घने जंगलों को कोयला खनन के लिए क्यों खोल रही है मोदी सरकार?

हृदयेश जोशी की रिपोर्ट

जब जंगलों को उजाड़े बिना देश की जरूरत पूरा करने के लिए पर्याप्त कोयला भंडार मौजूद हैं, तो जैव-विविधता से भरपूर इस खजाने को क्यों उजाड़ा जाए?

मोदी सरकार द्वारा 18 जून को देश की 41 कोयला खदानों की नीलामी के ऐलान के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. सोरेन ने इससे पहले केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखकर मांग की थी कि कोरोना महामारी के वक्त आनन-फानन में घने जंगलों वाले इलाके कोयला खनन के लिए न खोले जाएं. अब झारखंड सरकार ने सर्वोच्च अदालत में केंद्र सरकार के इस कदम को चुनौती दी है. 

इसके अलावा छत्तीसगढ़ के वन और पर्यावरण मंत्री ने भी केंद्र सरकार से कहा है कि वनों और पर्यावरण की सुरक्षा और भविष्य में मानव-हाथी द्वंद रोकने के लिए राज्य के हसदेव अरण्य जैसे घने जंगल क्षेत्र में खनन न किया जाए. कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने इस बारे में केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिख कर कहा है कि इस नीलामी को निरस्त किया जाए. 

क्या चाहती है केंद्र सरकार?

केंद्र सरकार ने बीते गुरुवार देश के पांच राज्यों की 41 कोयला खदानों की नीलामी का ऐलान किया. ये खदानें कमर्शियल माइनिंग के लिए खोली जा रही हैं. यानी खनन करने वाली निजी कंपनियां भी अब कोयले को खुले बाजार में किसी को भी बेच सकती हैं. कुल 41 में से 29 खदानें तो देश के तीन राज्यों झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही हैं. बाकी तेरह खदानें ओडिशा और महाराष्ट्र में हैं.

प्रधानमंत्री ने कहा कि इस नीलामी के जरिए कोरोना महामारी से पैदा संकट को अवसर में बदला जाएगा. उन्होंने कहा कि कोल माइनिंग से भारत का कोयला आयात घटेगा जिससे विदेशी मुद्रा बचेगी और वह आत्मनिर्भर बनेगा. गृहमंत्री अमित शाह ने एक ट्वीट में कहा कि इस फैसले से 2.8 लाख से अधिक नौकरियां मिलेंगी, 33,000 करोड़ रुपये का निवेश आएगा और राज्यों को सालाना 20,000 करोड़ रुपये की कमाई होगी.

घने वन क्षेत्र हो जाएंगे बर्बाद

मोदी सरकार के इस फैसले पर जिन वजहों से सवाल उठे हैं उनमें पहली बड़ी चिंता पर्यावरण का विनाश होने की है क्योंकि जिन जंगलों को नीलामी के लिए खोला जा रहा है वह नदियों, झरनों और जैव विविधता से भरपूर हैं जहां वन्य जीवों की भरमार है. मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में चार कोयला खदानें नीलाम हो रही हैं जिनका कुल 87 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल घना जंगल है.

इसी तरह महाराष्ट्र के बंदेर और मध्यप्रदेश के गोटीटोरिया (पूर्व) कोयला खान क्षेत्र 80% जंगलों से ढका है. झारखंड के चकला में 55% जंगल हैं और यह दामोदर और बकरी जैसी नदियों का जलागम क्षेत्र है. जानकार कहते हैं कि यूपीए सरकार के वक्त घने जंगलों में खनन प्रतिबंधित करने की ‘गो’ और ‘नो-गो’ कोल एरिया नीति धीरे-धीरे कमजोर होती गई है और इसी कारण अब प्रचुर वन संपदा वाले जंगल खनन के लिए दिए जा रहे हैं.

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला कहते हैं कि हसदेव अरण्य में खनन से न केवल अमूल्य वन संपदा खत्म होगी, बल्कि पानी का गंभीर संकट भी पैदा हो जाएगा, “यहां हसदेव नदी पर बांगो बांध बना है जिससे चार लाख हेक्टेयर की सिंचाई होती है. यह क्षेत्र हाथियों का प्राकृतिक बसेरा और कॉरिडोर भी है. साथ ही ये गोंड आदिवासियों का घर है और उनकी आजीविका और संस्कृति इसके साथ जुड़ी है. इसी आधार पर साल 2009 में सरकार ने ही इस इलाके को नो-ग’ क्षेत्र घोषित किया था. यह खुद सरकारी दस्तावेजों में कहा गया है कि अगर हसदेव अरण्य को छोड़ भी दिया जाए तो कोयला उपलब्धता पर कोई असर नहीं पड़ेगा.”

जानकार सवाल उठाते हैं कि जब भारत जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है तो फिर वह घने जंगलों को काट कर कोयला कैसे निकाल सकता है. पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने इस नीलामी को रोकने की मांग करते हुए कहा, “जैव विविधता से भरे इलाकों में कोल-ब्लॉक्स की नीलामी और ‘गो’ और ‘नो-गो’ वर्गीकरण की अनदेखी से तीन-तरफा विनाश होगा. इसे (नीलामी को) तुरंत रद्द किया जाना चाहिए. राजनीतिक रूप से मजबूत बिजली कंपनियों का असर दिख रहा है. प्रधानमंत्री को जलवायु परिवर्तन पर किए वादे को पूरा करना चाहिए.” हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने कोल ब्लॉक्स की नीलामी के वक्त कहा है कि खनन की इस प्रक्रिया में पर्यावरण संरक्षण का पूरा ध्यान रखा जाएगा.

कोयले की जरूरत का गणित

सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे झारखंड के मुख्यमंत्री सोरेन ने जहां राज्यों की सहमति के बिना नीलामी को “संघीय भावना का खुला अपमान” बताया है, वहीं जानकार यह सवाल भी उठा रहे हैं कि क्या भारत को कोयले के किए ज रूरत पूरा करने के लिए उन जंगलों में घुसने की जरूरत है जहां कोयले की मौजूदगी की पूरी जांच नहीं की गई है.

साल 2019-20 में भारत का कुल कोयला उत्पादन 72.1 करोड़ टन रहा और उसने 24.29 करोड़ टन आयात किया गया. यानी उत्पादन और आयात मिलाकर कुल 97.2 करोड़ टन. जबकि इस साल कोयले की कुल खपत 88.71 करोड़ टन रही है. कोयला मंत्रालय के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि देश में अभी कुल 14,800 करोड़ टन का कोयला भंडार (प्रूवन कोल) ऐसा है जिसके लिए नए जंगलों (नो-गो क्षेत्र) को काटने की जरूरत नहीं है. कोल इंडिया की रिपोर्ट “कोल विजन-2030” के मुताबिक साल 2030 तक देश में 150 करोड़ टन कोयले की सालाना जरूरत का अनुमान है. इस हिसाब से अभी उपलब्ध 14,800 करोड़ टन का भंडार तो अगले कई दशकों तक भारत की जरूरतों के पर्याप्त है.  

सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के नंदीकेश शिवलिंगम कहते हैं, “देश में अभी भले ही 600 से अधिक कोल ब्लॉक हैं लेकिन 50 या 60 कोल ब्लॉक ही हैं जहां से अधिकांश कोयला निकाला जाता है. ये सारे बड़े कोल ब्लॉक हैं और इनकी उत्पादन क्षमता अधिक है. बहुत सारी खानें प्रोडक्टिव नहीं हैं. इसलिए हमें सिर्फ जंगलों को  खोलने पर ही जोर नहीं देना चाहिए, बल्कि अगर हम समझदारी के साथ माइनिंग करें, तो अगले कई दशकों तक बहुमूल्य जंगलों को बचा सकते हैं.”

