केशवानंद भारती : वह धर्मगुरु जिसकी कोशिशों से भारत एक लोकतंत्र के रूप में बचा रह सका

चंदन शर्मा

देश के न्यायिक इतिहास में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई हो जो केशवानंद भारती का नाम न जानता हो. 24 अप्रैल, 1973 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ के मामले में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले के चलते कोर्ट-कचहरी की दुनिया में वे लगभग अमर हो गए.केशवानंद भारती मामले में आए इस फैसले से स्थापित हो गया कि देश में संविधान से ऊपर कोई भी नहीं है. संसद भी नहीं. यह भी माना जाता है कि अगर इस मामले में सात जज यह फैसला नहीं देते और संसद को संविधान से किसी भी हद तक संशोधन के अधिकार मिल गए होते तो शायद देश में गणतांत्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित नहीं रह पाती.

केशवानंद भारती का निधन हो गया है. वे 79 वर्ष के थे. उन्होंने रविवार को केरल के कासरगोड जिले में स्थित अपने आश्रम में अंतिम सांस ली. केशवानंद भारती इस मठ के प्रमुख थे. बताया जा रहा है कि अगले हफ्ते उनके दिल का ऑपरेशन होना था लेकिन रविवार, सुबह अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई और उन्हें बचाया नहीं जा सका.

देश के न्यायिक इतिहास में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई हो जो केशवानंद भारती का नाम न जानता हो. 24 अप्रैल, 1973 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ के मामले में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले के चलते कोर्ट-कचहरी की दुनिया में वे लगभग अमर हो गए. हालांकि बहुतों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि न्यायिक दुनिया में अभूतपूर्व लोकप्रियता के बावजूद केशवानंद भारती न तो कभी जज रहे और न ही वकील. उनकी ख्याति का कारण तो बतौर मुवक्किल सरकार द्वारा अपनी संपत्ति के अधिग्रहण को अदालत में चुनौती देने से जुड़ा रहा है.

केरल के शंकराचार्य

कासरगोड़ केरल का सबसे उत्तरी जिला है. पश्चिम में समुद्र और पूर्व में कर्नाटक से घिरे इस इलाके का सदियों पुराना एक शैव मठ है जो एडनीर में स्थित है. यह मठ नवीं सदी के महान संत और अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता आदिगुरु शंकराचार्य से जुड़ा हुआ है. शंकराचार्य के चार शुरुआती शिष्यों में से एक तोतकाचार्य थे जिनकी परंपरा में यह मठ स्थापित हुआ था. यह ब्राह्मणों की तांत्रिक पद्धति का अनुसरण करने वाली स्मार्त्त भागवत परंपरा को मानता है.

इस मठ का इतिहास करीब 1,200 साल पुराना माना जाता है. यही कारण है कि केरल और कर्नाटक में इसका काफी सम्मान है. शंकराचार्य की क्षेत्रीय पीठ का दर्जा प्राप्त होने के चलते इस मठ के प्रमुख को ‘केरल के शंकराचार्य’ का दर्जा दिया जाता है. इसीलिए स्वामी केशवानंद भारती केरल के मौजूदा शंकराचार्य कहे जाते थे. उन्होंने महज 19 साल की अवस्था में संन्यास लिया था जिसके कुछ ही साल बाद अपने गुरू के निधन की वजह से वे एडनीर मठ के मुखिया बन गए. 20 से कुछ ही ज्यादा की उम्र में यह जिम्मा उठाने वाले स्वामी छह दशक तक इस पद पर रहे. हालांकि उनके सम्मान में उन्हें ‘श्रीमत् जगदगुरु श्रीश्री शंकराचार्य तोतकाचार्य श्री केशवानंद भारती श्रीपदंगलावारू’ के लंबे संबोधन से बुलाया जाता था.

केशवानंद भारती की परेशानी क्या थी?

एडनीर मठ का न केवल अध्यात्म के क्षेत्र में दखल रहा है बल्कि संस्कृति के अन्य क्षेत्रों जैसे नृत्य, कला, संगीत और समाज सेवा में भी यह काफी योगदान करता रहा है. भारत की नाट्य और नृत्य परंपरा को बढ़ावा देने के लिए कासरगोड़ और उसके आसपास के इलाकों में दशकों से एडनीर मठ के कई स्कूल और कॉलेज चल रहे हैं.

इसके अलावा यह मठ सालों से कई तरह के व्यवसायों को भी संचालित करता है. साठ-सत्तर के दशक में कासरगोड़ में इस मठ के पास हजारों एकड़ जमीन भी थी. यह वही दौर था जब ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार भूमि सुधार के लिए काफी प्रयास कर रही थी. समाज से आर्थिक गैर-बराबरी कम करने की कोशिशों के तहत राज्य सरकार ने कई कानून बनाकर जमींदारों और मठों के पास मौजूद हजारों एकड़ की जमीन अधिगृहीत कर ली. इस चपेट में एडनीर मठ की संपत्ति भी आ गई. मठ की सैकड़ों एकड़ की जमीन अब सरकार की हो चुकी थी. ऐसे में एडनीर मठ के युवा प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी.

केरल हाईकोर्ट के समक्ष इस मठ के मुखिया होने के नाते 1970 में दायर एक याचिका में केशवानंद भारती ने अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए मांग की थी कि उन्हें अपनी धार्मिक संपदा का प्रबंधन करने का मूल अधिकार दिलाया जाए. उन्होंने संविधान संशोधन के जरिए अनुच्छेद 31 में प्रदत्त संपत्ति के मूल अधिकार पर पाबंदी लगाने वाले केंद्र सरकार के 24वें, 25वें और 29वें संविधान संशोधनों को चुनौती दी थी. इसके अलावा केरल और केंद्र सरकार के भूमि सुधार कानूनों को भी उन्होंने चुनौती दी. जानकारों के अनुसार स्वामी केशवानंद भारती के प्रतिनिधियों को संवैधानिक मामलों के मशहूर वकील नानी पालकीवाला ने सलाह दी थी कि ऐसा करने से मठ को उसका हक दिलाया जा सकता है. हालांकि केरल हाईकोर्ट में मठ को कामयाबी नहीं मिली जिसके बाद यह मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट चला गया.

देश की शीर्ष अदालत ने पाया कि इस मामले से कई संवैधानिक प्रश्न जुड़े हैं. उनमें सबसे बड़ा सवाल यही था कि क्या देश की संसद के पास संविधान संशोधन के जरिए मौलिक अधिकारों सहित किसी भी अन्य हिस्से में असीमित संशोधन का अधिकार है. इसलिए तय किया गया कि पूर्व के गोलकनाथ मामले में बनी 11 जजों की संविधान पीठ से भी बड़ी पीठ बनाई जाए. इसके बाद 1972 के अंत में इस मामले की लगातार सुनवाई हुई जो 68 दिनों तक चली.

अंतत: 703 पृष्ठ के अपने लंबे फैसले में केवल एक वोट के अंतर से शीर्ष अदालत ने स्वामी केशवानंद भारती के विरोध में फैसला दिया. यह फैसला 7:6 के न्यूनतम अंतर से दिया गया. यानी सात जजों ने पक्ष में फैसला दिया और छह जजों ने विपक्ष में. इस फैसले में छह के मुकाबले सात के बहुमत से जजों ने गोलकनाथ मामले के फैसले को पलट दिया. यानी अब न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर तो सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन वह नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) में कोई परिवर्तन होता हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो.

केशवानंद भारती मामले में आए इस फैसले से स्थापित हो गया कि देश में संविधान से ऊपर कोई भी नहीं है, संसद भी नहीं. यह भी माना जाता है कि अगर इस मामले में सात जज यह फैसला नहीं देते और संसद को संविधान से किसी भी हद तक संशोधन के अधिकार मिल गए होते तो शायद देश में गणतांत्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित नहीं रह पाती.

इस फैसले के दो साल बाद इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया और संविधान को पूरी तरह से बदल दिया गया. लेकिन आपातकाल के बाद केशवानंद भारती मामले का फैसला ही था जिसकी कसौटी पर कसकर संविधान को उसके मूल स्वरूप में वापस लाया गया. यह फैसला नहीं आया होता, या अगर इस फैसले में बहुमत ने मान लिया गया होता कि संसद किसी भी हद तक संविधान में संशोधन कर सकती है (जैसा कि इस पीठ के कुछ जजों ने माना भी था) तो आपातकाल के दौरान हुए संविधान संशोधन शायद कभी सुधारे नहीं जा सकते थे. तो कहा जा सकता है कि अपनी बाजी हारकर भी स्वामी केशवानंद भारती इतिहास के ‘बाजीगर’ बन गए थे.

और अंत में…

यह बात किसी को भी हैरान कर सकती है कि स्वामी केशवानंद भारती को जिस शख्स (नानी पालकीवाला) ने अपनी प्रतिभा के दम पर लोकप्रियता दिलाई थी, उनसे वे फैसला आने तक नहीं मिले थे. वहीं मुकदमे की सुनवाई के दौरान जब अखबारों में उनका नाम सुर्खियों में छाया रहता था, तो उन्हें इसका कारण कुछ समझ में नहीं आ रहा था. बताया जाता है कि स्वामी जी अपने मामले के बारे में समझते थे कि यह केवल संपत्ति विवाद का मामला है. उन्हें यह बिल्कुल भी पता नहीं था कि उनके मामले ने ऐसे सवाल खड़े किए हैं ​जिससे भारतीय लोकतंत्र दो दशकों से जूझ रहा था. माना जाता है कि अंतत: इस मामले में फैसला आते ही उनकी निजी समस्या भले ही न दूर हो सकी, लेकिन देश का बहुत बड़ा कल्याण हो गया.

सौज- सत्याग्रह । लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/115650/kesavananda-bharati-vs-state-of-kerala-1973-the-case-that-saved-indian-democracy

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