आज यानी 28 सितम्बर को शहीद भगत सिंह का जन्मदिन है। एक सवाल कौंधता है। भगत सिंह के विचारों में इतनी स्पष्टता कैसे आई? किताबों से? किताबों से उनका गहरा लगाव था। भगत सिंह के मित्रों में से एक शिव वर्मा ने लिखा है कि भगत सिंह हमेशा एक छोटा पुस्तकालय लिए चलते थे। भगत सिंह की माँ ने भी कहा है- भगत सिंह जब भी घर आता था, उसकी जेबें किताबों से ठुँसी रहती थीं।
राज्य दफा हो जाए!… राज्य की समूची अवधारणा का मूलोच्छेद कर दो, मुक्त चयन और आत्मिक बंधुता को ही किसी एकता की एकमात्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शर्तें होने की घोषणा करो, और तभी तुम एक ऐसी आज़ादी की शुरुआत करोगे जिसकी कोई सार्थकता होगी।’
‘मनुष्य ने समाज में प्रवेश इसलिए नहीं किया कि वह पहले से भी बदतर हो जाए, बल्कि इसलिए कि उसके अधिकार पहले से बेहतर ढंग से सुरक्षित हों। उसके प्राकृतिक अधिकार ही उसके सभी नागरिक अधिकारों की आधारशिला हैं।’
‘…सरकारों को मानवता सिखा दो। ये उनकी खूँखार सज़ाएँ ही हैं जो मानव जाति को भ्रष्ट करती हैं।’
‘….किसी ने इस सीधी-सरल बात पर ग़ौर नहीं किया कि मनुष्य अपने आपको किसी विरोध के लिए बिना इस विश्वास के एकजुट नहीं करते कि कोई न कोई ऐसी चीज़ है जिसका उन्हें विरोध करना है और न किसी भी संगठित समाज में व्यापक विरोध एक ऐसी चीज़ है जो गहरी छानबीन की दरकार रखती है।’
ये सारे उद्धरण मुझे याद आए जब मुझे फ़ोन आया, ‘क्या आप भगत सिंह पर बोलने आएँगे, सर?’ भूल गया फ़ोन करनेवाले का नाम क्या था। लेकिन यह शाहीन बाग़ के उस अस्थायी पुस्तकालय के संचालक नौजवानों में से एक का था, इतना याद है। जब पहुँचा तो एक बस स्टैंड के शेड के नीचे जगह घेर कर किताबें रखी देखीं। दो चार मोढ़े, दरी और कुछ युवक और युवती किताबें लिए बैठे, पन्ने पलटते हुए। अजब सा मंजर था। सामने शुभा मुद्गल के गाने की तैयारी चल रही थी। उस आलोड़न के बीच इस पुस्तकालय के क़रीब किताबों की वजह से खामोशी का एक जज़ीरा!
यह ठीक ही था कि किताबों के बीच भगत सिंह की या उन पर बात की जाए। लेकिन मैं किस भगत सिंह पर बात करने जा रहा था? एक छोटी सी जूझती हुई ज़िंदगी! बमुश्किल 23 साल का एक नौजवान जिसने अपनी मौत को न्योता दिया? उससे भागा नहीं, आँख में आँख मिलाकर उसे देखा और कहा, तुम मेरी ज़िंदगी को दूसरे मायने दोगी, स्वागत!
क्या मैं, एक अधेड़, एक नौजवान के बारे में बोलने जा रहा हूँ? या अपने पुरखे पर? लेकिन जैसा मैंने कहा, भगत सिंह की चर्चा के लिए किताबों की सोहबत से बेहतर और क्या होता?
मदन मोहन जुनेजा ने भगत सिंह की जीवनी में ठीक ही लिखा, ‘आप जो पढ़ते हैं, वही सोचते हैं, जो सोचते हैं, वही करते हैं और जो बार-बार करते हैं, वही आप होते हैं।’ भगत सिंह पर यह बात पूरी तरह लागू होती है।
तो जो उद्धरण इस टिप्पणी की शुरुआत में दिए गए हैं, वे भगत सिंह के लेखों से नहीं, उनकी जेल की नोटबुक से लिए गए हैं। हालाँकि ये उस पाठक भगत सिंह के चुने हुए उद्धरण हैं जो जानता था कि जो वह नोट कर रहा है उन किताबों से जिन्हें वह जेल में पढ़े जा रहा था, उनका कोई इस्तेमाल वह अपनी ज़िंदगी के लिए नहीं कर पाएगा क्योंकि वह तो अब चंद दिनों की थी। फिर भी क्यों वह एक के बाद एक किताबें पढ़े जा रहा था? क्यों वह उनसे नोट्स ले रहा था? शायद वह अपने दिमाग़ की बनावट या उसका खाका खींच रहा था। क्या उसे अंदाज़ था कि यह नोटबुक कभी पढ़ी जाएगी? क्या अपने बाद आनेवालों के लिए वह ये टीपें ले रहा था?
