प्रज्ञा पारिजात सिंह
अगर पत्नी का सिंदूर ना लगाना पति पर क्रूरता की निशानी है, तो अदालतों को हजारों पेटिशन झेलने के लिए तैयार रहना होगा. हिन्दू मैरिज एक्ट में कहीं सिंदूर या मंगलसूत्र का उल्लेख नहीं है.
गुवाहाटी हाई कोर्ट ने इस हफ्ते एक विचित्र ऑर्डर पास किया जिसे मैं कई बार पढ़ चुकी हूं और अपनी सारी सूझबूझ का इस्तेमाल करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि “लुक्स कैन बी डेसेप्टिव” मुहावरा यहां एकदम सटीक बैठता है. इस जजमेंट के हिसाब से “ग्राफिक एविडेंस” न हो तो आपकी शादी को अमान्य घोषित किया जा सकता है. सिंदूर, शाखा पोला, मंगलसूत्र और बिछिया को “ग्राफिक एविडेंस” कहना कुछ लोगों को सनातन धर्म के विपरीत या हिन्दू रीति रिवाजों की अवमानना लग सकता है लेकिन मेरा ऐसा कहने के पीछे कुछ कारण हैं. कस्टमरी लॉ यानी प्रथागत कानून विधि निर्माण में एक अभिन्न अंग रखते हैं. प्रथाएं धर्मों का अहम अंग हैं, इसीलिए कानून इन्हें सुरक्षित रखता है. लेकिन जहां कानून ही प्रथाओं के नाम पर कुरीति फैलाए, वहां आने वाले अंधेरे को रोकना नामुमकिन हो जाता है.
जजमेंट के हिसाब से गुवाहाटी हाई कोर्ट ने तलाक के एक मामले में कहा है कि अगर विवाहिता हिंदू रीति रिवाज के अनुसार शाखा चूड़ियां और सिंदूर लगाने से इनकार करती है, तो यह माना जाएगा कि विवाहिता को शादी अस्वीकार है. यह टिप्पणी हाई कोर्ट ने एक पति द्वारा दायर की गई तलाक की याचिका मंजूर करते हुए की. जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया की डबल बेंच ने कहा कि इन परिस्थितियों में अगर पति को पत्नी के साथ रहने को मजबूर किया जाए, तो यह उसका उत्पीड़न माना जा सकता है. हाई कोर्ट से पहले फैमिली कोर्ट ने पति की तलाक याचिका खारिज कर दी थी. कोर्ट ने पाया था कि पति पर कोई क्रूरता नहीं हुई थी.
गुवाहाटी हाई कोर्ट का अजीबोगरीब फैसला शादी की अस्मिता पर सवाल उठा रहा है. तो जान लेते हैं कि कानून की नजर में विवाह कब वैध माना जाता है. हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 5 के अनुसार:
1) विवाह के लिए किसी भी व्यक्ति या पार्टी को पहले से शादीशुदा नहीं होना चाहिए, यानी शादी के समय किसी भी पार्टी में पहले से ही जीवनसाथी नहीं होना चाहिए. इस प्रकार, यह अधिनियम बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाता है.
2) शादी के समय यदि कोई भी पक्ष बीमार है, तो उसकी सहमति वैध नहीं मानी जाएगी. भले ही वह वैध सहमति देने में सक्षम हो लेकिन किसी मानसिक विकार से ग्रस्त नहीं होना चाहिए, जो उसे शादी के लिए और बच्चों की जिम्मेदारी के लिए अयोग्य बनाता है. दोनों में से कोई पक्ष पागल भी नहीं होना चाहिए.
3) दोनों पक्ष में से किसी की उम्र विवाह के लिए कम नहीं होनी चाहिए. दूल्हे की उम्र न्यूनतम 21 साल और दुल्हन की उम्र कम से कम 18 साल होनी चाहिए.
4) दोनों पक्षों को सपिंडों या निषिद्ध संबंधों की डिग्री के भीतर नहीं होना चाहिए, जब तक कि कोई भी कस्टम प्रशासन उन्हें इस तरह के संबंधों के बीच विवाह की अनुमति नहीं देता.
इसके अलावा एक्ट में कहीं भी यह नहीं लिखा है की यदि मंगलसूत्र या शाखा न पहना जाए तो यह क्रूरता का प्रतीक है या इसका मतलब है कि महिला शादी को नहीं मानती है.
कहते हैं चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी. यही बताता है की भारत में खान-पान, रहन-सहन और वेश-भूषा में कितनी भिन्नताएं हैं. हिन्दुओं में ही अनेक रीति-रिवाज हैं. विवाह पश्चात बंगाली महिलाएं शाखा पोला पहनती हैं, तो पंजाबी महिलाएं चूड़ा, उत्तर प्रदेश की महिलाएं लाल चूड़ी, तो कुछ महिलाएं कड़े. जहां कुछ महिलाओं को बिछिया पहनना जरूरी है, तो वहीं कुछ महिलाओं को मंगलसूत्र. ये संस्कृति का हिस्सा है. ज्यादातर महिलाएं सिंदूर का इस्तेमाल करती हैं. यानी हमारे समाज के लिए शादीशुदा होने का मतलब है शादीशुदा दिखना. यह समझ लेना कि किसी महिला का सिंदूर ना लगाना यह दिखलाता है कि वह शादी को ही नहीं मानती बेतुका है. और इस बात पर जब न्यायपालिका मुहर लगा देती है, तो संकट और गहरा जाता है.
इस मामले के बाद क्रूरता के कई आधारों में इसको भी जोड़ लिया जाएगा और इसका दुरुपयोग निश्चित है. यहां यह भी अत्यंत दुखद है कि फैसला सुनाने वाले भी पुरुष हैं और किसी महिला से कुछ पूछना जरूरी ही नहीं समझा गया. दरअसल असली समस्या यह है कि महिलाओं को संपत्ति समझा जाता है. क्या किसी पुरुष को खुद को शादीशुदा साबित करने के लिए सिंदूर लगाना या चूड़ी पहनना पड़ता है? वह शादी से पहले भी मिस्टर होता है, और शादी के बाद भी. महिला मिस से मिसेज हो जाती है और उस पर परंपराओं का सारा बोझ डाल दिया जाता है. और फिर यह कह देना कि पति और परिवार के प्रति उसका प्रेम इस बात पर निर्भर करेगा कि उसने सिंदूर लगाया है या नहीं, यह बेहद परेशान करने वाला है. क्या जो महिलाएं सिंदूर नहीं लगातीं, वे अपनी शादी को नहीं मानतीं? हिन्दू शादिओं को संस्कार माना गया है ना की संधि. लेकिन इस जजमेंट ने शादी को एक बेहद ही “कॉस्मेटिक” बंधन तक सीमित कर के रख दिया है.
कोई महिला विवाह के पश्चात कैसे सजना संवारना चाहती है, यह तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ उसी का है. अदालत का इस मामले में दखल देना पिछड़ेपन की निशानी है. विवाहित महिलाएं आज वकील हैं, जज हैं. वे कोर्ट भी चला रही हैं और घर भी. इसलिए यह कहना कि अगर उन्होंने सिंदूर नहीं लगाया या शाखा नहीं पहना, तो वे शादी को नहीं मानतीं, यह उनके संघर्ष का अपमान करना है.
सनातन धर्म में विवाह का कोडिफिकेशन कहीं नहीं है. 18वीं सदी में ब्रिटिश काल के दौरान जब कानून बनाए जा रहे थे, तो हिन्दू कानूनों का कोडिफिकेशन करने के लिए सदिओं पुरानी नियमावली को उठा कर कानून बनाया गया. सप्तपदी से लेकर बच्चे को गोद लेने तक के कानूनों को वहां से उठाकर हिन्दू मैरिज एक्ट में डाला गया. लेकिन सनातन धर्म में यह कहीं भी अनिवार्य नहीं था कि आप मंगलसूत्र पहनें या सिंदूर लगाएं. ये मान्यताएं महिलाओं के ऊपर कहीं भी बाध्य नहीं है. फिर ऐसे में कोर्ट का पर्सनल लॉ में दखल देना किस हद तक सही है?
जजमेंट की एक पंक्ति कहती है कि महिला ने एविडेंस में यह माना है कि वह हिन्दू है, अतः सिंदूर / शाखा न पहनना इस बात का संकेत है कि वह खुद को अविवाहित मानती है या शादी में विश्वास नहीं रखती. इस तरह का संकरा विवेचन बेहद ही गंभीर है. उम्मीद ही की जा सकती है कि गुवाहाटी हाई कोर्ट की गलती को अब सुप्रीम कोर्ट सुधारे. विवाह एक संस्कार है. लेकिन संस्कारों के नाम पर महिलाओं पर अनुचित कानून थोपते रहना, सही नहीं है. यह महिला की मर्जी होनी चाहिए कि वह क्या पहने, क्या नहीं. यदि शादी के मायने सिर्फ कॉस्मेटिक हैं, तो यह दुखद है. इसलिए “ग्राफिक एविडेंस” से ऊपर उठ कर फैमिली कोर्ट और हाई कोर्ट को चाहिए कि वे बुनियादी नींव पर काम करें, अन्यथा “क्रूरता” को वजह बना कर हजारों पेटिशन को झेलने के लिए कोर्ट को आगे तैयार रहना होगा.
सौज- प्रज्ञा पारिजात सिंह, अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय, नई दिल्ली के ब्लॉग से डीडबू