परवीन शाकिर ने अपने अंदर की लड़की को मरने नहीं दिया

अब्दुल्लाह ज़कारिया नदीम

ऐसा नहीं कि परवीन ने सिर्फ़ इश्क़ और रूमान को ही अपनी नज़्मों का मौज़ू’ बनाया है, अपनी ज़मीन और उससे जुड़े हुए मसाइल को भी क़लम-बंद किया है। सिंध की बेटी का सवाल ‘‘फ़र्ज़ंद-ए-ज़मीन’’ ‘‘शहज़ादी का अलमिया’’ और ‘‘बहार अभी बहार पर है’’ जैसी नज़्में भी लिखी हैं जो सियासी और मुआ’शर्ती क़िस्म की हैं

परवीन शाकिर अगर आज हयात होतीं तो अड़सठ (68) साल की होतीं, लेकिन न जाने ख़ुदा की क्या हिक्मत या मस्लिहत है कि वो हमसे उन लोगों को बहुत जल्दी छीन लेता है जो हमें बहुत महबूब होते हैं। ऐसे शाइरों, अदीबों और फ़नकारों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है जो बहुत जल्दी हमें छोड़ गए। परवीन शाकिर भी बद-क़िस्मती से इसी फ़ेहरिस्त का हिस्सा हैं। चौबीस (24) साल की उम्र में शाइरी के मैदान में क़दम रखा और बयालिस (42) की उम्र में दुनिया सूनी कर गईं लेकिन दो दहाइयों पर फैले हुए इस दौरानिए में वो उर्दू शाइरी के कैनवस पर ऐसे रंग बिखेरने में कामयाब हो गईं जो ज़माने की गर्द में चाहे धुँधला जाएं लेकिन मिट नहीं सकते हैं। ऐसा नहीं कि वो पहली औरत हैं जिन्हों ने शाइरी के मैदान में तब्अ-आज़माई की है, उर्दू शाइरी की तारीख़ के हर दौर में शायरात मौजूद रही हैं, हाँ परवीन की ख़ूबी ये है कि वो उस हरावल दस्ते की सरदार हैं जिसने औरत के जज़बात को औरत की ज़बान में कहने का कामयाब तजृबा किया।

उनकी आमद की ख़बर “ख़ुशबू’’ ने दी, एक नया रंग और नया आहंग जिससे उर्दू शाइरी अभी तक ना-आश्ना थी।

कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उसने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की

वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
है यही बात तो अच्छी मिरे हरजाई की

कमाल-ए-ज़ब्त को मैं भी तो आज़माऊँगी
ख़ुद अपने हाथ से उसकी दुल्हन सजाऊँगी

हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
दो-घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं

ये अशआ’र न सिर्फ ताज़ा हवा का एक झोंका अपने साथ लाए बल्कि सदियों से तारी उस जुमूद को भी थोड़ने की कोशिश की जहाँ एक जैसे जज़्बात की तर्जुमानी शाइरों और शायरात के अश्आ’र में मिलती थी, और तमीज़ करना मुश्किल हो जाता था। ग़ज़ल के लुग़्वी मअ’नी गो कि औरत से बात करने के हैं लेकिन ये परवीन का कमाल है कि उन्हों उसको नई वुसअ’तों से रू-शनास कराया, बल्कि उसकी नई ता’रीफ़ भी सामने ला दी। ये औरत अपने जज़्बात बे-हिजाब तो करती है लेकिन इसमें कहीं आ’मियाना-पन नहीं है। जिन्सी जज़्बे का इज़हार तो है लेकिन एक लतीफ़ पैराए में, एक धीमी धीमी सुलगती आग है, जो उसके पूरे वजूद को घेरे हुए है।

एक्सटेसी नाम की ये नज़्म देखिए:

सब्ज़ मद्धम रौशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक
सर्द कमरे मचलती गर्म साँसों की महक
बाज़ुओं के सख़्त हलक़े में कोई नाज़ुक बदन
सिलवटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ
गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा
नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलाएम उंगलियों की छेड़-छाड़
सुर्ख़ होंटों पर शरारत के किसी लम्हे का अक्स
रेशमी बाँहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक
शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात
दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी इक सदा
काँपते होंटों पे थी अल्लाह से सिर्फ इक दुआ
काश ये लम्हे ठहर जाएँ ठहर जाएँ ज़रा