यह एक पढ़नेवाला दिमाग़ था। एक ही तरह की किताबें नहीं। वह ज़िंदगी को समझकर उसे बदलना चाहता था। इसके बारे में ख़ुद भगत सिंह ने लिखा है,
‘इस अवधि तक (1925) मैं एक रोमांटिक क्रांतिकारी था। अब तक हमारा काम अनुकरण करने का था। अब ज़िम्मेदारी संभालने का वक़्त आ गया था। कुछ अनिवार्य कारणों से पार्टी का (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन) वजूद ही नामुमकिन लगने लगा था। उत्साही कॉमरेड, नहीं, नेता, हमारी खिल्ली उड़ाने लगे थे। एक समय तो मुझे भी लगने लगा था कि शायद मैं भी अपने कार्यक्रम की उपयोगिता पर भरोसा न कर पाऊँ। वह मेरे क्रांतिकारी जीवन में एक मोड़ था। मेरे दिमाग़ के गलियारों में ‘अध्ययन’ की पुकार गूँजने लगी। पढ़ो! अपने विरोधियों के तर्कों का सामना करने की योग्यता के लिए। पढ़ो! अपने रास्ते के पक्ष में तर्कों से ख़ुद को लैस करने के लिए। मैंने पढ़ना शुरू किया।’
भगत सिंह के मित्रों में से एक, शिव वर्मा ने लिखा है,भगत सिंह हमेशा एक छोटा पुस्तकालय लिए चलते थे। मुझे एक भी मौक़ा याद नहीं जब वे कुछ किताबें न लिए हों। दो चीज़ें हमेशा उनेक साथ रहती थीं- पिस्तौल और पुस्तक। मैंने उन्हें चीथड़ों में देखा है लेकिन हमेशा उनकी जेब में कुछ किताबें रहती थीं।
भगत सिंह को भगत सिंह बनाने में लाहौर की द्वारका दास लाइब्रेरी का ख़ासा योगदान है। इसे लाला लाजपत राय ने स्थापित किया था। इसके पुस्कालयाध्यक्ष थे राजा राम शास्त्री जिन्हें प्यार से ‘मस्त राम’ नाम से पुकारा जाता था। उन्होंने लिखा है, “एक दिन मुझे एक किताब मिली। शायद उसका शीर्षक था, “अराजकतावाद और अन्य निबंध’। इसका एक अध्याय था : हिंसा का मनोविज्ञान।” इसमें फ्रेंच अराजकतावादी वैलियों का ऐतिहासिक वाक्य था, ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है। इस किताब को पढ़ने के बाद…भगत सिंह ने मुझे गले लगा लिया।’
‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत’
जो उस फ्रेंच अराजकतावादी ने किया था वही भगत सिंह ने किया जब उन्होंने असेम्बली में बम फेंका और उसी वाक्य को उन्होंने दुहराया, ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है।’ उन्होंने भी वही मौत चुनी जो उस क्रांतिकारी को मिली थी। किताबें इस तरह ख़ुद को चरितार्थ करती हैं।
विनायक दामोदर सावरकर की किताब ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ कहीं से उन्होंने हासिल की थी और उससे वह बहुत प्रभावित थे। उनकी आत्मकथा से भी। लेकिन दोनों की विचारधाराएँ बिलकुल जुदा होने वाली थीं। उन्होंने मार्क्सवाद, श्रमिक प्रश्न, सोवियत संघ में प्रगति, चीनी जापानी संबंध, मेरठ षड्यंत्र केस, भारतीय पूँजीपति की भूमिका, आदि पर खूब पढ़ा।
भगत सिंह सिर्फ़ काम की किताबें नहीं पढ़ा करते थे। वह उपन्यासों के खासे शौक़ीन थे। चार्ल्स डिकेंस, अम्प्टन सिंक्लेयर, हाल केन, विक्टर ह्यूगो, गोर्की, ऑस्कर वाइल्ड, लियोनार्ड एंड्रू के उपन्यास उन्हें पसंद थे।
भगत सिंह का आत्मविश्वास इस अध्ययन से आया था। इसीलिए उन लाला लाजपत राय की आलोचना वे कर पाए, जिनके द्वारा स्थापित पुस्तकालय से उन्होंने वे तर्क हासिल किए थे जिनके सहारे वे लाला लाजपत राय की आलोचना करनेवाले थे। यह भी याद कर लें कि इस तीखे मतभेद के बावजूद जब लालाजी पर लाठी चली और उनकी मौत हो गई तो भगत सिंह और उनके साथियों ने इसे अपने ऊपर हमला माना। एक राष्ट्रीय नेता पर अंग्रेज़ी पुलिस हाथ उठा सकती है, यह अपमान बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था। इसका प्रतिशोध लेने के कारण ही भगत सिंह को मौत की सज़ा मिली। उनकी इस वैचारिक स्पष्टता का कारण उनका अध्ययन ही तो था।
पढ़ने के बाद भगत सिंह के विचारों में सफ़ाई आई:
