कूटनीति की दुनिया में यह कहा जाता है कि इशारों का भी बहुत महत्व होता है। अब सवाल यही है कि क्या प्रधानमंत्री ने लेह में जाकर इशारों ही इशारों में वह बात कही जो चीन को दबाव में डाल दे? या कुछ ऐसा कहा जिससे ऐसा लगे कि चीन सेना भारत की सीमा से बाहर चली जाएगी? जिससे यह लगे कि भारत चीन के प्रति गंभीरता से सोच रहा है? इन सवालों का झटपट जवाब मिल जाए ऐसी उम्मीद भी नहीं है और न ही रखनी चाहिए। लेकिन सरकार के कदमों से ऐसा लगना तो चाहिए कि हम चीन को गंभीरता से ले रहे है और उस दिशा में काम कर रहे हैं जो चीन जो झुकाने के लिए जरूरी है।
ख़बरों के मुताबिक लेह जाने की योजना रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के लिए तय की गई थी लेकिन अचानक से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लेह पहुंच गए। इस पर कोई विवाद नहीं है, लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि वह कौन सा तत्व है जिसने पिछले कुछ सालों में भारतीय सरकार की पूरी हैसियत ही बदल दी है। सारा महकमा एक व्यक्ति में केंद्रित होकर रह गया है। दिवंगत सुषमा स्वराज के बारे में कहा जाता था कि विदेश मंत्री होने के बजाय केवल वीजा मंत्री है। ठीक ऐसे ही इस समय भारतीय विदेश नीति में प्रसाशनिक अधिकारी रह चुके जयशंकर मिश्रा भारत के विदेश मंत्री हैं। साथ में चीनी मामलों के विशेष जानकार भी है लेकिन इनकी कोई सुगबुगाहट सुनाई नहीं देती और न ही मीडिया इन लोगों की राय जानने की कोशिश करती है।
लौटकर इस सवाल पर आते हैं कि वह क्या है जो रक्षा मामलों पर रक्षा मंत्री के बजाय प्रधानमंत्री को जाने के लिए उकसाता है? क्या ऐसा है कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी से सेना का मनोबल रक्षा मंत्री की मौजूदगी की अपेक्षा ज्यादा बढ़ता है? या कुछ ऐसा है कि प्रधानमंत्री का प्रतीक रक्षा मंत्री की बजाय ज्यादा सशक्त है? इन सवालों के बहुत सारे जवाब हो सकते हैं। लेकिन लेह से आ रही तस्वीरों से तो यह साफ है की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी केवल सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए नहीं हुई थी बल्कि इसके साथ यह भी योजना थी कि चीन को एक प्रभावी संदेश जाए और साथ में घरेलू जनता के बीच भी एक प्रभावी संदेश जाए। कहने का मतलब यह है कि प्रधानमंत्री का लेह दौरा तीन स्तरों में बांटकर देखना चाहिए। पहला है,चीन को दिए गए संदेश के स्तर पर। दूसरा, सेना के मनोबल को बढ़ाने के स्तर पर और तीसरा, भारतीय जनमानस को पहुंचाए गए संदेश के स्तर पर।
चीन को दिए गए संदेश के स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या चीन अपने सैनिकों को लद्दाख में उस जगह से पीछे हटने के लिए कहेगा जिस पर भारत अपना दावा प्रस्तुत कर रहा है। इस सवाल का जवाब देते हुए रक्षा मामलों के जानकार प्रवीण साहनी अपनी पत्रिका फोर्स में लिखते हैं कि लद्दाख ही एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर भारत और चीन के बीच कभी भी एक ऐसा बॉर्डर नहीं रहा जिस पर भारत और चीन दोनों की आपसी रजामंदी हो।