ग़ज़ल उर्दू शाइ’री की सबसे पामाल सिन्फ़ है। कोई नया अछूता ख़्याल पेश करना वैसे भी बहुत मुश्किल है। ऊपर से रही-सही कसर पुराने शायरों ने पूरी कर दी है, कि बा’द में आने वालों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। फ़ैज़ साहब जैसे बड़े शायर तक को इसका एहसास था। फ़ैज़ हूँ या इक़बाल अपनी शाहकार नज़्मों से ज़्यादा जाने-जाते हैं। परवीन ने भी नज़्में लिखी हैं, बहुत सारी लिखी हैं और ख़ूब लिखी हैं। एक बड़ा दिल-चस्प क़िस्सा है। ख़ुश्बू का सर-वरक़ मशहूर आर्टिस्ट सादिक़ैन ने बनाया था, फ़ैज़ साहब को दिखाया तो उन्होंने कहा इतनी सारी नज़्में तो मैंने पूरी ज़िंदगी में लिखी हैं, सादिक़ैन ने जवाब दिया कि परवीन ज़ियादा लिखती हैं, लेकिन अच्छा लिखती हैं। ये नज़्में अपनी हैअत और फ़ार्म के हिसाब से नस्री नज़्मों के ज़ुमरे में आती हैं। नस्री नज़्मों में उमूमन वज़्न नहीं होता है लेकिन परवीन के यहाँ वज़्न भी है, ग़िनाइयत भी है नुदरत-ए-ख़्याल भी है और अल्फ़ाज़ की जादूगरी भी है। लज़्ज़त-ए-ख़ुद-सुपुर्दगी और इश्क़ की सरशारी में डूबी ये नज़्में एक नौ-ख़ेज़ दोशीज़ा के जज़्बात की तर्जुमान हैं। ‘‘ख़ुश्बू’’ जो उनका पहला मजमूआ’ है और ‘‘इंकार’’ जो आख़िरी है, हमें यही रंग ग़ालिब दिखाई देता है। परवीन ने अपने अंदर की लड़की को मरने नहीं दिया।

ख़ुमार-ए-लज़्ज़त से एक पल को / जो आँखें चौंके / तो नीम-ख़्वाबीदा सर-ख़ुशी में / ग़ुरूर-ए-ताराजगी ने सोचा / ख़ुदा-ए-बरतर के क़हर से / आदम-ओ- हव्वा / बहिश्त से जब भी निकले होंगे / सुपुर्दगी की उसी इंतिहा पर होंगे / उसी तरह हम बदन और हम-ख़्वाब-ओ-हम-तमन्ना

या फिर बिरह की मारी हुई लड़की के ये एहसासात मुलाहिज़ा हों:

हवा कुछ उसकी शब का भी अहवाल सुना
क्या वो अपनी छत पर आज अकेला था
या कोई मेरे जैसी साथी थी और उसने
चाँद को देख के उसका चेहरा देखा था

और इस नज़्म की ख़ूबसूरती देखिए:

इतने अच्छे मौसम में
रूठना नहीं अच्छा
हार जीत की बातें
कल पे हम उठा रक्खें
आज दोस्ती कर लें

ख़ुशबू में ये नज़्में क़दर-ए-मुख़्तसर हैं, बाद के मजमूओं’ में लंबी नज़्में भी हैं।

ऐसा नहीं कि परवीन ने सिर्फ़ इश्क़ और रूमान को ही अपनी नज़्मों का मौज़ू’ बनाया है, अपनी ज़मीन और उससे जुड़े हुए मसाइल को भी क़लम-बंद किया है। सिंध की बेटी का सवाल ‘‘फ़र्ज़ंद-ए-ज़मीन’’ ‘‘शहज़ादी का अलमिया’’ और ‘‘बहार अभी बहार पर है’’ जैसी नज़्में भी लिखी हैं जो सियासी और मुआ’शर्ती क़िस्म की हैं, लेकिन असर-आफ़रीनी और तासीर में ये रुमानवी नज़्मों से बहुत कम-तर हैं।

परवीन के यहाँ ख़ुशबू, नींद और ख़्वाब के इस्तिआ’रे बहुत कसरत से मिलते हैं:

ख़ुश्बू बता रही है कि वो रास्ते में है
मौज-ए-हवा के हाथ में उसका सुराग़ है

नींद पर जाल से पड़ने लगे आवाज़ों के
और फिर होने लगी तेरी सदा आहिस्ता

इस क़बील के अश्आ’र हर वरक़ पर बिखरे हुए हैं। हमारा समाज आज भी मर्द की हुक्मरानी को तस्लीम करता है। किसी औरत की कामयाबी आसानी से हज़्म नहीं होती है। परवीन की अज़दवाजी ज़िंदगी का इख़्तिताम भी तलाक़ पर हुआ जिसका कर्ब उनकी शाइ’री में झलकता है:

मैं बर्ग बर्ग उसको नुमू बख़्शती रही
वो शाख़ शाख़ मेरी जड़ें काटता रहा

उन्होंने अपने ग़म को आफ़ाक़ी बना दिया। ये हर औरत का कर्ब हो सकता है। अगर आज उनकी शाइरी ज़िंदा है तो वो इसी वज्ह से कि उनके यहाँ जज़्बों की सदाक़त है और वो तानीसी उंसुर मौजूद है, जो इससे पहले ग़ायब था:

मैं उसकी दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से मांगता है

लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ

सौज- रेख्ताः Abdullah Zakariya Nadeem लिंक नीचे दी गई है-

https://blog.rekhta.org/parveen-shakir-khushbuon-aur-khwabon-ki-shayara/

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *