26 नवम्बर, हमारा संविधान दिवस है। विडम्बना देखिए देश के सारे किसान व मजदूर संगठन इसी संविधान दिवस के दिन जिंदा रहने और अपनी आवाज़ उठा पाने के न्यूनतम संवैधानिक अधिकार की रक्षा के लिए सड़क पर आ रहे हैं। किसान दिल्ली कूच कर रहे हैं तो मज़दूर आम हड़ताल।
26 नवम्बर, हमारा संविधान दिवस है। इसी दिन 1949 में संविधान सभा द्वारा हमारा संविधान adopt किया गया था, दो महीने बाद 26 जनवरी 1950 से वह लागू हो गया था।
विडम्बना देखिए, कि देश के सारे किसान व मजदूर संगठन इसी संविधान दिवस के दिन जिंदा रहने और अपनी आवाज उठा पाने के न्यूनतम संवैधानिक अधिकार की रक्षा के लिए सड़क पर आ रहे हैं, किसान दिल्ली कूच कर रहे हैं तो मजदूर आम हड़ताल।
वैसे तो 71 साल की लंबी यात्रा हमारे संविधान ने तय की है। पर पिछले एक वर्ष में संविधान को जितना याद किया गया है, उसके Preamble का जितना पाठ हुआ है, वह आज़ाद भारत के इतिहास में अभूतपूर्व है। ऐसे दौर में जब हमारी जनता और राष्ट्र का जीवन चौतरफा संकट से घिरा हुआ है, संविधान सबसे बड़े सम्बल के बतौर सामने आया है। उससे प्रेरणा लेकर, उसे अपना हथियार और युद्धघोष बनाकर जनता अपने अधिकारों पर, लोकतंत्र पर और स्वयं संविधान पर हो रहे हमले के खिलाफ लड़ रही है।
यह बेहद स्वाभाविक है, क्योंकि संविधान महज एक दस्तावेज नहीं वरन हमारी आज़ादी की लड़ाई के सर्वोच्च मूल्यों का, सपनों और आदर्शों का, नियति के साथ भारतीय जनगण के साक्षात्कार का प्रतीक है। यह एक राष्ट्र के बतौर हमारी सामूहिक उम्मीदों, आकांक्षाओं का मूर्त रूप है।
गुलामी और बर्बरता के अंधेरे से निकलकर आज़ादी और आधुनिकता के एक नए युग में प्रवेश का वह शंखनाद था ।
उस पीढी के हमारे पुरखों ने सम्भवतः अपने भोलेपन में यह उम्मीद की हो कि अब हम इस दस्तावेज की रोशनी में बेखटके ऐतिहासिक प्रगति की अपनी यात्रा पर आगे बढ़ते जाएंगे। एक दौर तक सचमुच ऐसा हुआ भी। भारत के खण्ड खण्ड बिखर जाने और लोकतंत्र के प्रयोग के विफल हो जाने की पाश्चात्य बुद्धिजीवियों की भविष्यवाणियों के बावजूद, विभाजन-दंगों और हिंसा की भयानक विभीषिका से जूझते हुए भारत ने एकताबद्ध आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में विकास के पथ पर मजबूती से कदम बढ़ाए और 7 दशक की लंबी यात्रा तय की।
बेशक इस दौरान आपातकाल का 19 महीने का एक दौर आया जब हमारे लोकतंत्र की इस यात्रा को derail करने की कोशिश हुई लेकिन यह भारत की जनता की गहरी लोकतांत्रिक आकांक्षा का ही सबूत है कि लोकतंत्र बहाल हुआ। यह माना गया कि आपातकाल एक अपवाद (aberration ) था और फिर कभी इसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी। पर वास्तविक जीवन में, मानवता की प्रगति की यात्रा को एक नहीं अनेक उतार-चढावों, रास्ते के अनगिनत barriers, स्पीड ब्रेकर्स, road-blocks, से गुजर कर ही आगे बढ़ना है।
भारत अपनी लोकतांत्रिक यात्रा की राह में ऐसे ही एक संकटापन्न दौर में आज फंसा हुआ है ।
हमारे राष्ट्र निर्माताओं में से कुछ ने इस खतरे का पूर्वानुमान किया था और इसके प्रति आगाह किया था, लेकिन इस खतरे को टालने और इसके समूल विनाश के लिए जो किया जाना चाहिए था, वह नहीं किया जा सका।
70 साल के राष्ट्रनिर्माण के उदारवादी दक्षिणपंथी मॉडल के उस रास्ते के अवसरवादी पाप ( opportunist sins ), उसकी कमजोरियां, चूकें और short-term gains के लिए बुनियादी मूल्यों के साथ समझौते हमें आज धुर दक्षिणपंथी फासीवाद के इस मुकाम पर ले आये हैं।
डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा मे अपने अंतिम, सुप्रसिद्ध भाषण में यह चेतावनी दी थी कि भारत अगर सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में लोकतंत्र कायम न कर सका तो, यहां राजनैतिक लोकतंत्र भी जिंदा नहीं रह पाएगा। उनके ये शब्द prophetic साबित हुए। बुनियादी रूप से यही वह परिघटना है, जिसे आज हम अपने सामने घटित होते देख रहे हैं।
