1 दिसंबर को किसानों और सरकार के बीच बातचीत हुई। जिसका कोई नतीजा नहीं निकला। अब अगले दौर की बातचीत 3 दिसंबर को होगी। किसान इस बात पर अड़े हैं कि सरकार तीनों क़ानूनों को वापस ले। मुझे भय है कि आंदोलनकारी किसानों की ओर से हठी होना केवल हिंसा को ही जन्म देगा, इसलिये मेरा मानना है कि 3 दिसंबर को किसान खुले दिमाग़ से सरकार के प्रस्ताव पर विचार करें और सरकार से सहमति बनाने का प्रयास करें।
मुझे भय है कि आंदोलनकारी किसानों की ओर से कठोर स्वभाव और हठी होना केवल हिंसा को ही जन्म देगा, जैसा कि जनवरी 1905 में सेंट पीटर्सबर्ग में ख़ूनी रविवार को हुआ था, या अक्टूबर 1795 में पेरिस में वेंडीमाइरे में, जहाँ नेपोलियन की तोपों से ‘व्हिफ़ ऑफ़ ग्रेपशॉट‘ के द्वारा एक बड़ी भीड़ को तितर-बितर कर दिया गयाI इसलिये मेरा मानना है कि 3 दिसंबर को किसान खुले दिमाग़ से सरकार के प्रस्ताव पर विचार करें।
हरियाणा पुलिस द्वारा कई बाधाओं और रोकने के बावजूद, भारतीय संसद द्वारा हाल ही में पारित किए गए तीन किसान क़ानून के ख़िलाफ़ ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ किसानों ने पंजाब से दिल्ली की ओर कूच किया। कुछ अन्य राज्यों के किसान भी आंदोलन में शामिल हो गए हैं।
1 दिसंबर को किसानों और सरकार के बीच बातचीत हुई। जिसका कोई नतीजा नहीं निकला। अब अगले दौर की बातचीत 3 दिसंबर को होगी। किसान इस बात पर अड़े हैं कि सरकार तीनों क़ानूनों को वापस ले।
यह सच है कि भारतीय किसानों की कुछ वास्तविक शिकायतें हैं, उनमें से प्रमुख यह है कि उन्हें अपने उत्पादों के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक मूल्य नहीं मिलते हैं। उन्हें यह भी आशंका है कि नए क़ानून उनके हितों के लिए हानिकारक हो सकते हैं, और उन्हें कुछ कॉरपोरेटों की दया पर जीवित रहने की आशंका है।
फिर भी मैं सम्मान के साथ प्रस्तुत करता हूँ कि अगर उन्होंने आगे भी आंदोलन जारी रखा तो आंदोलन उनके लिए हित से ज़्यादा अहित ही साबित होगा। आंदोलन द्वारा अब तक उन्होंने अपनी बात रखी है, और अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया।
आंदोलनकारी किसानों को एक बात समझनी चाहिए: प्रशासन का एक सिद्धांत है कि सरकार को कभी भी दबाव के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए, क्योंकि अगर वह करती है, तो इस से सरकार को कमज़ोर समझा जाएगा, और तब और माँगें, दबाव बढ़ाए जाएँगे। इसलिए अगर किसानों को लगता है कि इस आंदोलन से वे सरकार को घुटने टिकवा देंगे और उन्हें पूरी तरह से आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर देंगे, तो वह उनकी भूल हैI
केंद्रीय कृषि मंत्री के माध्यम से सरकार ने सभी मुद्दों पर किसानों के साथ बातचीत की है, और अब उनके लिए यह प्रस्ताव स्वीकार करने का समय आ गया हैI हर संघर्ष में एक आगे बढ़ने का वक़्त होता है और एक बातचीत करने का या पीछे हटने का
इसमें कोई संदेह नहीं है कि पहले की वार्ता विफल रही और मंगलवार की बातचीत भी बेनतीजा रही लेकिन कोई और प्रयास करने से कोई नुक़सान नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच 1950-51 की कोरियाई युद्ध के बाद वार्ता कई बार विफल रही, लेकिन अंततः एक सफल समझौता हुआ। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और उत्तरी वियतनाम की युद्ध के दौरान कई बार असफल वार्ता हुईं, लेकिन अंततोगत्वा जनवरी 1973 में एक समझौता हुआ I यहाँ भी ऐसा हो सकता है।
मुझे भय है कि आंदोलनकारी किसानों की ओर से कठोर स्वभाव और हठी होना केवल हिंसा को ही जन्म देगा, जैसा कि जनवरी 1905 में सेंट पीटर्सबर्ग में ख़ूनी रविवार को हुआ था, या अक्टूबर 1795 में पेरिस में वेंडीमाइरे में, जहाँ नेपोलियन की तोपों से ‘व्हिफ़ ऑफ़ ग्रेपशॉट’ के द्वारा एक बड़ी भीड़ को तितर-बितर कर दिया गयाI इसलिये मेरा मानना है कि 3 दिसंबर को किसान खुले दिमाग़ से सरकार के प्रस्ताव पर विचार करें और सरकार से सहमति बनाने का प्रयास करें।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सौज-सत्यहिन्दीः लिंक नीचे दी गई है-
https://www.satyahindi.com/opinion/farmers-protest-talks-failure-will-impact-farmers-115087.html