असग़र वजाहत (जन्म – 5 जुलाई 1946) – हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं नाटककार के रूप में सम्मानित नाम हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। इन्होने दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में लगभग 40 वर्षों तक अध्यापन किया एवं हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे । हम उनके जामिया से जुड़े संस्मरण धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं । ( संपादक) आज पांचवीं किश्त-
जामिया के वाइस चांसलर, प्रो. मोहम्मद मुजीब की यह इच्छा नहीं थी कि जामिया अचानक एक बहुत बड़ी संस्था बन जाए और उसका बुनियादी किरदार ंखत्म हो जाए।
प्रो. मोहम्मद मुजीब ज़ाकिर हुसैन ज़ाकिर के बहुत गहरे मित्रों में थे और जामिया के पुराने आदर्श उन्हें बहुत प्रिय थे। प्रो. मुजीब ने अपने संस्मरणों में उस घटना का उल्लेख किया है जिसके अंतर्गत जर्मनी में उन्होंने ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ की ताउम्र सेवा करने का प्रण लिया था- सन् 1925 में किसी दिन डॉ. ज़ाकिरहुसैन और डॉ. आबिद हुसैन के बीच बहुत गंभीर बातचीत हो रही थी जिसे मैं सुन रहा था। ज़ाकिर साहब ने कहा था कि उन्होंने इस बात का फैसला कर लिया है कि चाहे जो हो जाए वे ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ में काम करेंगे। डॉ. आबिद हुसैन ने भी ये कहा कि वे ज़ाकिर साहब के साथ होंगे। मैंने भी कहा कि मैं ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ में काम करना चाहता हूँ। डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने संदेह भरी नज़रों से मुझे देखा और कहा – ‘नहीं, तुम्हें नहीं करना चाहिए।’
मैंने ये जानना चाहता था कि क्यों? उन्होंने जवाब दिया कि ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ मेरे लिए उचित जगह नहीं है। फिर भी मैं यह जानना चाहता था कि ऐसा क्यों है, अगर वह (जामिया मिलिया इस्लामिया) उनके लिए सही जगह है तो मेरे लिए क्यों नहीं? उन्होंने कहा कि उनका मामला अलग है और उन्होंने पहले से वचन दे रखा है। जब मैंने जोर डाला कि मैं भी जामिया में शामिल होना चाहता हूँ तो उन्होंने बहुत तीखे स्वर में मुझसे कहा- ”देखो, मैं दिल्ली स्टेशन से अगर तुम्हें एक ताँगे में बैठा कर एक खुले मैदान में ले जाता हूँ और तुम से कहता हूँ, यह ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ है, तब तुम क्या करोगे?’ मैंने जवाब दिया था कि अगर वे किसी खुले हुए मैदान को ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ कहेंगे तो मैं भी उसे ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ कहूँगा।
यह सब बातचीत कमरे के बीच में खड़े होकर की जा रही थी। मेरे जवाब को सुनकर उन्होंने मुझे गले लगा लिया और प्यार से कहा- ”बहुत अच्छा है। तुम भी हमारे साथ आओ।”
प्रो. मोहम्मद मुजीब आक्सफोर्ड से पढ़ाई करने के बाद जर्मनी में प्रिंटिंग का अध्ययन करने गये थे जहाँ उनकी मुलांकात डॉ. ज़ाकिर हुसैन और डॉ. आबिद हुसैन से हुई थी। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय बुध्दिजीवी इंग्लैंड की तुलना में जर्मनी जाकर पढ़ना ज्यादा पसंद करते थे। राष्ट्रीय संस्थान भी समानधर्मा जर्मन संस्थाओं से सम्पर्क बनाते थे।
