद जी ने ‘पूर्वग्रह’ तथा मध्य प्रदेश की सरकारी सांस्कृतिक पहल को लेकर घोर आलोचनात्मक लेख लिखा।वह अगले अंक में प्रकाशित होना था।मैं ‘धर्मयुग’ के संपादकीय विभाग में सुरेन्द्र प्रताप सिंह के सामने बैठा था।उन्होंने मुझे वह लेख दिखाया।एक पत्र में और बातों के अलावा इसका उल्लेख भी मैंने अशोक जी को कर दिया।मुझे न तब लगा था,न अब लगता है कि मैंने कोई महान ‘रहस्य’ खोला था।खैर भोपाल में एक कार्यक्रम में शरद जी और अशोक जी का आमना -सामना हुआ तो अशोक जी ने इसका उल्लेख कर दिया।
यह शायद शरद जी,भारती जी के लिए गोपनीय रहस्य रहा होगा।’दुश्मन खेमे’ में यह खबर दो-तीन दिन पहले पहुँच जाने से शरद जी विचलित हुए होंगे।उन्होंने यह बात भारती जी से साझा की।खैर उनका वह लेख छपा,विवादित हुआ।’धर्मयुग’ की रणनीति सफल रही।इधर भारती जी ने मुझे बुलाया।उनके तेवर से पता चला कि उन्हें यह खबर अशोक जी तक पहुँचना नागवार गुजरा है। उन्हें शक मेरे अलावा किस पर हो सकता था?तब तक मैं कुछ महीने पहले ही प्रशिक्षु पत्रकार नियुक्त हुआ था।मैंने साफ झूठ बोला कि यह जानकारी मैंने नहीं दी।औपचारिक रूप से भारती जी मेरे बॉस नहीं थे।फिर भी उन्होंने तब के प्रबंधक कार्णिक जी को लिखित या मौखिक शिकायत की और यह सुनिश्चित किया कि मैं उनके साप्ताहिक में प्रशिक्षु के रूप में तीन महीने क्या ,तीन दिन भी न रह सकूँ। कार्णिक जी ने मुझे बुलाया।शांति से पूछा कि मामला क्या है? उन्होंने भारती जी की बात को गंभीरता से नहीं लिया और कहा कि भारती जी ऐसा करते रहते हैं।यह मामला रफादफा हो गया।
इधर शरद जोशी जी, जो मुझे बाहर एक रेस्तरां. में ले जाकर चाय पिलाया करते थे,गप हाँका करते थे,वह भी नाराज. हुए।बातचीत उन्होंने बंद कर दी। देख कर न पहचानना आरंभ कर दिया।उन्हें अंतिम बार अप्रैल,1991 में हमारे संपादक और उनके मित्र राजेन्द्र माथुर की मृत्यु के बाद देखा था।तब इस घटना करीब डेढ़ दशक बीत चुका था मगर तब भी उनका मुँह तना रहा। मेरी भी हिम्मत नहीं हुई बात करने की।इसके कुछ महीने बाद वह भी इस दुनिया से विदा हो गए।उनसे पुनः संबंध न ठीक न हो पाने का अफसोस हमेशा रहेगा।
अब जिस घटना की बात कर रहा हूँ,वह भी मुंबई में मेरे आरंभिक दिनों की है।मैं बच्चों की पत्रिकाओं में प्रकाशित होनेवाली सामग्री से पहले से ही क्षुब्ध रहा करता था।एक दिन मैंने यह बात भारती जी से साझा की और कहा कि इस पर मैं लिखना चाहता हूँ।अपनी समस्या भी बताई कि यहाँ दूसरी बाल पत्रिकाएँ नहीं मिलतीं,इस प्रकाशन से प्रकाशित ‘पराग’ ही यहाँ उपलब्ध है।मैं उसी को आधार बनाऊँगा मगर यह सावधानी बरतूँगा कि पत्रिका, कहानी का शीर्षक और लेखक का नाम नहीं लिखूँगा।सिर्फ़ कहानी के ट्रीटमेंट की चर्चा करूँगा, ताकि यह न समझा जाए कि ‘पराग’ पर हमला किया जा रहा है।भारती जी मान गए।एक- दो दिन में मैंने उन्हें लिखकर दे दिया।
लेख देने के पंद्रह -बीस मिनट बाद फोन आ गया कि आपको भारती जी याद कर रहे हैं।गया तो उन्होंने कहा, मुझसे कि विष्णु, सॉरी, इसे मैं छाप नहीं पाऊँगा।नंदन (कन्हैया लाल नंदन,तब ‘पराग’ के संपादक)बुरा मानेगा।वह पहले ही मुझसे नाराज रहता है।मैंने कहा कि आपसे बात करके और अपनी मुश्किल बताते हुए ही यह लेख लिखा है और इसमें दूर- दूर तक ‘पराग’ का नाम नहीं है।फिर भी आप नहीं छापना चाहते तो ठीक है।लेख उनसे ले लिया।
नवभारत टाइम्स में सारी पृष्ठभूमि समझाते हुए उसके रविवारीय के प्रभारी जितेन्द्र मित्तल को दे दिया।उनसे कहा कि इसके बावजूद आप छापना चाहें तो देख लीजिए।उन्होंने इतना भर पूछा कि लेख अच्छा तो है न, मैं कैसे कहता,बुरा है और उसे बिना पढ़े छपने भेज दिया। और अगले रविवार को वह छप गया।
अब फिर संकट शुरू हुआ।जैसे भी हो,यह बात नंदन जी तक पहुँची। संभव है आहत भारती जी ने उन्हें यह बताया हो। उन दिनों वह मुंबई से नये- नये गए थे।उनका मुंबई मोह छूटा नहीं था।वह ‘पराग’ का आर्ट वर्क करवाने मुंबई आया करते थे,जहाँ काफी बड़ा आर्ट डिपार्टमेंट था।वह फनफनाए हुए थे।उन्होंने मेरे एक सहयोगी के सामने नाराजगी प्रकट की।मैं सफाई देने गया मगर वह काम न आई।उन्होंने दिल्ली के महाप्रबंधक रमेश चंद्र जैन से शिकायत की।नई और अभी कच्ची नौकरी पर बन आई।मेरी ढाल बने मेरे मित्र मधुसूदन आनंद।उनका रमेश जी से व्यक्तिगत संबंध था।उन्होंने समझाया।मामला खत्म हुआ।काफी बाद में नंदन जी ने अपनी गलती महसूस की मगर तब तक मैं नौकरी में और बाहर अपनी एक विनम्र जगह बना चुका था।
इसके बाद न मेरा कोई वास्ता ‘धर्मयुग’ से रहा,न भारती जी से।1980 में मेरा पहला कविता संग्रह ‘तालाब में डूबी छह लड़कियाँ’ छपा और विजय कुमार ने उस पर लिखने की पेशकश भारती जी से की तो उन्होंने इस पर लिखने से मना कर दिया।बड़े लोग,छोटों पर ही गुस्सा निकालते हैं न और कहाँ जाएँ बेचारे!
विष्णु नागर की फेसबुक वाल से