वे ही चेहरे! बार बार! जगह-जगह! क्यों? क्या लेना-देना है इनका उन सबके साथ जो ये सब कुछ छोड़-छाड़कर उन सबके करीब जा खड़े होते हैं? एक सीधा सा जवाब है। ये वे लोग हैं जो नाइंसाफी को पहचानते हैं। जो यह जानते हैं कि दुनिया में कहीं भी, कभी भी अन्याय हो रहा हो, भले ही वह जिनके साथ वह हो रहा है, उनका उनसे कोई रिश्ता नहीं, न खून का, न जाति, न नस्ल का, न राष्ट्र का और न वे नाइंसाफ़ी में शामिल हैं। लेकिन वे जानते हैं कि अगर वे सब न बोले, अगर उन्होंने नाइंसाफ़ी की पहचान न की तो वह जारी रहेगी।
“जो हाथरस जा रहे हैं, उनके चेहरे देखिए। ये वही हैं जो नागरिकता के नए कानून (सीएए) का विरोध कर रहे थे।” यह सावधान करने के अंदाज में बताया जा रहा है। मानो पेशेवर अपराधियों से सावधान किया जा रहा हो। कहा गया कि इन सबके पोस्टर हमने चौराहों पर लगवाए थे। ये वही हैं जो हाथरस में उस दलित लड़की के परिवार के साथ हमदर्दी जताने पहुँच रहे हैं। पूछा जा रहा है कि बाहरी लोग आखिर क्यों उस दलित परिवार के साथ सहानुभूति जताना चाहते हैं? ज़रूर इसके पीछे उनका कोई इरादा होगा?
ठीक ही कहा जा रहा है। वे ही लोग जो सीएए का विरोध कर रहे थे, हाथरस में भी एक दलित लड़की के अपमान, उसके साथ हिंसा और हत्या का विरोध करने और उसके परिवार के इंसाफ़ की लड़ाई में उनके साथ खड़े होने के लिए पहुँच रहे हैं। ये वही हैं जो अख़लाक़ की हत्या या तबरेज़ अंसारी के क़त्ल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे थे।
वही जो 2018 में अनुसूचित जाति और जनजाति पर उत्पीड़न के ख़िलाफ़ क़ानून को शिथिल किए जाने के विरुद्ध सड़क पर थे। वही लोग भूमि अधिग्रहण अधिनियम के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर रहे थे और श्रम कानूनों को शिथिल कर मजदूरों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल का हथियार बनाने के विरुद्ध खड़े हो गए थे।
आदिवासियों के हक़ के लिए लड़े
ये वे ही लोग थे, जो आदिवासियों के जंगल की ज़मीन और उसकी खनिज संपदा पर उसके पहले हक़ के लिए लड़ रहे थे और तमिलनाडु में समुद्रतट के किनारे मछुआरों को विस्थापित करके विदेशी मुद्रा के लिए इसे पर्यटन स्थल किए जाने के ख़िलाफ़ थे। वही लोग जो नियमगिरि में आदिवासियों से उनके पवित्र पहाड़ छीन लिए जाने का विरोध रहे थे।
वे ही लोग मणिपुरी या उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ हिंसा का विरोध करते हैं। वे ही कश्मीरियों के अपमान का भी विरोध करते हैं। वे ही हैं जो 1992 में बाबरी मसजिद के ध्वंस का विरोध और नेल्ली में मुसलमानों के संहार का विरोध कर रहे थे।
वे ही लोग जो 2002 में हिंसा के शिकार मुसलमानों के साथ खड़े होने गुजरात पहुँचे और फिर 2013 में उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फ़रनगर में दिखलाई पड़े।
गौर से उनके चेहरे देखिए। 2020 की तसवीरों को 1984 की उनकी तसवीरों से मिलाइए। उम्र का असर उन पर दिखता है। लेकिन वे ही चेहरे हैं, उन्हीं लोगों के जो पटना, जमशेदपुर, जबलपुर और दिल्ली में सिखों के ख़िलाफ़ हिंसा के दौरान जान हथेली पर लेकर उनके साथ खड़े थे। वे ही लोग जो पंजाब में आतंकवाद के खात्मे के नाम पर सिख नौजवानों की हत्या और उन्हें लापता कर दिए जाने को आज भी भूलने नहीं दे रहे हैं।
वे ही जो रूप कँवर को जलाकर सती बना दिए जाने के पाखंड का विरोध कर रहे थे। वे जो भँवरी देवी के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के ख़िलाफ़ उसकी लड़ाई में आज तक उसके साथ खड़े हैं हालाँकि अदालतों ने भँवरी देवी को निराश किया है। वे लोग जो सामूहिक बलात्कार और हिंसा की शिकार बिलकीस बानो के साथ बरसों बरस उसके न्याय के संघर्ष में साथ रहे!
