अपूर्वानंद । सतीश देशपांडे
जामिया मिल्लिया इसलामिया और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के आंदोलनकारी छात्रों की ऐसी तसवीर खींची जा रही है मानो उनको राजनीति करने का हक़ ही न हो और उनका ऐसा करना ही दहशतगर्दी हो! इसीलिए छात्रों और सामाजिक आंदोलनों के बीच के संबंध को वे साज़िश की तरह पेश कर रहे हैं जबकि यह हमारे लोकतंत्र की नींव है।
किसी भारतीय को बताने की ज़रूरत नहीं है कि हमारा लोकतंत्र क़रीब एक साल से लॉकडाउन में है। कोविड-19 महामारी ने केवल इस सच्चाई को और उघाड़ दिया है। वैकल्पिक आख्यान को छोड़ भी दें तो यह राजनैतिक लॉकडाउन मुख्यतः विपक्षी दलों के प्रतिरोध न कर सकने की अक्षमता का परिणाम है। अपनी चुनावी सफलता से उत्साहित, नरेंद्र मोदी-अमित शाह शासन एक ऐसा राजनीतिक ब्रह्मांड का निर्माण करने की कोशिश कर रहा है जिसमें निरंतर फ़ोटो खिंचवाने के मौक़े हों, जो चापलूसी के सहारे चल रहा हो, और जहाँ रचनात्मक प्रतिरोध का कोई निशान भी न हो जो एक सच्चे लोकतंत्र में सैद्धान्तिक असहमति पैदा करता है।
यह परियोजना लगभग सफल रही है। सत्ता द्वारा छोड़ा हुआ रूपकात्मक अश्वमेध का घोड़ा बिना किसी प्रतिरोध के अपने साम्राज्य में घूमता रहा है, बस दो अपवादों को छोड़कर। प्रतिरोध के इन केंद्रो में से एक विश्वविद्यालय परिसर है, और दूसरा एक राजनीतिक आंदोलन है- नागरिकता संशोधन क़ानून और उसके पूरक प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बिल के ख़िलाफ़ देशव्यापी आंदोलन।
महामारी की स्थिति ने इस मुद्दे को जनता की स्मृति में धुंधला कर दिया है, पर नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन के राजनीतिक महत्व को कम करके नहीं आँका जा सकता। ऐसे समय में जब मोदी और शाह को विश्वास हो गया था कि जीतने के लिए अब कुछ बचा नहीं है उनको चुनौती देने के लिए एक जन समूह अचानक सबसे अप्रत्याशित स्रोत से उमड़ा- मुसलिम महिलाओं का जन समूह।
अडिग नैतिक सहनशक्ति
यह अनोखा आंदोलन – जिसका प्रतीक नई दिल्ली का शाहीन बाग़ स्थल बना, बार-बार उकसाने पर भी दृढ़तापूर्वक अहिंसक रहा। अपनी मुसलमानियत को पहने हुए यह गरिमायुक्त और खेदरहित था लेकिन इसकी ज़ुबान पर था संविधान और इसका ज़ोर धर्मनिरपेक्ष नागरिकता की भाषा के प्रयोग पर ही रहा। इस आंदोलन की पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई, बड़ी संख्या में ग़ैर-मुसलिम लोगों का इसने ध्यान खींचा जो अब तक चुपचाप सब कुछ देखते रहे थे।
यह एक अनौपचारिक और समावेशी अभियान साबित हुआ जिसने सभी को अपनी अडिग नैतिक सहनशक्ति से चकित कर दिया। इसने महीनों तक निर्वाचित प्रतिनिधियों की अवहेलना सही और बदनाम करने के लगातार प्रयासों से अपना बचाव किया।