‘मेरे पिछले विश्वासों और मान्यताओं में ज़बर्दस्त तबदीली आई। मेरे पूर्ववर्तियों में जो प्रबल था, यानी हिंसक तरीक़ों का रोमांस, उसकी जगह अब गंभीर विचारों ने ले ली। अब और रहस्यवाद नहीं, कोई अंधविश्वास नहीं। जब एकदम भयंकर रूप से अनिवार्य हो तभी हिंसा का प्रयोग लेकिन सारे जन आन्दोलनों के लिए लाजिमी नीति अहिंसा ही हो सकती है।’
भगत सिंह की माँ विद्यावती देवी ने एक बार कहा,
‘भगत सिंह जब भी घर आता था, उसकी जेबें किताबों से ठुँसी रहती थीं। मैं उसे हलके से जेबों को ख़राब कर देने के लिए डाँटा करती थी।’
भगत सिंह के कॉलेज के प्रिंसिपल छबीलदास दीवान थे। उन्होंने भगत सिंह की अध्ययनशीलता की तारीफ़ करते हुए बताया कि “उनकी प्रिय पुस्तक थी; ‘क्राई फॉर जस्टिस’। इस किताब को उन्होंने लाल पेंसिल से रंग डाला था। इससे मालूम होता है कि नाइंसाफी के ख़िलाफ़ लड़ने का उनका जज्बा कितना गहरा था।”
भगत सिंह को भगत सिंह बनाने में लाहौर की द्वारका दास लाइब्रेरी का ख़ासा योगदान है। इसे लाला लाजपत राय ने स्थापित किया था। इसके पुस्कालयाध्यक्ष थे राजा राम शास्त्री जिन्हें प्यार से ‘मस्त राम’ नाम से पुकारा जाता था। उन्होंने लिखा है, “एक दिन मुझे एक किताब मिली। शायद उसका शीर्षक था, “अराजकतावाद और अन्य निबंध’। इसका एक अध्याय था : हिंसा का मनोविज्ञान।” इसमें फ्रेंच अराजकतावादी वैलियों का ऐतिहासिक वाक्य था, ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है। इस किताब को पढ़ने के बाद…भगत सिंह ने मुझे गले लगा लिया।’
‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत’
जो उस फ्रेंच अराजकतावादी ने किया था वही भगत सिंह ने किया जब उन्होंने असेम्बली में बम फेंका और उसी वाक्य को उन्होंने दुहराया, ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है।’ उन्होंने भी वही मौत चुनी जो उस क्रांतिकारी को मिली थी। किताबें इस तरह ख़ुद को चरितार्थ करती हैं।
विनायक दामोदर सावरकर की किताब ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ कहीं से उन्होंने हासिल की थी और उससे वह बहुत प्रभावित थे। उनकी आत्मकथा से भी। लेकिन दोनों की विचारधाराएँ बिलकुल जुदा होने वाली थीं। उन्होंने मार्क्सवाद, श्रमिक प्रश्न, सोवियत संघ में प्रगति, चीनी जापानी संबंध, मेरठ षड्यंत्र केस, भारतीय पूँजीपति की भूमिका, आदि पर खूब पढ़ा।
भगत सिंह सिर्फ़ काम की किताबें नहीं पढ़ा करते थे। वह उपन्यासों के खासे शौक़ीन थे। चार्ल्स डिकेंस, अम्प्टन सिंक्लेयर, हाल केन, विक्टर ह्यूगो, गोर्की, ऑस्कर वाइल्ड, लियोनार्ड एंड्रू के उपन्यास उन्हें पसंद थे।
भगत सिंह का आत्मविश्वास इस अध्ययन से आया था। इसीलिए उन लाला लाजपत राय की आलोचना वे कर पाए, जिनके द्वारा स्थापित पुस्तकालय से उन्होंने वे तर्क हासिल किए थे जिनके सहारे वे लाला लाजपत राय की आलोचना करनेवाले थे। यह भी याद कर लें कि इस तीखे मतभेद के बावजूद जब लालाजी पर लाठी चली और उनकी मौत हो गई तो भगत सिंह और उनके साथियों ने इसे अपने ऊपर हमला माना। एक राष्ट्रीय नेता पर अंग्रेज़ी पुलिस हाथ उठा सकती है, यह अपमान बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था। इसका प्रतिशोध लेने के कारण ही भगत सिंह को मौत की सज़ा मिली। उनकी इस वैचारिक स्पष्टता का कारण उनका अध्ययन ही तो था।
पढ़ने के बाद भगत सिंह के विचारों में सफ़ाई आई:
‘मेरे पिछले विश्वासों और मान्यताओं में ज़बर्दस्त तबदीली आई। मेरे पूर्ववर्तियों में जो प्रबल था, यानी हिंसक तरीक़ों का रोमांस, उसकी जगह अब गंभीर विचारों ने ले ली। अब और रहस्यवाद नहीं, कोई अंधविश्वास नहीं। जब एकदम भयंकर रूप से अनिवार्य हो तभी हिंसा का प्रयोग लेकिन सारे जन आन्दोलनों के लिए लाजिमी नीति अहिंसा ही हो सकती है।’
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। सौजः सत्यहिन्दीः लिंक नीचे दी गई है-