साफ ऊर्जा का बढ़ता ग्राफ 

घने जंगलों में कमर्शियल कोयला खनन के खिलाफ एक अहम तर्क भारत की साफ ऊर्जा पॉलिसी से जुड़ा है. कोयला बिजलीघर अभी भारत के कुल उत्पादन का करीब 65% पावर देते हैं और आने वाले वक्त में भी कोयले पर भारत की निर्भरता बनी रहेगी लेकिन पिछले एक दशक में देश में साफ ऊर्जा (मुख्य रूप से सोलर पावर) का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है. इससे यह सवाल भी उठता है कि आने वाले दिनों में क्या कोल पावर का हिस्सा नहीं घटेगा.

अपनी ताजा रिपोर्ट में सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी यानी सीईए ने कहा है कि साल 2030 तक भारत में सोलर पावर जनरेशन, कोल पावर को पीछे छोड़ देगा. अभी साफ ऊर्जा (सौर, पवन, बायोमास, हाइड्रो और न्यूक्लीयर) कुल पावर जनरेशन का करीब 22 प्रतिशत है. सीईए की रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक यह आंकड़ा 44 प्रतिशत से अधिक हो जाएगा. दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (टेरी) का अध्ययन बताता है कि 2030 तक सौर ऊर्जा 2.30 से 1.90 रुपये प्रति यूनिट तक सस्ती हो सकती है और इसकी स्टोरेज का खर्च भी 70% घटेगा.

जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाली कंपनी क्लाइमेट ट्रेंड की आरती खोसला कहती हैं,  “सोलर पावर लगातार सस्ती हो रही है और कोयला बिजली कंपनियों के लिए कीमतों का कम्पटीशन झेलना मुश्किल हो रहा है. अगर हम इसके साथ कोयला बिजलीघरों से निकलने वाले धुएं का सेहत पर पड़ रहा दुष्प्रभाव जोड़ दें तो साफ नजर आता है कि यह भारत के लिए आने वाले दिनों का रास्ता नहीं है. सरकार को उन स्वस्थ जंगलों को काटने से पहले कई बार सोचना चाहिए जो ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ एक महत्वपूर्ण ढाल तैयार करते हैं.”

उद्योगों को चाहिए कोयला

यह सच है कि कोयले की जरूरत पावर सेक्टर के अलावा स्टील, सीमेंट, कंस्ट्रक्शन और खाद जैसे उद्योगों के लिए भी है और नई खदानों के पीछे यह तर्क है कि इंडस्ट्री को इसके लिए सौर ऊर्जा के बजाय कोयला ही चाहिए  औद्योगिक क्षेत्र के जानकार कहते हैं कि कोरोना महामारी की वजह से अभी उद्योग धंधे भले ही ठंडे पड़े हैं लेकिन जल्द ही इन उद्योगों को कोयला चाहिए होगा.

लेकिन स्टील उद्योग में इस्तेमाल होने वाला कोकिंग कोल भारत में बहुत कम पाया जाता है और ज्यादातर कंपनियों को इसे आयात ही करना पड़ता है. सरकार ने इस नीलामी में 4 खदानें कोकिंग कोल की भी रखी हैं लेकिन भारत में कोकिंग कोल की क्वॉलिटी बहुत अच्छी नहीं है. इसके अलावा समुद्र तटीय इलाकों में पावर प्लांट हों या कोई औद्योगिक कारखाना, कई बार उनके लिए देश के भीतर से कोयला खरीदने के बजाय समुद्री रास्ते से विदेश से कोयला आयात करना सस्ता पड़ता है. यह देखना दिलचस्प रहेगा कि क्या इस नीलामी में हिस्सा लेने वाली माइनिंग कंपनियां इस तथ्य पर विचार करेंगी. 

सौज- डीडबू

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