बस इसमें एक twist है।
राजनैतिक लोकतंत्र के लिए यह चुनौती उनकी ओर से नहीं आयी है जिन्हें सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र से वंचित किया गया, वरन यह वित्तीय पूंजी और कारपोरेट पूंजी के उन राजनैतिक प्रतिनिधियों की ओर से आ रही है जो अपने असाध्य व्यवस्थागत संकट (Systemic crisis ) का पूरा बोझ जनता के ऊपर डाल देना चाहते हैं, जो आर्थिक लोकतंत्र से वंचितों को और अधिक वंचित बना देने पर आमादा हैं और जिन्हें यह आशंका है कि राजनैतिक लोकतंत्र जिंदा रहा, जनता को संकीर्ण आधारों पर बांटकर उन्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा न किया गया तो एक दिन यह वंचित, मेहनतकश उनके लिए चुनौती बन जाएंगे।
लोकतंत्र के लिए यह चुनौती उनकी ओर से आई है, जो इतिहास का चक्का पीछे की ओर घुमाना चाहते हैं, जो पिछली एक सदी से हिन्दूराष्ट्र के मिशन के लिये अभियान चला रहे हैं, जो भारत को वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न आधुनिक विकसित राष्ट्र बनाने की बजाय एक दकियानूसी, सामाजिक-आर्थिक अन्याय व पिछड़ेपन पर आधारित समाज मे तब्दील कर उसे बर्बरता की अंधी गुफा में ले जाना चाहते हैं।
वे एक ऐसा राष्ट्र बनाने चाहते हैं जहां धार्मिक अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक बन कर ही रह सकते हैं, जहां मेहनतकश किसान-मजदूर अपने जीवन की बेहतरी के सभी अधिकारों से वंचित होकर केवल पूँजी की सेवा के लिए ही स्वतंत्र होंगे, जहां नागरिक, बुद्धिजीवी, रचनाकार-कलाकार, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता शासन द्वारा थोपे गए सोच के सांचे और दायरे से बाहर चिन्तन और अभिव्यक्ति के लिए आज़ाद नहीं होंगे ।
इसीलिए स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व सामाजिक-आर्थिक न्याय, बहुलतावाद, व्यक्ति की आज़ादी, नागरिकों के मौलिक अधिकारों जैसे गहरे लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित हमारे संविधान को इस धारा ने मन से कभी स्वीकार नहीं किया, अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए बस tactical adjustment किया।
डॉ. आंबेडकर ने देशवासियों को आगाह किया था, ” हिन्दू राष्ट्र अगर कभी अस्तित्व में आया, तो वह भारत के लिए सबसे बड़ी आपदा साबित होगा। ……इसका लोकतंत्र के साथ कोई मेल नहीं है। इसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।”
वित्तीय-कॉरपोरेट पूंजी और हिंदुत्व का यही खतरनाक गठजोड़ आज मोदी परिघटना के रूप में हमारे सामने है।
देश एक तरह की संवैधानिक तानाशाही की ज़द में आता जा रहा है, जहाँ संविधान तो है, पर अमल उसके खिलाफ है। वह letter में तो है, पर spirit नदारद है। कानून के राज की जगह शासक पार्टी के dictates का राज चल रहा है। और यह सब किया जा रहा है, संवैधानिक संस्थाओं को पालतू और खोखला बनाकर, उनके शीर्ष पदों पर अपने लोगों को बैठाकर। वे संवैधानिक प्रावधानों और कानून की मनमानी व्याख्याऔर चुनिंदा (arbitrary and selective ) ढंग से इस्तेमाल कर रहे हैं। ये compromised संस्थाएं और समाज में fascist mobilisation, एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों एक दूसरे की मदद कर रहे है । असहमत लोगों को क्रूरतापूर्वक grand conspiracy theories गढ़कर जेलों में डाला और सड़ाया जा रहा है और सत्ताधारियों के लिए राजनैतिक रूप से उपयोगी जहरीली उकसावेबाजी, लिंच mobs को छूट और संरक्षण दिया जा रहा है।