और लद्दाख ही एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे 5 अगस्त 2019 में भारत सरकार द्वारा बदलकर एक संघ शासित प्रदेश बना दिया गया था। इस बदलाव से चीन खुश नहीं था। इस बदलाव से ही भारत और चीन के बीच लद्दाख में सीमा तनाव की स्थिति पैदा हुई। ठीक ऐसी ही बात भारत के भूतपूर्व राजनयिक एम.के भद्रकुमार ने न्यूज़क्लिक के एक लेख में लिखी है। एम.के भद्रकुमार भी कहते हैं कि लद्दाख में भारत की तरफ से 255 किलोमीटर की सड़क अचानक तो नहीं बनी होगी। इन सब कार्यवाही पर चीन की भी नजर होगी। लेकिन जैसे ही चीन को लगा कि भारत अब लद्दाख और अक्साई चीन को अपने नक्शे में शामिल करने लगा है वैसे ही चीन की तरफ से लद्दाख पर अतिक्रमण की तैयारियां होने लगी।
मौजूदा स्थिति यह है की गलवान घाटी जहां पर भारत और चीन के बीच सीमा विवाद नहीं था, से लेकर लद्दाख में पैंग त्सो झील, देपसांग जैसे इलाकों में चीनी सेना वहां आ गई है जहां पर भारतीय सेना पेट्रोलिंग किया करती थी। जिसे भारत की सीमा के अंदर समझा जाता था। प्रवीण स्वामी कहते हैं कि अब चीनी सेना यह कह रही है कि भारत साल 1959 में चीन द्वारा प्रस्तुत किए गए लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को स्वीकार कर ले। जिस प्रस्ताव को जवाहरलाल नेहरू ने भी ठुकरा दिया था। इस लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल का निर्धारण कोई सैन्य अधिकारी नहीं कर सकता है। ऐसा अधिकार सेना के किसी भी अधिकारी के बाहर का अधिकार है। इस पर भारत सरकार ही हस्तक्षेप कर सकती है।
अब बात यह है कि क्या भारत सरकार लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल की उस सीमा रेखा को मानने के लिए तैयार है जो अभी तक भारतीय जमीन का हिस्सा हुआ करती थी? क्या इसका हल इस बात से निकल जाएगा कि भारत के प्रधानमंत्री लेह में जाकर बिना चीन का नाम लिए चीन को इशारों में विस्तारवादी कहें और सबकुछ सुलट जाए तो इसका जवाब है कि बिल्कुल नहीं। इसका हल ठोस कूटनीतिक लेन-देन से ही निकल सकता है। अब यह ठोस कूटनीतिक लेन-देन क्या है? इसका जवाब भारत सरकार के अफसर और चीनी अफसर ही अच्छी तरह से जानते हैं। और इस पर अभी तक कोई ठोस जानकारी नहीं मिल रही है।
वह चीन जो बिना शोर किये अपना काम करने के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है, जिस पर दुनिया के तमाम देश पिछले कई सालों से विस्तारवादी होने का आरोप लगाते आ रहे हैं उस चीन के लिए विस्तारवादी होना कोई नई उपमा नहीं है कि वह झुक जाए। प्रधानमंत्री के भाषण के बाद चीन के प्रवक्ता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए उलटे यह कहा कि दोनों देशों के सेनाओं को पीछे हटाने जैसे संवेदनशील विषय पर बातचीत के दौरान भारत द्वारा माहौल गर्म करने की कोशिश की जा रही है। यानी चीन इशारों में यह बता रहा है की वह अपने मंसूबों में पीछे नहीं हटने वाला है, उल्टे भारत पर आरोप लगा रहा है।
