गायत्री यादव
महिला किसान जिस ज़मीन में हल जोतकर अनाज पैदा कर रही है, खून- पसीना बहा रही है, उसपर उसका अधिकार होगा या नहीं इसका फैसला भी पुरुषों के हाथों में होता है। इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे के अनुसार भारत विश्व के उन 15 देशों के से एक है, जहां परंपरागत नियम महिलाओं को पुरुषों के बराबर भू स्वामित्व अधिकार प्राप्त करने से रोकते हैं। हालांकि यह विरोधाभाष ही है कि ये वही देश हैं, जो संयुक्त राष्ट्र की साल 2015 सस्टेनेबल डिवेलपमेंट गोल्स में सम्मिलित हुए हैं, जिसका उद्देश्य महिलाओं को भू अधिकार देकर भूस्वामित्व में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाना है।
साल 2019 में तापसी और भूमि पेडनेकर स्टारर एक फ़िल्म ‘सांड की आंख’ रीलीज़ हुई थी, जो मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जोहरी गांव की दो महिलाओं की ‘शूटिंग’ की कहानी पर आधारित थी। हालांकि यह फ़िल्म ग्रामीण इलाकों में महिला किसान के जीवन के कई पन्नों से परदा हटाती है। यहां औरतें सुबह उठकर चूल्हा-चौका करती हैं, जानवरों को देखती हैं और फिर खेत जाती हैं। वहां खेती के काम में दिनभर लगी रहती हैं लेकिन इसके बावजूद भी परिवार में उन्हें पुरुषों के समान दर्जा नहीं मिलता,न ही उनकी मेहनत का कोई मेहनताना होता है और ज़मीन पर उनका कोई मलिकाना हक़ भी नहीं होता। यह आज के समाज का सच है।
वर्ल्ड इकनोमिक फोरम में पेश किए गए एक दस्तावेज़ के अनुसार औरतें दुनियाभर की कुल ज़मीन के हिस्से में 20 फ़ीसद से भी कम की हिस्सेदार हैं। थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की सीईओ मॉनीक विला कहती हैं कि दुनिया की खाद्य आपूर्ति पूरी करने में 400 मिलियन से भी ज़्यादा महिलाएं खेती और उत्पादन कार्यों में संलग्न हैं। ये आंकड़े भयावह है क्योंकि उत्पादन के कामों में अपने आप को खपाने के बावजूद भी महिला किसानों के भूमि और संपत्ति अधिकारों को सीधे तौर पर खारिज़ कर दिया जाता है। असल में, इन सब के पीछे रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक सोच है। दुनिया के आधे से भी अधिक देशों में पितृसत्तात्मक परंपरा और प्राचीन सामाजिक अवधारणाओं ने महिलाओं के भू अधिकारों को तब तक खारिज़ किया है, जब तक उन्हें कानून द्वारा स्थापित नहीं किया गया।
बांग्लादेश में जहां कानून स्त्री और पुरुष दोनों को ही ज़मीन खरीदने और भू स्वामित्व को समान अधिकार प्राप्त हैं। वहीं असलियत में धार्मिक कानून महिलाओं के भू स्वामित्व अधिकार के सीधे खिलाफ़ हैं। इस संबंध में भारत की स्थिति भी लगभग ऐसी ही है। इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे के अनुसार भारत विश्व के उन 15 देशों के से एक है, जहां परंपरागत नियम महिलाओं को पुरुषों के बराबर भू स्वामित्व अधिकार प्राप्त करने से रोकते हैं। हालांकि यह विरोधाभाष ही है कि ये वही देश हैं, जो संयुक्त राष्ट्र की साल 2015 सस्टेनेबल डिवेलपमेंट गोल्स में सम्मिलित हुए हैं, जिसका उद्देश्य महिलाओं को भू अधिकार देकर भूस्वामित्व में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाना है।
महिला किसान और ज़मीन पर उनका मालिकाना हक
भारत के कृषि क्षेत्र में महिलाएं श्रम का लगभग 42 फ़ीसद हिस्सा प्रदान करती हैं, जो कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका दर्शाता है। इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर किए गए सर्वे में पता चला कि कृषि भूमि का लगभग 83 फ़ीसद हिस्सा पुरुषों के स्वामित्व में है। जबकि महिलाओं के पास खेती की ज़मीन का मालिकाना हक मात्र 2 फ़ीसद है। भारतीय महिलाओं के भू स्वामित्व अधिकार के मामले में अनगिनत अवरोध हैं। वे उत्तराधिकार के विषय में कानूनी रूप से जागरूक नहीं होती, परिवार से भावनात्मक जुड़ाव होने के कारण अक्सर वे ज़मीन पर अपना अधिकार मांगकर शत्रुता नहीं बढ़ाना चाहती। इस बारे में अपनी राय रखते हुए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की पब्लिक इनफार्मेशन लिटिगेशन यानी पीआईएल वकील श्रुति पांडेय का कहना है कि महिला भू-अधिकार पर बातचीत भारत में कानूनी विमर्श के बजाय व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉ ) और परंपरागत नियमों की मध्यस्थता से संचालित है। भारतीय महिला का संपत्ति अधिकार इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस धर्म का पालन करती है, वह शादीशुदा है या अविवाहित, वह देश के किस हिस्से से आती है, वह आदिवासी है या अप्रवासी। यानी महिला किसान जिस ज़मीन में हल जोतकर अनाज पैदा कर रही है, खून- पसीना बहा रही है, उसपर उसका अधिकार होगा या नहीं इसका फैसला भी पुरुषों के हाथों में होता है।
मैं उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र से आती हूं। मेरे गांव में लगभग हर परिवार आजीविका के लिए खेती पर आश्रित है। आम भारतीय कृषि क्षेत्र की तरह इस इलाके की भी अपनी समस्याएं हैं और परिणामस्वरूप खेती लोगों की घरेलू खाद्य ज़रूरतों को ही पूरा कर पाती है। परिवार के पुरुष पलायन कर शहरों में चले गए हैं। खेती का पूरा कामकाज औरतें करती हैं। बीज बोने से लेकर रात को पानी भरने तक समूची व्यवस्था महिलाओं द्वारा ही देखी जाती है। फिर भी एकाध अपवाद छोड़कर पूरी ज़मीन परिवार के पुरुषों के नाम है। मेरे अपने घर की ज़मीन मेरे दादा के नाम है। यह व्यवस्था इसी तरह चलती आई है। संविधान या कानून बदलने के बावजूद भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।
ग्रामीण औरतों को भूमि अधिकारों और संपत्ति के समान बंटवारे के बारे में खास जानकारी नहीं है। असल में, इस तरह की वैचारिकी तय करने की एक पूरी प्रक्रिया है। जन्म से ही लड़की को यह बताया जाता है कि वह पराया धन है, उसे ससुराल जाना है, यानी यहां किसी भी चीज़ को वह अपना ‘क्लेम’ नहीं कर सकती। शुरू से यही परंपरा चलते आई है। लेकिन ऐतिहासिक रूप से औरतें ही पहली कृषक बनीं क्योंकि लंबे समय तक पुरूष ‘आखेटक संस्कृति’ का भाग बना रहा और शिकार करता रहा। आर्थिक और सामाजिक विकास के दौर आए लेकिन संस्कृति के साथ पितृसत्ता पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रही। धर्म समाज में हस्तक्षेप करते हुए स्त्री का नियंत्रण पुरुष के हाथ में देता रहा और स्त्री जीवन का उद्देश्य पुरुष की सेवा करना और देखभाल करना बताता रहा यानी घर का स्वामी हमेशा से पुरूष ही रहा है। सभी संपत्तियों पर उसका ही अधिकार रहा है। वह व्यवस्था आज भी है, इसलिए औरतें उत्पादन तो कर रही हैं लेकिन उत्पाद पर उनका कोई अधिकार नहीं हैं।
भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, यहां अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान महत्वपूर्ण है। मौजूदा स्थिति की बात करें तो कोरोना महामारी के दौर में जहां अन्य क्षेत्रों में कमी आ रही थी, वहीं इसकी जीडीपी में लगभग 3.4 फ़ीसद की बढ़त हुई है। हालांकि सरकारों की अनदेखी और किसान विरोधी नीतियों के कारण हमारे देश में अक्सर ही किसान आत्महत्या की खबरें आती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के हालिया डाटा के मुताबिक 2019 में 10,281 किसानों ने आत्महत्या की है। इन आंकड़े में पिछले साल के मुक़ाबले 6 फ़ीसद की बढ़ोतरी हुई है। इन आंकड़ों में बताया गया है कि आत्महत्या करने वाले किसानों में 5563 पुरूष और 394 महिलाएं थी।
इस संबंध में पत्रकार पी साईनाथ कहते हैं कि ये आंकड़े सही नहीं है। दस हज़ार से भी अधिक महिलाएं इन आंकड़ों से बाहर हो जाती हैं क्योंकि वे कभी भी किसान नहीं मानी जाती। उनके नाम पर ज़मीन नहीं होती। वे कहते हैं कि दिए गए आंकड़ें पूरी तरह से भ्रामक हैं क्योंकि महिलाओं को किसान नहीं समझा जाता। उनके पास भूमि का स्वामित्व नहीं है, वे पुरुष किसान की विधवा के रूप में ही ज़मीन की अधिकारी हो पाती हैं। पी. साईनाथ आगे कहते हैं कि खेती में महिलाएं लगभग 60 फ़ीसद योगदान देती हैं, वे ही प्रमुख किसान के रूप में कार्यशील होती हैं लेकिन स्वामित्व न होने के कारण उनके आधिकारिक आंकड़ें मौजूद नहीं हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के बारे में वे कहते हैं कि वे ‘महिला किसानों के लिए स्वर्ग’ हैं क्योंकि उनमें महिला किसानों की राज्य केंद्रित श्रेणी में शून्य आत्महत्या की घटनाएं हर साल दिखला दी जाती हैं। वे बताते हैं कि भूस्वामित्व वाले परिवारों से आने वाली महिला किसानों को अक्सर ‘गृहणी’ श्रेणी में रख दिया जाता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में आने वाला विभेद असल में सामाजिक समस्या है। समाज में औरत को ऐसे ही देखा जाता है। वह किसान नहीं बल्कि गृहणी है। उसकी भूमिका बिना किसी अधिकार की मांग किए सबकी ज़रूरतें पूरी करना है। यह समाज का विरोधाभास ही है, जो उसे त्याग की देवी के रूप में देखता है, मनुष्य नहीं मानता।
भारत कृषि प्रधान देश है। यह आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। भारत की लगभग 58 फ़ीसद आबादी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, जबकि ग्रामीण इलाके की कुल जनसंख्या का लगभग 70 फ़ीसद भाग खेती करके अपना जीवन चलाता है। कृषि अर्थव्यवस्था में खाने के लिए ज़रूरी अनाज, फल और सब्जियों का उत्पादन, वानिकी (फॉरेस्ट्री), मछली पालन इत्यादि किया जाता है। इस सभी क्षेत्रों में महिलाएं पुरुषों के बराबर और कई बार उनसे अधिक योगदान देती हैं लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्तर पर उन्हें पुरुषों के समान दर्जा नहीं मिलता। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए आर्थिक स्वतंत्रता एक बड़ा मसला है। शहरों में धीरे-धीरे जागरूकता आ रही है लेकिन गांवों में महिलाओं को एक लंबी लड़ाई लड़नी है।
गायत्री यादव हिंदू कॉलेज से इतिहास विषय में ऑनर्स की पढ़ाई कर रही हैं। सौज- एफआईआई “