राष्ट्रद्रोह के कानून से लेकर UAPA तक–निरंकुश काले कानूनों का जखीरा तो कांग्रेस और मध्यमार्गी दलों की सरकारों से विरासत में मिला ही था, बस अब मनमाने ढंग से political score settle करने के लिए उनका इस्तेमाल हो रहा है और जरूरत के मुताबिक विभाजनकारी राजनीति को और धार देने के लिए नागरिकता संशोधन और लव जिहाद-धर्मांतरण जैसे नए कानून बनाये जा रहे हैं, जो पूरी तरह संविधान की बहुलतावादी और व्यक्ति की आज़ादी -जीवन, प्रेम और धर्म की आज़ादी-की मूल भावना के विरुद्ध हैं।
चुनाव हो तो रहे हैं, पर उनकी sanctity खत्म होती जा रही है। लेवल-प्लेइंग फील्ड नहीं रही। electoral bonds के dubious mechanism द्वारा तथा भारी कारपोरेट समर्थन के कारण सत्ताधारी पार्टी के पास अकूत फ़ंड है, मतदान और समूची चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए। ऊपर से मुख्यधारा मीडिया पूरी तरह सत्ता का भोंपू बन गया है।
चुने हुए जन-प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त, लोभ और ब्लैकमेल द्वारा पार्टियों को तोड़ने, राज्यपालों का इस्तेमाल कर गैर लोकतांत्रिक ढंग से अपनी सरकार बनाने की परिघटना – यह सब कुछ अभूतपूर्व ऊंचाई पर पहुंच गया है। इस भयानक पतन को चाणक्य-कौशल बता कर महिमामण्डित किया जा रहा है।
अभी कश्मीर के स्थानीय निकाय चुनावों में तो अजीब नज़ारा है, विपक्ष के लोगों के प्रचार पर सुरक्षा के नाम पर रोक है, पर भाजपा के उम्मीदवार सुरक्षा कर्मियों के साथ प्रचार कर रहे हैं!
कुल मिलाकर लोकतंत्र में चुनाव की जो मूल भावना है कि लोकप्रिय जन-आकांक्षा के अनुरूप सच्चे जनप्रतिनिधि चुने जाँय और सरकार का गठन हो, उसका अवसान होता जा रहा है ।
लोकतंत्र का आवरण बना रहे, क्या चुनाव बस उस औपचारिकता को बनाये रखने का उपादान बन कर रह जाएंगे?
संविधान दिवस की पूर्व संध्या पर आज यह गम्भीर चिंता का विषय है।
हमारा गणतंत्र आज मरणांतक संकट ( terminal crisis ) का सामना कर रहा है। क्या हमारा संविधान अपने वर्तमान स्वरूप में बना रहेगा? क्या हमारे गणतंत्र का औपचारिक रूप भी खत्म हो जाएगा और भारत घोषित तौर पर एक हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा, खुलेआम एक फासीवादी निज़ाम यहां कायम हो जाएगा?
इसका एक वास्तविक खतरा आज मंडरा रहा है। दरअसल नव-उदारवाद का संकट आज जिस अंधी गली में फंस गया है, उसमें वित्तीय पूंजी के सक्रिय समर्थन से फासीवादी प्रवृत्तियों का उभार एक ग्लोबल ट्रेंड है, और लंबे समय तक चलने वाली प्रवृत्ति है। भारत मे वित्तीय-कारपोरेट पूंजी के साथ हिंदुत्व के कॉकटेल से इसका विशष्ट भारतीय स्वरूप निर्मित हुआ है, यह एक व्यापक सामाजिक आधार पर खड़ा है और अधिक खतरनाक तथा दीर्घकालिक परिघटना बन गया है। आसार तो यह हैं कि किसी आगामी चुनाव में सत्ताच्युत होने के बावजूद भी, लंबे समय तक एक ताकतवर वैचारिक-राजनैतिक धारा के बतौर इसका खतरा बरकरार रहेगा।
अंततः ऐतिहासिक नियति हमें किस ओर ले जाएगी, यह भविष्य के गर्भ में है, इसका जवाब निर्भर करेगा vigilant citizenary की सचेत कोशिशों पर, हमारी मेहनतकश जनता, युवाओं के अपने जीवन और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए उभरते जनांदोलनों, सच्ची जनपक्षधर जनवादी- वामपंथी-कम्युनिस्ट-क्रांतिकारी ताकतों के प्रतिरोध-संघर्षों पर, majoritarian शासन के खिलाफ विपक्ष की सभी राजनैतिक ताकतों की संयुक्त मोर्चेबन्दी पर ।
यह तय है कि इस पूरी लड़ाई में हमारा संविधान, उसमें समाहित हमारी आज़ादी की लड़ाई के महान मूल्य लड़ाकू जनता का सबसे बड़ा सम्बल, उसका सबसे बड़ा हथियार बने रहेंगे, संविधान के आदर्शों में गूंजते हमारे महान शहीदों के सपने हमारी सबसे बड़ी प्रेरणा बने रहेंगे!
इन अंधेरे की ताकतों से लड़कर, उन्हें शिकस्त देकर हमारा गणतंत्र और सुर्खरू होकर निकलेगा !
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज- जनपथः लिंक नीचे दी गई है-
https://hindi.newsclick.in/Our-Republic-and-Constitution-Day-challenges