पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जिन्हें अपना नायक मानते थे उन सतीश धवन का यह जन्म शताब्दी वर्ष हैश्रीनगर में जन्मे सतीश धवन का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई. यहां उन्होंने एक के बाद एक भौतिक विज्ञान व गणित, साहित्य और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्रियां लीं. भारतीय संदर्भ में देखें तो विज्ञान, मानविकी और तकनीक की दुनियाओं को जोड़ने वाला शिक्षा का यह मेल अनोखा नहीं तो कुछ हटकर तो था ही.
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आजाद अक्सर नैतिक शिक्षाएं देने वाले किस्से सुनाया करते थे. एक किस्सा जो उन्हें खास तौर पर पसंद था वह जुलाई 1979 का है जब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने एक सैटेलाइट लॉन्च किया था. इस परियोजना की कमान कलाम के हाथ में थी. उस समय इसरो में उनके कुछ साथियों ने लॉन्च की तैयारियां पक्की होने पर संदेह जाहिर किया था, लेकिन कलाम ने इसे दरकिनार करते हुए आगे बढ़ने का फैसला किया. लॉन्च नाकाम रहा. अंतरिक्ष में जाने की जगह सैटेलाइट बंगाल की खाड़ी में जा गिरा.
टीम के मुखिया होने के नाते कलाम के लिए यह शर्मिंदा होने वाली स्थिति थी. वे यह सोचकर और भी परेशान थे कि प्रेस के सामने यह ऐलान कैसे करेंगे. लेकिन इसरो के तत्कालीन मुखिया सतीश धवन ने उन्हें बचा लिया. वे खुद टीवी कैमरों के सामने जा पहुंचे और कहा कि इस असफलता के बावजूद उन्हें अपनी टीम की काबिलियत पर पूरा भरोसा है. सतीश धवन ने यह भी विश्वास जताया कि उनकी अगली कोशिश कामयाब होगी.
इसके अगले ही महीने यानी अगस्त में कलाम और उनकी टीम ने सैटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजने की एक और कोशिश की. इस बार यह सफल रही. सतीश धवन ने टीम को बधाई दी और कलाम से कहा कि इस बार प्रेस कॉन्फ्रेंस में वे जाएं. राष्ट्रपति रहते हुए और उसके बाद भी कलाम ने यह किस्सा कई बार सुनाया. वे कहते थे, ‘जब हम नाकामयाब रहे तो हमारे नेतृत्वकर्ता ने इसकी जिम्मेदारी ली. जब हम सफल हुए तो उन्होंने इसका श्रेय टीम को दिया.’
इसी महीने भारत का वैज्ञानिक समुदाय अब्दुल कलाम के इस नायक की जन्म शताब्दी मना रहा है. श्रीनगर में जन्मे सतीश धवन का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई. यहां उन्होंने एक के बाद एक भौतिक विज्ञान व गणित, साहित्य और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्रियां लीं. भारतीय संदर्भ में देखें तो विज्ञान, मानविकी और तकनीक की दुनियाओं को जोड़ने वाला शिक्षा का यह मेल अनोखा नहीं तो कुछ हटकर तो था ही. असल में 1930 और 1940 के दशक का लाहौर ऐसी ही जगह था जो इस तरह के नवाचार को प्रोत्साहन देता था. उन दिनों यह शहर संस्कृति और विद्या के श्रेष्ठ केंद्रों में से एक था जहां हिंदू, इस्लामी, सिख और यूरोपीय बौद्धिकता की धाराओं का संगम होता था.
1945 में अपनी तीसरी डिग्री लेने के बाद सतीश धवन बेंगलुरु आ गए. यहां एक साल तक उन्होंने हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में काम किया. यह उपक्रम उन्हीं दिनों बना था. इसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए जहां मिनेसोटा यूनिवर्सिटी से उन्होंने एमएस की डिग्री ली. इसके बाद सतीश धवन ने कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी से भी एमएस और फिर एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी की. आजादी और बंटवारे के वक्त वे विदेश में ही थे. बंटवारे के चलते उनके परिवार को पाकिस्तान छोड़कर भारत आना पड़ा.