प्रो. मोहम्मद मुजीब के पिता मोहम्मद नसीम लखनऊ के बहुत प्रसिध्द और धनवान वकीलों में से थे। पता नहीं क्या वजह थी। हो सकता है प्रो. मुजीब के राष्ट्रीय विचारों के कारण या उनकी ताउम्र ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ की सेवा करने के वचन के कारण, उनके पिताजी ने उन्हें पैसा भेजना बंद कर दिया था। गाँधी जी प्रो. मुजीब को जानते थे और इतना जानते थे कि उन्हें यह पता चल गया था कि प्रो. मुजीब को अब उनके पिताजी पैसे नहीं भेज रहे हैं।
सन् 1929 में गाँधी जी अलीगढ़ में प्रो. मोहम्मद हबीब से मिले थे जो प्रो. मुजीब के बड़े भाई थे। गाँधी जी ने उनसे पूछा था कि उनके पिताजी उनके छोटे भाई यानी मुजीब को पैसे क्यों नहीं भेज रहे हैं? गाँधी जी ने अपने 7 नवम्बर, 1929 के पत्र में मोहम्मद मुजीब को लिखा था- ”मुझे उनसे (प्रो. हबीब से) बहस करने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी। जैसे ही मैंने यह मामला उनके सामने रखा, उन्होंने कहा वे वैसा ही करेंगे जैसा मैंने उनसे करने के लिए कहा है। वह, यह कि तुम्हारे भाई और तुम्हारे पिताजी तुम्हारी मदद करेंगे।” गाँधी जी ने मुजीब साहब के लिए उनके पिताजी को भी चिट्ठी लिखी थी और मुजीब साहब के बारे में लिखा था कि उनके अंदर बलिदान और समर्पण की बड़ी भावना है।
इस पूरे प्रसंग से यह पता चलता है कि महात्मा गाँधी जामिया और जामिया से संबंधित लोगों की कितनी चिंता करते थे। उन्होंने ही जामिया की आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए सेठ जमना लाल बजाज को जामिया का ख़जांची (कोषाध्यक्ष) बना दिया था।
सन् 1975-76 के दौरान जामिया पर तरह-तरह के दबाव पड़ रहे थे क्योंकि अब जामिया ‘डीम टु बी यूनीवर्सिटी’ हो गया था। इसलिए जामिया को शिक्षा मंत्रालय अपने नियमों में जकड़ रहा था। लेकिन बड़ी हद तक जामिया अपने आदर्शों पर टिकी हुई थी। उस समय की एक घटना जामिया के आदर्शों पर बड़ी अर्थपूर्ण टिप्पणी करती है। मुजीब भाई ने बताया था, एक बार पार्लियामेंट में किसी ने यह सवाल पूछा था कि जामिया में हिन्दू और मुस्लिम छात्रों का क्या प्रतिशत है । पार्लियामेंट में यह पूछा गया, सवाल प्रो. मोहम्मद मुजीब के सामने आया। उस जमाने में जामिया के एडमिशन फार्म में धर्म का कोई कॉलम नहीं हुआ करता था। जामिया धर्म को शिक्षा से अलग मानता था। पार्लियामेंट के सवाल का जबाव कैसे दिया जाता जबकि जामिया को छात्रों के धर्म के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। प्रो. मोहम्मद मुजीब ने कई हजार एडमिशन फार्म पार्लियामेंट भिजवा दिये थे और कहा था कि हम किसी छात्र से उसका धर्म नहीं पूछते। संसद को यह जानकारी चाहिए तो वह फार्म पर लिखे नाम को पढ़ कर यह फैसला कर सकती है कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान? हम यह नहीं बता सकते।
‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ में एक दूसरी तरह का संघर्ष भी चलता रहा है। इसकी स्थापना राष्ट्रीय सोच विचार वाले उदार मुसलमानों ने की थी। लेकिन कट्टर पंथी मुसलमान इस कोशिश में लगे रहते थे कि किसी तरह संस्था पर उनका प्रभाव बढ़ जाए या वे उसे कंट्रोल करने लगें। उदारवादी मुसलमानों के लिए यह एक चुनौती बनी रहती थी कि किस प्रकार कट्टर पंथी मुसलमानों के हाथ में जामिया न जाने पाए।
मिर्ज़ा ग़ालिब’ के जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर प्रो. मोहम्मद मुजीब ने यह तय किया था कि जामिया कॉलेज के लॉन में मिर्ज़ा ंगालिब’ की एक प्रतिमा लगायी जाए। ये सूचना जैसे ही कट्टर पंथियों को मिली वे इसका विरोध करने लगे । उनका कहना था कि मूर्ति पूजा इस्लाम में वर्जित है और किसी व्यक्ति की मूर्ति नहीं लगायी जा सकती। प्रो. मोहम्मद मुजीब का कहना था कि ग़ालिब’ की प्रतिमा लगाने का मतलब मूर्ति पूजा नहीं है। यह केवल महाकवि को दिया जाने वाला एक छोटा-सा सम्मान है। प्रो. मोहम्मद मुजीब के स्पष्टीकरण आदि के बाद भी कट्टर पंथी मुसलमान इसका विरोध करते रहे। उन्होंने यहाँ तक कहा कि यदि जामिया में ग़ालिब’ की प्रतिमा लगायी जायेगी तो वे उसे तोड़ देंगे। प्रो. मोहम्मद मुजीब ने उनको उत्तर दिया था कि आप एक प्रतिमा तोड़ देंगे तो हम दूसरी लगा देंगे। आप दूसरी तोड़ देंगे तो हम तीसरी लगा देंगे। बहरहाल, बड़े विरोध के बावजूद ंगालिब की प्रतिमा जामिया कॉलेज के लॉन में बीचोंबीच लगायी गयी। प्रतिमा के नीचे ग़ालिब का यह शेर लिखा है-
जामे हर ज़र्रा (कण) है सरशारे तमन्ना (आशा में डूबा हुआ) मुझसे,
किसका दिल हूँ के दो आलम (दोनों संसार) से लगाया है मुझे।
ग़ालिब की इस प्रतिमा को लेकर जामिया में एक लतींफा प्रचलित था। एक जमाने में जामिया के एक रजिस्ट्रार थे जिनका बेवकूफी, मूर्खता, कमअहेली में जवाब न था। उनके बारे में लड़कों ने एक लतींफा बनाया था। एक दिन रात के वक्त कुछ लड़के ंगालिब की प्रतिमा के नीचे बैठे थे। उन्होंने अचानक सुना कि ंगालिब बोल रहे हैं। लड़के बहुत खुश हुए और ंगालिब से उनकी बातचीत होने लगी। ग़ालिब ने लड़कों से कहा-”भई मैं, यहाँ खड़े-खड़े तंग आ गया हूँ… तुम लोग जानते ही हो घूमने-फिरने…सैर, तफरीह करने वाला आदमी हूँ… मगर जाऊँ कैसे…एक घोड़ा मंगा दो तो मैं बल्लीमारान तक हो आऊँ ।” लड़के ंगालिब की यह फर्माइश लेकर रजिस्ट्रार साहब के पास पहुँचे। पहले तो रजिस्ट्रार साहब लड़कों पर बहुत बिगड़े और उन्होंने कहा कि यह हो ही नहीं सकता कि पत्थर का मुजस्समा (प्रतिमा) बोलने लगे। लडकों ने कहा नहीं साहब, हमने खुद सुना है । ग़ालिब बहुत अच्छी तरह बोल रहे हैं। बड़ी साफ आवाज़ आ रही है। आप चलिए और सुन लीजिए। खैर, किसी तरह रजिस्ट्रार साहब लड़कों के साथ ंगालिब के मुजस्समे तक आये। हैरानी की बात यह हुई कि उनके आने के बाद ंगालिब कुछ नहीं बोले। रजिस्ट्रार ने लड़कों को बहुत डाँटा कहा कि तुम लोगों ने मेरी नींद खराब कर दी। तुमने झूठ बोला था। ंगालिब बोल-वोल कुछ नहीं रहे हैं। खैर साहब लड़कों को डाँटने-फटकारने के बाद रजिस्ट्रार साहब चले गये। उनके जाने के बाद ंगालिब फिर बोलने लगे। ंगालिब ने कहा – ”अरे भई, मैंने घोड़ा लाने के लिए कहा था…तुम लोग गधा ले आये थे।”
अकार’ से साभार – आगे जारी…..