फिर भी एक बात और है जिस पर गौर करना चाहिए। वह यह है कि क्या सीमा का तनाव गोली-बारूद के जरिये युद्ध में भी बदल सकता है? जानकारों की एक खेप कहती है कि युद्ध जैसी किसी तरह की संभावना बने, ऐसा भारत और चीन दोनों देश नहीं चाहते होंगे लेकिन यह तो साफ है कि सीमा पर चीन सेना और हथियारों की रणनीतिक मौजूदगी के साथ भारत पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है। इस दबाव का काउंटर दबाव तभी मजबूत होता जब भारत की सैन्य शक्ति चीन जितनी मजबूत होती। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री चीन का नाम नहीं ले रहे हैं। इसीलिए दो तरह की संभावनाएं बनती दिख रही हैं कि चीन सीमा पर सैनिक जमावड़ा बनाए रखेगा और भारत को कूटनीतिक लेन-देन के जरिए टेबल पर लाने की कोशिश करेगा। इस तरह से इसका अंदाजा बहुत ज्यादा है कि प्रधानमंत्री द्वारा लेह के भाषण में भी चीन के अतिक्रमण को स्वीकार न करने की वजह से चीन को यह लग रहा हो कि वह अभी अपने मंसूबों में कामयाब हैं और भारत पर दबाव बनाये हुए है।
अब बात करते हैं सेना के मनोबल बढ़ाने के स्तर पर। निश्चित तौर पर मौजूदा प्रधानमंत्री या कोई और भी नेता अगर तनाव के हालात में अपने सैनिकों से मिलने जाता है तो सैनिकों के लिए यह मनोबल बढ़ाने वाला प्रतीक होता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री की मौजूदगी ने भी ऐसे ही प्रतीक का काम किया है। डिजिटल के जमाने में इन प्रतीकों की प्रकृति में भी बदलाव हुआ है। जैसा कि हम सब दो दिन से देख रहे हैं लेह से प्रधानमंत्री की कई तरह की तस्वीरें सोशल मीडिया पर घूम रही हैं। जिन तस्वीरों से साफ झलक रहा है कि पूरे देश में यह संदेश फैलाया जाए कि प्रधानमंत्री सेना की चिंता करते हैं। सेना से खास लगाव रखते हैं। अगर स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो इस खास का मतलब वही है जिसकी बयार पर भाजपा अपनी राष्ट्रवाद की बुनियाद खड़ा करती है और लोगों में यह संदेश पहुंचाने की पुरजोर कोशिश करती है कि सेना उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या यह सही है या केवल महज राजनीतिक पासा है, जिसका इस्तेमाल भाजपा जैसी दक्षिणमुखी पार्टी बड़ी शानदार तरीके से करती है।
तो जवाब यह है की यह केवल राजनीतिक पासा है, जिसके लिए सेना का इस्तेमाल किया जाता है। क्योंकि जिस तरह से हम डिजिटल मीडिया की गलियों में यह देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री सैनिकों के बीच में मौजूद हैं। ठीक वैसे ही आज से कुछ दिन पहले का प्रधानमंत्री का भाषण भी डिजिटल मीडिया पर मौजूद है जिसमें वह साफ-साफ कह रहे हैं कि चीनी सैनिक भारतीय सीमा में नहीं घुसे। डिजिटल मीडिया में इसके बाद भूतपूर्व सैनिकों की आई टिप्पणियां भी मौजूद हैं जो यह बताती हैं कि प्रधानमंत्री ने सैनिकों के शहादत का सम्मान नहीं किया। हैरत की बात तो यह है कि 20 सैनिकों की हत्या के बाद भी प्रधानमंत्री ने यह खुलकर नहीं स्वीकार किया है कि चीनी सैनिक भारतीय सीमा के अंदर आए और सैनिकों के साथ डिसइंगेजमेंट के प्रोटोकॉल को तोड़कर झड़प की जिसमें भारत की तरफ से 20 सैनिक शहीद हो गए।
अगर प्रधानमंत्री ने अब तक यह बात नहीं स्वीकारी तो यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने डिजिटल मीडिया के जमाने में वह ठोस बात कही है जिससे भारतीय सैनिकों का अपनी ही सरकार द्वारा झुकाया गया मनोबल वापस मिल जाता। अगर यह बात नहीं कही और तस्वीरें जमकर खिंचवाई तो यह क्यों न कहा जाए की हमेशा कि तरह यह एक राजनीतिक पासे के अलावा और कोई ठोस कदम नहीं है।
अब सवाल यह भी है कि आखिरकार सेना का मनोबल कैसे बढ़ता है? प्रवीण स्वामी इसका बहुत ही माकूल जवाब देते है कि सेना को अपना काम करने में मुश्किलों का सामना कम से कम करना पड़े। सेना के पास रहने की अच्छी जगह हो। आधुनिक हथियार हो। विरोधी के खिलाफ भिड़ने के लिए जरूरी ट्रेनिंग हो। इसमें कोई दो राय नहीं भारतीय सेना अदम्य साहस की जीती जागती मिसाल है और पूरी दुनिया भारतीय सेना के साहस को सलाम करती है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि भारतीय सैन्य क्षमता, चीन से कमतर है।
भारतीय सेना की अधिकतर तैयारियां भारत के पश्चिमी फ्रंट यानी पाकिस्तान को लेकर रही हैं। भारत के पास अपने ईस्टर्न फ्रंट को लेकर पर्याप्त तैयारियां नहीं है। इसीलिए खबरें यह भी आ रही हैं की चीन अरुणाचल के तवांग के इलाके में भी चहल कदमी बढ़ा रहा है। आधुनिक हथियारों के लिहाज से मेक इन इंडिया की हालत का सबको पता है। इसलिए अगर यह कहा जाए कि प्रधानमंत्री की लेह की तस्वीरें बहुतों के अंदर सांकेतिक महत्व की बजाय सांकेतिक गुब्बारा भरने की काम आईं तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
अब बात आती है कि घरेलू जनमानस में लेह की यात्रा का क्या संदेश जाता है? इसे जांचने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि मीडिया के कामकाज को देख लिया जाए। यह देख लिया जाए कि मीडिया कैसे अवाम का निर्माण कर रही है? भारत की मेन स्ट्रीम मीडिया ने एक वैचारिक समाज बनाने की बजाय एक युद्ध उन्मादी समाज में भारत को बदल दिया है। ऐसे समाज में जो दो देशों के बीच आगे-पीछे की होड़ के अलावा दूसरे समीकरणों के सहारे नहीं सोचता। ऐसे समाज में राजनेता विदेश नीति भी घेरलू राजनीति के धरातल पर रखकर सोचने लगते हैं। नरेंद्र मोदी भी यही करते हैं इसलिए विदेश नीति के बहुत सारे धड़ों पर नरेंद्र मोदी को खतरनाक चुनौतियों का समाना करना पड़ रहा है। अगर साफ़ शब्दों में कहा जाए तो बात यह है कि प्रधानमंत्री ने सैनिकों के साथ वह सब किया जिससे अंध-भक्त में तब्दील होते भारतीय समाज को खूब आनंद मिले। और यह आनंद प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ाने का काम करता है और साथ ही उन्हें वोट भी दिलवाता है।
अंत में फिर भी आप एक पाठक के तौर पर यह पूछ सकते हैं कि क्या प्रधानमंत्री को लेह नहीं जाना चाहिए था? क्या भाषण नहीं देना चाहिए था? तो जवाब है बिल्कुल जाना चाहिए था और भाषण भी देना चाहिए था। यह एक नेता के तौर पर उनका हक़ है। लेकिन जिस तरह से लेह की यात्रा को मीडिया में प्रस्तुत किया जा रहा है, उस तरह प्रधानमंत्री की लेह की यात्रा को नहीं देखा जाना चाहिए। इस यात्रा पर वह सारे सवाल पूछे जाने चाहिए जिसका जिक्र इस लेख में किया गया है। अगर प्रधानमंत्री के ऐसी यात्राओं को सही पृष्ठभूमि में पेश नहीं किया गया और सही सवाल नहीं पूछे गए तो वास्तव में हम एक गंभीर स्थिति में फंस कर रह जाएंगे।
सौज- न्यूजक्लिक