विदेश से भारत लौटने के बाद सतीश धवन भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के एयरोनॉटिक्स विभाग से जुड़ गए. उनके शुरुआती छात्रों में से एक आर नरसिम्हा याद करते हैं कि ‘धवन संस्थान में युवाओं वाली ताजगी, आधुनिकता और ईमानदारी लेकर आए और साथ ही वह अनौपचारिकता भी जो उन्होंने कैलिफोर्निया के दिनों में पाई थी और जो उनके छात्रों और कई साथियों को सम्मोहित करती थी.’
आईआईएससी में सतीश धवन ने वह काम करना शुरू किया जिसमें उन्हें आनंद आता था. यह काम था शोध यानी रिसर्च. उन्होंने देश में पहली बार सुपरसोनिक विंड टनल बनाई. अपना नया बसेरा यानी बेंगलुरु उन्हें भाने लगा था. यहीं उन्हें जीन विज्ञानी नलिनी निरोदी से प्रेम हुआ और फिर दोनों विवाह बंधन में बंध गए.
1962 में सतीश धवन को आईआईएससी का निदेशक बना दिया गया. कहा जाता है कि उन दिनों यह जगह धीरे-धीरे अकादमिक ऊंघ वाली आरामतलब अवस्था में आती जा रही थी. सतीश धवन ने उसे इस ऊंघ से जगाया और आईआईएसी को देश का शीर्ष शोध संस्थान बना दिया. निदेशक के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने यहां कंप्यूटर साइंस, मॉलीक्यूलर बायोफिजिक्स, सॉलिड स्टेट केमिस्ट्री, इकॉलॉजी और एटमॉसफेरिक साइंस जैसे विषयों में नए शोध कार्यक्रम शुरू करने में अहम भूमिका निभाई. सतीश धवन इस संस्थान के स्टाफ में देश-दुनिया के श्रेष्ठ विद्वान भी लेकर आए.
1971 में सतीश धवन ने आईआईएससी से थोड़ा सा विराम लिया. वे वापस कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी गए और शोध कार्य में रम गए. इसी दौरान भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक कहे जाने वाले विक्रम साराभाई की सिर्फ 52 साल की उम्र में अचानक मृत्यु हो गई. भारत में विज्ञान की दुनिया और खास कर अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में किए जा रहे प्रयासों के लिए यह एक बड़ा झटका था जो अभी शैशव अवस्था में ही थे. अपने प्रधान सचिव पीएन हक्सर की सलाह पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक लंबा तार भेजकर कैलिफोर्निया से सतीश धवन को वापस बुलाया और उन्हें साराभाई की विरासत संभालने को कहा. वे राजी हो गए लेकिन उनकी तीन शर्तें थीं: पहली, वे आईआईएससी के निदेशक बने रहेंगे और दूसरी कि अंतरिक्ष अभियान का मुख्यालय अहमदाबाद से बेंगलुरु लाया जाए. तीसरी शर्त यह थी कि लौटने से पहले उन्हें अमेरिका में वह शोध कार्य पूरा करने दिया जाए जो एक साल में खत्म होना था. इंदिरा गांधी ने ये सभी शर्तें मान लीं. इस तरह सतीश धवन इसरो के नए मुखिया बन गए.
अपनी किताब ‘इसरो: अ पर्सनल हिस्ट्री’ में आर अर्वामुदन सतीश धवन के इसरो आने और नतीजतन संस्था में हुए बदलावों को याद करते हैं. वे लिखते हैं, ‘साराभाई की प्रबंधन शैली घर के किसी बड़े की तरह थी जो छोटे और आपस में खूब घुले-मिले परिवार को संभाल रहे थे. उनके समय में संस्था का ढांचा ऐसा था कि हर चीज से वे खुद ही निपटते थे. कोई औपचारिक प्रक्रियाएं नहीं थीं. एक साथ कई तकनीकी टीमें काम पर लगी होती थीं. कभी-कभी तो वे एक ही सिस्टम पर काम कर रही होती थीं. समन्वय नहीं था.’
यह ढीली-ढाली व्यवस्था तब तक ठीक थी जब तक इसरो का स्वरूप छोटा था और यह विकास की प्रक्रिया में था. लेकिन जैसे-जैसे यह बड़ा होता गया और इसके लक्ष्य और भी महत्वाकांक्षी होते गए, वैसे-वैसे बेहतर और व्यवस्थित प्रबंधन की जरूरत महसूस होने लगी. आर अर्वामुदन लिखते हैं, ‘इसलिए धवन की पहली चुनौती थी बिखरी टीमों को एक व्यवस्थित रूप देना और हर टीम के लिए एक लक्ष्य और सामूहिक जिम्मेदारी तय करना. यह काम उन्होंने अलग-अलग कार्यक्रमों के लिए अलग-अलग केंद्र बनाकर किया. यही नहीं, उन्होंने यह व्यवस्था भी की कि इसरो के दीर्घावधि लक्ष्यों की राष्ट्रीय स्तर पर समीक्षा हो जिसमें संस्थान के भीतर और बाहर के विशेषज्ञ शामिल हों.’
इसरो के वैज्ञानिक रहे अर्वामुदन इस कायाकल्प के साक्षी थे. वे लिखते हैं, ‘हमारे नए निदेशक एक प्रतिष्ठित और असाधारण बौद्धिक ईमानदारी वाले शख्स थे. उन्होंने खरी आलोचना को प्रोत्साहन दिया. उनमें काबिलियत को तुरंत पहचानने का गुण था. साराभाई के काम करने की शैली तब तक ठीक थी जब तक ढांचा ढीला-ढाला और विकास की प्रक्रिया में था. लेकिन अब हमें चीजों को अपनी जगह पर जमाने और परियोजनाओं को जमीन पर उतारने की जरूरत थी. व्यवस्थित नजरिये और अपने काम से काम रखने वाले धवन इस काम के लिए सटीक थे.’
सतीश धवन चाहते थे कि इसरो का सामाजिक जिम्मेदारियों पर भी जोर रहे. उन्होंने इस पर ध्यान देना शुरू किया कि मौसम के पूर्वानुमान, प्राकृतिक संसाधनों की मैपिंग और संचार के मोर्चे पर सेटेलाइट क्या भूमिका निभा सकते हैं. वे इसे लेकर भी काफी सतर्क थे कि इसरो ताकतवर राजनेताओं से दूरी बनाकर रखे. उसका मुख्यालय दिल्ली से और भी दूर ले जाने के उनके फैसले और राज्य सभा के टिकट जैसी व्यक्तिगत उपकार वाली कवायदों के प्रति उनकी अनिच्छा को इस संदर्भ में देखा जा सकता है.
आईआईएससी को वैज्ञानिक शोध के मामले में भारत का सर्वश्रेष्ठ संस्थान कहा जाता है. इसरो भी निर्विवादित रूप से हमारा सबसे सम्मानित सार्वजनिक उपक्रम है. सतीश धवन ने इन दोनों संस्थानों को आकार देने और उनकी प्रतिष्ठा में अहम भूमिका निभाई. इन दोनों संस्थानों को कुछ हद तक अलग-अलग तरह के नेतृत्व की जरूरत थी. सतीश धवन ने एक साथ दोनों की जिम्मेदारी सफलता से संभाली जो बताता है कि उनके पास नेतृत्व की कितनी असाधारण क्षमता थी. जैसा कि जाने-माने वैज्ञानिक पी बलराम ने 2002 में प्रतिष्ठित जर्नल ‘करंट साइंस’ में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा, ‘सतीश धवन के मार्गदर्शन में (भारतीय) अंतरिक्ष विज्ञान का एक रूमानी इतिहास रहा है. उन्होंने असफलताओं की जिम्मेदारी अपने सर ली और जब कामयाबियां आईं तो वे चुपचाप किनारे खड़े रहे. इसरो की कामयाबी आपसी साझेदारी, अनुशासन और सामूहिक प्रतिबद्धता पर निर्भर रही है और ऐसा संस्थान बनाने वाले सतीश धवन की योग्यता वास्तव में असाधारण थी, खासकर जब हम इस बात पर गौर करें कि इसरो के साथ वे एक ऐसा संस्थान भी बना रहे थे जहां व्यक्तिगत विशिष्टता और ज्ञान के प्रति सनक का खूब सम्मान होता था.’
इन पंक्तियों के लेखक का सतीश धवन से उनके आखिर के वर्षों में परिचय का सौभाग्य रहा. वे एक बढ़िया वैज्ञानिक और गर्मजोशी और करुणा से भरे इंसान थे जिन्होंने महान संस्थान बनाए. आईआईएससी में लंबे समय तक उनके साथ रहे अमूल्य रेड्डी ने उनके बारे में लिखा है, ‘अपने ज्यादातर समकालीनों के उलट वे जाति, भाषा, धर्म और प्रांत के खांचों से ऊपर उठकर सोचते थे.’ उन्होंने आगे यह भी जोड़ा है कि सतीश धवन में किसी तरह की ईर्ष्या भी नहीं दिखती थी. उधर, इसरो में सतीश धवन के साथ काम कर चुके यशपाल का कहना था कि लोगों के साथ धवन के बर्ताव में कभी भी ‘पक्षपात और कटुता नहीं दिखती थी.’ उनके साथ करीब से सबसे लंबे समय तक काम करने वाले भारतीय वैज्ञानिक आर नरसिम्हा ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हए आखिर में लिखा है, ‘यह व्यापक रूप से स्वीकारा जाता है कि वे वैज्ञानिक समुदाय का नैतिक और सामाजिक विवेक थे.’
सतीश धवन की बेटी ज्योत्सना धवन खुद एक बड़ी जैव विज्ञानी हैं. अपने पिता की गहरी सामाजिक चेतना के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘श्रीहरिकोटा में लॉन्च सेंटर बनाने के दौरान यनादि जनजाति के विस्थापन से वे काफी परेशान हुए थे. उन दिनों पूरे देश में विकास के नाम पर लोगों का भारी विस्थापन हो रहा था और उन्होंने कोशिश की कि इन लोगों को कुछ क्षतिपूर्ति मिले. विस्थापित लोगों की विपदा को हमारी सामूहिक चेतना तक पहुंचाने के लिए मेधा पाटकर के निस्वार्थ संघर्ष की वे सबसे ज्यादा तारीफ करते थे.’
सतीश धवन आधुनिक भारत में हुई महान हस्तियों में से एक थे. जो भूमिका जेआरडी टाटा ने उद्योग, कमला देवी चटोपाध्याय ने शिल्पकला और वर्गीज़ कुरियन ने को-ऑपरेटिव क्षेत्र में निभाई थी उसी तरह का काम उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में किया. विज्ञान, राजनीति, कारोबार, प्रशासन और सिविल सोसाइटी के मोर्चे पर उभरते नेतृत्वकर्ता सतीश धवन के जीवन से बहुत से सबक सीख सकते हैं. इनमें व्यक्तिगत जीवन और पेशेवर आचरण में पूरी ईमानदारी, प्रतिभा को पहचानने और उसे आगे बढ़ाने का गुण और समझदारी के साथ जिम्मेदारियों का बंटवारा शामिल है. हृदय की वह उदारता भी जो सफलता का श्रेय अपने से छोटों को देने का भाव जगाती है और साथ ही वह नैतिक साहस भी देती है कि नेतृत्वकर्ता असफलता की जिम्मेदारी आगे बढ़कर ले सके.
सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है
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