अंत में, फ़रवरी 2020 में दिल्ली के राज्य के संरक्षण में संगठित दंगों के द्वारा ही इसे भंग किया जा सका। और फिर कोविड महामारी इस सर्वसत्तावादी राज्य के लिए एक आसमानी राहत की तरह पहुँची जिसने इसे सभी सार्वजनिक विरोधों को ख़त्म करने में सक्षम बनाया।
विश्वविद्यालय परिसरों से उत्पन्न चुनौती अधिक पुरानी है। विपक्षी दलों को शांत करने और सार्वजनिक राय को अपने अनुकूल ढालने में जहाँ इस शासन को सफलता मिली, वहीं विश्वविद्यालय परिसरों में अपना कब्ज़ा जमाने में इस शासन को संघर्ष झेलना पड़ा। यहाँ तक कि जहाँ इनके छात्र दल के उम्मीदवार जीतते भी हैं वो ऐसे चेहराविहीन शख़्स के द्वारा जीतते हैं जिसको निर्वाचित होते ही भुला दिया जाता है। दक्षिणपंथी विचारधारा इसका आरोप वामपंथियों पर लगाती है जिनका उसके मुताबिक़ सत्ता के पदों पर एकाधिकार है और जो अन्य विचारधाराओं को अब तक परिसर के बाहर रखते आए हैं।
अगर कुलपति और डीन आंदोलनों का निर्माण कर सकते और अपनी इच्छा से लोकप्रिय नेता पैदा कर पाते तो पिछले छह वर्षों में एक अभूतपूर्व दक्षिणपंथी पुनर्जागरण पैदा हो जाता। इसके विपरीत, देशभर के विश्वविद्यालय परिसरों से शासन निरंतर मुठभेड़ के रास्ते पर है। उदाहरण के रूप में अलीगढ़, इलाहाबाद, बनारस, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता, मुम्बई और पुणे के विश्वविद्यालयों को ही लीजिये।
लेकिन यह दरअसल विश्वविद्यालय परिसरों और नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन का क़रीबी सम्बन्ध ही है जिसने शासन को चिंतित कर रखा है जो इस बीच निरंकुशता का आदी हो चुका है। छात्रनेता अपने परिसरों में चाहे जितने लोकप्रिय क्यों न हों, उन्हें चुनावी रणभूमि में बहुत आसानी से हराया जा सकता है। ऐसे में एक अप्रत्याशित रूप से सफल आंदोलन के साथ छात्र कार्यकर्ताओं के जुड़ाव ने, – ऐसे आंदोलन से, जो गहन राजनैतिक और अपनी चेतना से ग़ैर-चुनावी दोनों था, शासन के सामने एक नई और बेचैन कर देने वाली चुनौती पेश की, जिसे वह हर हाल में दबाना चाहता था।
इसलिए छात्र नेताओं रोहित वेमुला और कन्हैया कुमार, उमर ख़ालिद से लेकर सफ़ूरा ज़रगर, मीरान, आसिफ़, देवांगना कलिता, नताशा नरवाल तक के विरुद्ध, जिनका संबंध वृहत्तर आंदोलनों से था, सतत धरपकड़ अभियान चलाया गया।
जामिया मिल्लिया इसलामिया और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के आंदोलनकारी छात्रों की ऐसी तसवीर खींची जा रही है मानो उनको राजनीति करने का हक़ ही न हो और उनका ऐसा करना ही दहशतगर्दी हो! इसीलिए छात्रों और सामाजिक आंदोलनों के बीच के संबंध को वे साज़िश की तरह पेश कर रहे हैं जबकि यह हमारे लोकतंत्र की नींव है। और इस संबंध को तोड़ने के निर्मम अभियान में उनके लिए कोई भी झूठ शर्मनाक नहीं है, षडयंत्र का कोई भी आरोप दूर की कौड़ी नहीं है और कोई नियम या क़ानून इतना पवित्र नहीं है कि उसे भ्रष्ट या विकृत न किया जा सके।
कैसे प्रतिक्रिया दें?
इस तरह के अभियान के निशाने पर जो हैं इसकी प्रतिक्रिया में वे क्या करें? जिनका सामना एक ताक़तवर राज्य तंत्र से है, जिसको बनाए रखने में राजनीति का भयमुक्त संरक्षण, बेशर्मी से पक्षपात करता मीडिया और अधिकतर दबी हुई न्यायपालिका (कुछ माननीय अपवादों को छोड़कर) जुटी हुई है, ऐसे में क़ानून का पालन करने वाले कार्यकर्ताओं के पास ख़ुद को बचाने के बहुत कम ही उपाय हैं। वैध राजनीतिक गतिविधियों का संवैधानिक अधिकार अब शासन के विरोधियों के पास उपलब्ध नहीं है, जिन्हें अब रिश्तेदारों, दोस्तों, और सहकर्मियों के उत्पीड़न के साथ ही कठोर क़ानूनों के तहत अनिश्चित काल की सज़ा की धमकी दी जा रही है।
यहाँ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम आंदोलन में शामिल अधिकांश छात्र कार्यकर्ता वे ही लोग हैं जो दंगों के बाद बचाव और राहत कार्य में सबसे आगे थे, और बाद में वे कोरोना वायरस लॉकडाउन राहत कार्य के लिए भी सबसे आगे की कतार में रहे। अभी दंगों के षड्यंत्रकारी के रूप में जिनकी खोज की जा रही है वे वही कार्यकर्ता हैं जो राज्य के उन लोगों के लिए राहत प्रदान करने का काम कर रहे थे, जिनका जीवन लॉकडाउन से तबाह हो गया है।
यह पूछना व्यर्थ है कि क्या सत्ता में बैठे लोगों को इस बात पर कोई शर्म महसूस होती है कि प्रशासन की एक शाखा इन कार्यकर्ताओं के राहत कार्य के बारे में दैनिक रिपोर्ट माँग रही है ताकि वे इसे अपना काम बता सकें, जबकि एक अन्य शाखा मनगढ़ंत अपराधों के लिए उन्हीं कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ मामले दर्ज कर रही है, जिनको कबूल करवाने के लिए उनपर दबाव डाला जाएगा।
वैकल्पिक तथ्यों का युग
सही मायनों में ये हमारे बेहतरीन शिक्षित नौजवान हैं, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में हर नीतिगत दस्तावेज़ में उल्लिखित सभी पवित्र भावनाओं को आत्मसात करने और उन पर अमल करने की कोशिश की है। यह पाखंड की एक स्थापित परंपरा का हिस्सा है, जहाँ हर कोई जानता है कि सामाजिक संवेदनशीलता, सामुदायिक सेवा और नागरिक मुद्दों के साथ विचारशील जुड़ाव केवल काग़ज़ी चीज़ है जो पाठ्यपुस्तकों और परीक्षा के उत्तर देने भर के लिए हैं।
ज़्यादा से ज़्यादा इन्हें किसी नौकरी के लिए आवेदनपत्र या बायोडेटा को सजाने के लिए सांकेतिक प्रयत्न माना जा सकता है। जो लोग इन चीज़ों को गंभीरता से लेते हैं, और यदि उनकी राजनीतिक मान्यताएँ शक्तिशाली शासन की मान्यताओं से भिन्न होती हैं तो उन्हें हमेशा ही दंडित किया जाता है।
हमें यह विश्वास करने के लिए कहा जा रहा है कि हमारे सबसे अच्छे युवा वास्तव में आतंकवादी हैं।
जब सत्ता आख्यानों को नियंत्रित करने पर निर्भर करती है तो सत्य और असत्य के बीच का अंतर जानबूझकर कम किया जाता है। लेकिन वैकल्पिक तथ्यों के युग में रहना कोई बहाना नहीं है। हमें कल उसी विश्वास से आँका जाएगा जिसे हमने आज अपने लिए चुना है।
अनुवाद: दिव्या, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ती हैं। (स्क्रॉल.इन के हिन्दी अनुवाद का सत्यहिन्दी से साभार) आप अंग्रेज़ी में मूल लेख नीचे दी गई लिंक पर पढ़ सकते हैं