पूरी दुनिया में इस्लामोफोबिया को हवा दे रही है अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियां. अमेरिका की नीतियों ने जिस तरह की राजनीति को गढ़ा उससे दुनिया के एक बड़े हिस्से की नियति तय हुई. पाकिस्तान में मदरसों के माध्यम से अल्कायदा को प्रशिक्षित किया गया. इसके साथ ही तेल उत्पादक क्षेत्र में हिंसा के बीज बोये गए. कट्टर इस्लामवादियों को अमेरिका द्वारा प्रोत्साहन दिया गया. परंतु 9/11 के हमले ने सब कुछ बदल दिया.
पैगंबर हजरत मोहम्मद के बारे में आपत्तिजनक पोस्टों और कुरान की प्रतियां जलाने की प्रतिक्रिया स्वरूप अभी हाल में अनेक हिंसक घटनाएं हुई हैं. नवीन कुमार, जो बेंगलुरू के एक कांग्रेस विधायक के भतीजे हैं, ने फेसबुक पर पैगम्बर मोहम्मद के बारे में अत्यधिक आपत्तिजनक पोस्ट लिखी. इसके बाद मुस्लिम समुदाय का एक नेता, भीड़ के साथ नवीन के विरूद्ध थाने में शिकायत दर्ज कराने गया. पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में आनाकानी की. इस दरम्यान भीड़ बढ़ती गई और उसने तोड़फोड़ शुरू कर दी. पुलिस ने गोलियां चलाईं जिसके नतीजे में तीन लोगों की मौत हो गई.
स्वीडन के मेल्मो शहर में अगस्त के अंत में एक दक्षिणपंथी नेता ने कुरान की प्रति को आग के हवाले कर दिया. यह भड़काऊ घटना ऐसी जगह हुई जहां मुस्लिम प्रवासी रहते हैं. ‘स्वीडन डेमोक्रेट्स’ नाम की नव-नाजीवादी पार्टी स्वीडन की संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है. इस पार्टी का मानना है कि स्वीडन की सारी समस्याओं की जड़ वहां बसे शरणार्थी हैं. मेल्मो में लगभग तीन सौ लोगों की भीड़ ने कुरान के अपमान का विरोध करते हुए हिंसा की. स्वीडन की दक्षिणपंथी पार्टियों का आरोप है कि नार्डिक देशों का इस्लामीकरण किया जा रहा है और इन देशों में बढ़ते अपराधों के पीछे सीरिया के युद्ध के बाद वहां आए मुसलमान हैं.
इसी बीच अनेक यूरोपीय देशों में भी दक्षिणपंथी ताकतों का दबदबा बढ़ रहा है. एएफजी (आल्टरनेटिव फॉर जर्मनी) ऐसी ही एक दक्षिणपंथी पार्टी है. ऐसी सभी पार्टियों का वैचारिक आधार फासिज्म है. ये दल अति-राष्ट्रवाद में विश्वास करते हैं और प्रवासियों को निशाना बनाते हैं. प्रवासियों ने पश्चिम एशिया में युद्ध और हिंसा के कारण यूरोपीय देशों में शरण ली है. इस युद्ध और हिंसा का कारण है बढ़ती इस्लामिक कट्टरपंथी राजनीति. इस राजनीति को हवा दे रहे हैं अलकायदा, आईएसआईएस और आईएस. इन संगठनों को सशक्त किया है अमरीका की कट्टर इस्लाम को प्रोत्साहन देने की नीति ने. सच पूछा जाए तो तेल की लिप्सा इस इलाके में अमेरिकी हस्तक्षेप का मुख्य कारण है.
एक अन्य घटना में ‘चार्ली हैबडो’ नामक फ्रांस की कार्टून पत्रिका ने पैगम्बर मोहम्मद से संबंधित कार्टूनों का पुनप्रर्काशन ऐसे समय किया जब उन आतंकवादियों पर मुकदमा शुरू हुआ था जिन्होंने सन् 2015 में इस पत्रिका के दफ्तर पर हमला किया था. उल्लेखनीय है कि पत्रिका ने जो कार्टून प्रकशित किए थे वे अनेक लोगों की नजर में अत्यधिक आपत्तिजनक थे. आतंकी हमले में पत्रिका के अनेक कार्टूनिस्ट मारे गए थे. इस घटना के अपराधी गिरफ्तार कर लिए गए थे और वे इस समय अदालत के सामने हैं.
सन् 2007 में फ्रांस में उस समय एकाएक हिंसा भड़क उठी जब पुलिस ने दो मुस्लिम प्रवासी युवकों को मार डाला. यह घटना पुलिस द्वारा एक श्वेत नागरिक की हत्या की जांच के दौरान हुई. ये युवक गैर-कानूनी प्रवासी थे और इसलिए छिपकर रह रहे थे. उनकी हत्या के बाद फ्रांस में अनेक हिंसक घटनाएं हुईं. फ्रांस में रहने वाले अधिकांश प्रवासी मोरक्को, टयूनिशिया, माली, सेनेगल और अल्जीरिया समेत ऐसे देशों से आए हैं जो एक जमाने में फ्रेंच साम्राज्य का हिस्सा थे. ये सब 1950 और 1960 के दशकों में फ्रांस में बसे थे. ये सब मुस्लिम और अश्वेत हैं और पेरिस और फ्रांस के अन्य शहरों में अत्यधिक दयनीय स्थिति में रह रहे हैं.
हमें बोको हरम द्वारा बच्चों के अपहरण और पाकिस्तान के पेशावर में तालिबानियों द्वारा बच्चों की हत्या जैसी अत्यधिक लोमहर्षक घटनाएं याद हैं. जिस तरह हमारे देश में मुसलमानों को उनके पिछड़ेपन और बड़े परिवारों के लिए दोषी ठहराया जाता है उसी तरह यूरोप में भी दक्षिणपंथियों का मानना है कि मुसलमान उन देशों की संस्कृति में घुलना-मिलना नहीं चाहते और अपनी अलग पहचान बनाए रखते हैं. कुछ दक्षिणपंथी अतिवादी नेता, आबादी के इस हिस्से को नीची निगाहों से देखते हैं और उन्हें कीड़े-मकोड़े, बर्बर और जाने क्या-क्या कहते हैं.
हम आज एक ऐसे दौर में रह रहे हैं जिसमें धार्मिक पहचान अपना घिनौना चेहरा बेपर्दा कर रही है. पहचान की राजनीति के सबसे प्रमुख शिकार मुसलमान हैं. भारत में इस तरह की सोच का मुख्य स्त्रोत देश का विभाजन है जिसके चलते संपन्न मुसलमान पाकिस्तान चले गए और यहां बड़ी संख्या में गरीब और हाशिए पर पड़े मुसलमान रह गए. समय-समय पर होने वाली हिंसक घटनाओं के कारण उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई. और इसका एक असर यह हुआ कि वे अपने-अपने मोहल्लों में सिमट गए.
यूरोप में इस्लामोफोबिया के दूसरे कारण हैं. पश्चिम एशिया में लगातार होने वाले युद्धों के कारण वहां के निवासी, शरणार्थियों की हैसियत से यूरोप के देषों में बस गए. स्वीडन उन देशों में है जिन्होंने इन शरणार्थियों को जगह दी. इनमें से बहुसंख्यकों को इसलिए कोई रोजगार नहीं मिल सका क्योंकि वे लगभग अशिक्षित थे. वे इन देशों में पूरी तरह सामाजिक सुरक्षा पर निर्भर थे. इन्हीं मुद्दों को उठाकर नव-नाजी पार्टियां उन्हें निशाना बना रही हैं.
पूरी दुनिया में इस्लामोफोबिया को हवा दे रही है अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियां. अमेरिका की नीतियों ने जिस तरह की राजनीति को गढ़ा उससे दुनिया के एक बड़े हिस्से की नियति तय हुई. पाकिस्तान में मदरसों के माध्यम से अल्कायदा को प्रशिक्षित किया गया. इसके साथ ही तेल उत्पादक क्षेत्र में हिंसा के बीज बोये गए. कट्टर इस्लामवादियों को अमेरिका द्वारा प्रोत्साहन दिया गया. परंतु 9/11 के हमले ने सब कुछ बदल दिया. अमेरिका को यह अहसास हो गया कि उसने एक भस्मासुर को जन्म दे दिया है. इस हमले के बाद अमेरिकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द गढ़कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया. दुनिया के अनेक अन्य राष्ट्रों के मीडिया ने इस दुष्प्रचार को और हवा दी. हमारा देश भी इस मामले में पीछे नहीं रहा. अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ने साम्प्रदायिकता के लिए उपजाऊ जमीन पहले ही तैयार कर दी थी. 21वीं सदी में अमेरिका की नीतियों कीर खाद-मिट्टी पाकर इस जमीन पर घृणा की फसल लहलहाने लगी.
इस बीच जहां अनेक मुस्लिम देशों ने विभिन्न रास्तों से धर्मनिरपेक्षता की ओर कदम बढ़ाने शुरू किए वहीं दुनिया के तेल उत्पादक देश कट्टरवाद के चंगुल में फंसते गए.
तुर्की, जो 1920 के आसपास से धर्मनिरपेक्षता का गढ़ बन गया था, वहां अब कट्टरवादी ताकतें मजबूत होती जा रही हैं. सूडान में राज्य और धर्म में कोई नाता नहीं रह गया है. इंडोनेशिया और मलेशिया दो ऐसे मुस्लिम बहुल राष्ट्र हैं जो कट्टरपंथी विचारधारा से दूरी बना रहे हैं. इसके विपरीत पश्चिम एशिया के देश अभी तक पोंगापंथ के जाल में फंसे हुए हैं.
यह बहुत स्पष्ट है कि यदि भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप के देशों में रहने वाले मुसलमान पिछड़ेपन का शिकार हैं तो उसका कारण इस्लाम नहीं है. उसका असली कारण दुनिया की बड़ी ताकतों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं है जो इस्लाम का सहारा लेकर अपने आर्थिक स्वार्थों को पूरा कर रही हैं. सच पूछा जाए तो मुसलमानों का वह हिस्सा जो अपनी धार्मिक पहचान को प्राथमिकता देता है, वास्तव में एक अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक चक्रव्यूह का शिकार है.
लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं. हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया