मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय ‘अपराधी’ हैं, जिसने अपने हर अपराध का साक्ष्य इकट्ठा कर हमें सौंप दिया है. हमें जब, जहां, जैसी जरूरत होती है, हम उसका इस्तेमाल कर उन्हें सजा दे देते हैं. फिर हम खुद से ही पूछते रह जाते हैं कि हमने यह क्या किया? गांधी हर बार किसी व्यक्ति या भीड़ के गुस्से का शिकार होते हैं और वे ही हैं, जो हमें बता गये हैं कि गुस्सा दूसरा कुछ नहीं, छोटी अवधि का पागलपन है. वे कभी दलितों को, तो कभी नारीवादियों को अपने खिलाफ लगते हैं.
जिन्होंने कभी स्वतंत्रता की लड़ाई नहीं लड़ी, उन्हें वे साम्राज्यवादियों के दलाल लगते हैं. जिन्होंने देश विभाजन रोकने के लिए कभी चूं तक नहीं की, वे गांधी को देश विभाजन का अपराधी बताते हैं. उन्हें मुसलमानों का तुष्टीकरण करनेवाला बताते हैं. कभी उन्हें क्रूर पिता व अन्यायी पति बताया जाता है. वे जब तक जीवित रहे, तब भी ऐसे आरोपों की कमी नहीं रही.
कुछ दिनों पहले अमेरिका में एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की हत्या कर दी. वहां पुलिस के हाथों प्रतिवर्ष सौ अश्वेत अमेरिकी मारे जाते हैं. न सरकार चेतती है, न अदालत, लेकिन इस बार अमेरिका चेत गया. ‘कालों का जीवन भी मतलब रखता है’ जैसी चीख के साथ बड़ी संख्या में अमेरिकी सड़कों पर उतरे. यह चीख यूरोप के दूसरे देशों में भी फैल गयी.
गांधी होते, तो ऐसे प्रतिवादों में सबसे आगे दिखायी देते, लेकिन यहां तो वे भू-लुंठित दिखायी दिये. प्रदर्शनकारियों ने उन सारे प्रतीकों पर हमला किया, जिसने गुलामों का व्यापार किया, कालों को कमतर माना. कई बुत तोड़े गये, कई पर कालिख पोती गयी और सबको एक नाम दिया गया- रंगभेदी. वाशिंगटन में लगी गांधीजी की प्रतिमा भी निशाने पर आयी. उसे भी विद्रूप कर रंगभेदी कह दिया गया. लगभग ऐसा ही इंग्लैंड में भी हुआ.
गांधी होते तो क्या करते या क्या कहते? वे कहते, यह आग जली है, तो बुझनी नहीं चाहिए! वे कहते, चलो, मैं भी चलता हूं और वाशिंगटन हो, लंदन या कहीं और, वे हर प्रदर्शन के आगे-आगे चल पड़ते, लेकिन अनशन करते हुए, ताकि इसके भीतर जो हिंसा व लूट और मनमानी हुई, उससे अपनी असहमति भी जाहिर करें और उसके प्रति सबको सचेत भी. जब वे ऐसा करते, तब कोई अनजाना कह बैठता कि यह आदमी जन-संघर्ष विरोधी था! फिर आप क्या करते? इतिहास के पन्ने पलटते और उसमें गांधी को खोजते, जैसे मैं खोज रहा हूं कि गांधी रंगभेदी थे, यह बात कहां से आयी है?
दक्षिण अफ्रीका पहुंचे बैरिस्टर गांधी ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति मोहग्रस्त हैं. उन्हें लगता है कि यह न्यायप्रिय और उदार साम्राज्य है, जिसकी हम भी प्रजा हैं, तो साम्राज्य पर आया हर संकट हमारा अपना संकट है और हमें साम्राज्य की मदद करनी चाहिए. इसलिए बैरिस्टर साहब बोअर युद्ध में घायलों की सेवा के लिए उतरते हैं. अंग्रेजों के अनुरोध पर वे अपनी टोली लेकर युद्धभूमि में भी उतरे. जंगे-मैदान से घायलों को निकाल कर ले जाते रहे और कई मौकों पर बीस-पच्चीस मील की दूरी पर स्थित चिकित्सा केंद्र तक घायलों की डोली पहुंचाते रहे. इस प्रयास से उन्हें मिला क्या? ‘आत्मकथा’ में गांधी लिखते हैं, ‘मैं समझ पाया कि यह न्याय का नहीं, कालों को दबाने का युद्ध है. हिंदुस्तानी कौम अधिक संगठित हो गयी. मैं गिरमिटिया हिंदुस्तानियों के अधिक संपर्क में आया. गोरों के व्यवहार में भी स्पष्ट परिवर्तन दिखायी दिया.’
दूसरा मौका आया जुलू विद्रोह के वक्त. अब तक गांधी बहुत प्रौढ़ हो चुके थे. उन्होंने फिर इंडियन एंबुलेंस टोली का गठन किया. आरोप यह है कि यह गोरे इंग्लैंड के प्रति उनका पक्षपात था, लेकिन सच यह है कि इंडियन एंबुलेंस टोली को घायल जुलू विद्रोहियों की देखभाल का ही काम मिला था, क्योंकि श्वेत डॉक्टर व नर्सें उनका इलाज करने को तैयार नहीं थे. गांधी टोली ने जिस तरह घायल जुलुओं की सेवा की, उसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई और एक-दूसरे की भाषा न जाननेवाले जुलुओं ने भी अपनी कृतज्ञता प्रकट की. यह इतिहास सामने रखो, तो वे आरोप लगाते हैं कि गांधी जुलुओं के साथ मिल कर लड़े क्यों नहीं? अब आप दीवारों से बात तो नहीं कर सकते!
दक्षिण अफ्रीका के गांधी की लड़ाई रंगभेद के कारण नहीं थी. सवाल भारतीय नागरिकों के अधिकार का था. रानी विक्टोरिया ने 1858 में अपने साम्राज्य की प्रजा के नागरिक अधिकारों की घोषणा की थी. गांधी चाहते थे कि उस घोषणा पर अमल हो. तब उनकी समझ थी कि रंगभेद तो रास्ते का एक रोड़ा है, जो रानी विक्टोरिया की घोषणा पर अमल की आंधी में खुद ही उड़ जायेगा. भारतीयों की समस्याएं अलहदा थीं.
इसलिए आंदोलन भी अलहदा था. कालों को साथ लेने की वहां बात थी ही नहीं. बैरिस्टर साहब गिरफ्तार होकर पहली बार जब जेल पहुंचे, तो उन्हें यह बात नागवार गुजरी कि उन्हें जुलू लोगों के साथ एक ही वार्ड में रखा गया है. यह एतराज रंगभेद की वजह से नहीं था. जेल में दो वर्ग होते ही हैं, अपराधी कैदी और राजनीतिक कैदी! जेल मैनुअल भी यह फर्क करता है, अदालत भी और सरकार भी.
आपातकाल की उन्नीस माह की अपनी जेल में हम भी यह मांग करते ही थे और प्रशासन भी चाहता था कि अपराधी व राजनीतिक बंदी अलग-अलग वार्डों में रहें. प्रशासन तो इसलिए भी हमारे बीच दूरी चाहता था कि कहीं हम अपराधियों का राजनीतिक शिक्षण न करने लगें. अलग वार्ड की गांधी की मांग इस कारण थी, न कि रंगभेद के कारण. अपराधियों के साथ एक ही सेल में रहने का अपना कड़वा अनुभव भी गांधी ने लिखा ही है कि एक बार जब वे शौचालय में थे, तभी एक विशालकाय जुलू भीतर घुस आया. उसने गांधी को उठाकर बाहर फेंक दिया और खुद फारिग होने लगा.
गांधी का आज का विराट स्वरूप बनते-बनते बना है. गांधी का भी विकास हुआ है, होता रहा है, लेकिन इस विकास-क्रम में वे रंगभेदी कभी नहीं रहे. इसलिए ‘कालों का जीवन भी मतलब रखता है’ वाली मुहिम को याद रखना चाहिए कि गांधी की मूर्तियां भले वे तोड़ें या न तोड़ें, लेकिन गांधी को कभी न छोड़ें क्योंकि गांधी के बिना स्वाभिमान की लड़ाई में वे मार भी खायेंगे और हार भी. गांधी रास्ता भी हैं और उस राह पर चलने का संकल्प भी.
कुमार प्रशांत, गांधीवादी विचारक हैं । ये लेखक के निजी विचार हैं संपर्क k.prashantji@gmail.com ( सौज- प्रभात खबर)
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