एक सभ्य समाज की पहचान जस्टिस – मार्कंडेय काटजू

मैंने आदेश दिया कि क्योंकि यह सार्वजनिक सड़क थी, निजी नहीं, इसलिए संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत मुसलमानों को अंतिम संस्कार का जुलूस निकालने का अधिकार है, और अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी उस अधिकार में हस्तक्षेप न करे।

सभ्य समाज की एक पहचान यह है कि उसमें अल्पसंख्यक गौरव और सम्मान के साथ रह सकें। इस संबंध में मैं एक घटना सुनाना  चाहता हूं। मैं 1991-2004 में इलाहाबाद हाई कोर्ट का न्यायाधीश था, जो उत्तर प्रदेश का उच्च न्यायालय है। यूपी में मुसलिम अल्पसंख्यक हैं, जो राज्य की कुल आबादी का लगभग 19% है। हालाँकि, यूपी के एक विशेष गाँव में कुछ हिंदू दलित परिवारों को छोड़कर लगभग सभी लोग मुसलमान थे।

दलित उत्पीड़न

उस गाँव में एक घटना घटी, जिसमें कुछ मुसलिम युवकों ने एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया। जब हाईकोर्ट में मेरे सामने मामला आया तो मैंने मुसलिम युवकों को कठोर सज़ा दी। 

मैंने अपने फ़ैसले में कहा कि क्योंकि मुसलमान गाँव में बहुसंख्यक थे, इसलिए यह उनका कर्तव्य था कि वहाँ के हिंदू सम्मान और गौरव से अपना जीवन बिताएँ।

लेकिन इसके बजाय उनमें से कुछ ने मिलकर हिंदू लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया। इसलिए वे किसी उदारता के लायक नहीं थे।

सभ्य समाज की पहचान

इसी फ़ैसले में मैंने आगे यह भी कहा कि अगर वही गाँव हिन्दू बहुसंख्यक होता, और हिंदू युवाओं ने एक मुसलिम लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया होता, तब उन हिंदुओं को भी मुझसे कठोर दंड मिला होता। मैंने अपना निर्णय वही कहकर समाप्त किया जो मैंने इस लेख की शुरुआत में कहा है :एक सभ्य समाज की पहचान यह है कि उसमें अल्पसंख्यक गौरव और सम्मान के साथ जी सकें।

अल्पसंख्यकों का हक़

जब मैं इलाहाबाद उच्च न्यायालय का न्यायाधीश था, तो कुछ मुसलमानों की याचिकाएँ मेरे सामने आईं, जिसमें उन्होंने शिकायत की थी कि अधिकारियों द्वारा उन्हें अपनी ज़मीन पर मसजिद बनाने की अनुमति नहीं दी जा रही थी, जिसके कारण उन्हें सार्वजनिक सड़क के बगल में अपनी शुक्रवार की प्रार्थना करनी पड़ रही थी। यह तब था जब केंद्र सरकार और यूपी राज्य सरकार दोनों बीजेपी की थीं। मैंने याचिकाओं को यह कहते हुए स्वीकार कर लिया कि संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत मुसलमानों को अपनी ज़मीन पर मसजिद बनाने का अधिकार था।

जब मैं मद्रास उच्च न्यायालय (2004-2005) का मुख्य न्यायाधीश था, तमिलनाडु के एक विशेष शहर के कुछ मुसलमानों (तमिलनाडु में केवल 5% आबादी मुसलमानों की है) की एक याचिका आई, जिसमें शिकायत की गई थी कि एक निश्चित सार्वजनिक सड़क पर उन्हें अंतिम संस्कार का जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी जा रही है, जिस सड़क के बगल में एक हिंदू मंदिर था। मैंने आदेश दिया कि क्योंकि यह सार्वजनिक सड़क थी, निजी नहीं, उन्हें संविधान के अनुच्छेद 25 के मद्देनजर ऐसा करने का अधिकार था, और अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी उस अधिकार में हस्तक्षेप न करे। (मेरा निर्णय मोहम्मद गनी बनाम सुपरिंटेंडेंट ऑफ़ पुलिस देखें)।

जब मैं सुप्रीम कोर्ट का जज था, तब एक मामले में मैं एक बेंच का हिस्सा बना, यह 2008 ओडिशा राज्य के कंधमाल ज़िले में कुछ अतिवादी हिंदू तत्वों द्वारा ईसाइयों पर किए गए हमलों के विषय में था। परिणामस्वरूप, ईसाइयों के 1400 घर और 80 गिरजाघर  नष्ट हो गए या क्षतिग्रस्त हो गए, और 18,000 से अधिक ईसाइयों को जंगल में भागना पड़ा। मैंने ओडिशा राज्य के वकील से राज्य के मुख्यमंत्री को यह बताने के लिए कहा कि यदि उनकी सरकार अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं कर सकती है तो बेहतर है वह पद छोड़ दें। हम अल्पसंख्यकों पर अत्याचार को बर्दाश्त नहीं करेंगे।

यह केवल मेरा अपना दृष्टिकोण था, वह नहीं जो अदालत में मेरे सहयोगियों द्वारा हमेशा अपनाया गया हो ।

जस्टिस मार्कंडेय काटजू भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दीः लिंक नीचे दी गई है-

https://www.satyahindi.com/opinion/minorities-live-with-dignity-in-civilizes-society-113825.html

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