वे ही लोग जो भागलपुर में पुलिस द्वारा कैदियों की आँखें फोड़ दिए जाने की मुख़ालिफत कर रहे थे और फिर बंगाल में नंदीग्राम और सिंगूर में सरकारी हिंसा के प्रतिकार में बंगाल के किसानों के साथ जा खड़े हुए थे।
उन्हीं में से कुछ दिल्ली विश्वविद्यालय में श्रमिकों के साथ ठेकेदारों की बेईमानी पर प्रशासन से लड़ रहे थे। वे ही जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में निर्माण कार्य में लगे मजदूरों के हक़ के लिए लड़ रहे थे।
रोहित वेमुला के लिए लड़े
अपने नौजवान छात्रों में, मैं वे ही चेहरे देखता हूँ जो खैरलांजी में दलित परिवार के साथ खड़े हुए और फिर रोहित वेमुला के साथ भी। वे ही पायल तड़वी के लिए भी आवाज़ बुलंद कर रहे थे और तुर्की में बुद्धिजीवियों पर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ भारत में बोलते हैं। जो सलमान तासीर के क़त्ल के ख़िलाफ़ या मलाला युसुफजई के पक्ष में बोलते हैं।
वे ही हैं जो बांग्लादेश में ब्लॉगरों पर हमले का विरोध करते रहे हैं। वे ही जो इस्राइल के फिलीस्तीन पर अत्याचार के ख़िलाफ़ हैं और जो इराक पर अमरीकी हमले के विरुद्ध थे। जो अमरीका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के साथ अपनी आवाज़ मिलाते हैं।
अन्याय बर्दाश्त न करने के कारण विरोध
वे ही चेहरे! बार बार! जगह-जगह! क्यों? क्या लेना-देना है इनका उन सबके साथ जो ये सब कुछ छोड़-छाड़कर उन सबके करीब जा खड़े होते हैं? एक सीधा सा जवाब है। ये वे लोग हैं जो नाइंसाफी को पहचानते हैं। जो यह जानते हैं कि दुनिया में कहीं भी, कभी भी अन्याय हो रहा हो, भले ही वह जिनके साथ वह हो रहा है, उनका उनसे कोई रिश्ता नहीं, न खून का, न जाति, न नस्ल का, न राष्ट्र का और न वे नाइंसाफ़ी में शामिल हैं। लेकिन वे जानते हैं कि अगर वे सब न बोले, उन्होंने अगर नाइंसाफ़ी की पहचान न की तो वह जारी रहेगी। अगर वह जारी रही तो वह उनकी आत्मा को भी वैसे ही कुचल देगी जैसे उनकी देहों को कुचल रही है जिसके ख़िलाफ़ वह हैं।
इतिहास में हमेशा ऐसे लोग हुए हैं जो अन्याय को पहचान सके हैं। जो हिंसा के स्रोत तक पहुँच पाते हैं। ऐसे लोगों को आप चाहे तो न्याय का समुदाय या इंसाफ़ की बिरादरी कह सकते हैं। या हमदर्दी की बिरादरी!
इनके चेहरों में क्या आपका चेहरा है? क्या आप पूरी दुनिया से लगाव महसूस करते हैं? क्या आपको पूरी दुनिया, उसके लोग अपने लगते हैं? क्या आप उनके प्रति जिम्मेदारी महसूस करते हैं? जिम्मेदारी का मतलब है कार्रवाई!
मुक्तिबोध की भर्त्सना उनलोगों के लिए है जो अपनी जिम्मेदारी को पहचानते नहीं:
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर;
बहुत-बहुत ज्यादा लिया, दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम !!
लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो आदमी की पुकार सुनकर दौड़ पड़ते हैं। मुक्तिबोध के मुताबिक़ वे ही आदमी कहलाने लायक हैं और वे हर जगह पाए जाते हैं :
समस्वर, समताल,
सहानुभूति की सनसनी कोमल !!
हम कहाँ नहीं हैं,
सभी जगह मन।
निजता हमारी!
भीतर-भीतर बिजली के जीवित
तारों के जाले,
ज्वलंत तारों की भीषण गुत्थी,
बाहर-बाहर धूल-सी भूरी
जमीन की पपड़ी।
अग्नि को लेकर, मस्तक हिमवत् ;
उग्र प्रभंजन लेकर, उर यह
बिलकुल निश्चल।
भीषण शक्ति को धारण करके
आत्मा की पोशाक दीन व मैली।
विचित्र रूपों को धारण करके
चलता है जीवन, लक्ष्यों के पथ पर।
इन सब विचित्र रूपों के पोस्टर लगा दीजिए, इनके घर कोड़ डालिए और इन्हें कैद कर लीजिए। इनकी कतार फिर भी बढ़ती जाती है। जिस दिन वह कम होने लगी, इंसानियत की लौ झुकने लगेगी।
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सौजः सत्यहिन्दीः लिंक नीचे दी गी है-