खुशबू शर्मा
जब मैंने पहली बार नताशा की गिरफ्तारी के बाद उनके पिता महावीर नरवाल से फेसबुक के ज़रिये बात की तो उनका पहला वाक्य यह था-“ख़ुशबू, आप उसी यूनिवर्सिटी में पढ़ती हैं न जहां मेरी बेटी नताशा पढ़ती हैं?” इस वाक्य में गर्व था ही साथ ही एक अपनापन भी। उसी दौरान नताशा और देवांगना के ऊपर मीडिया में कई लेख छप रहे थे। यह दोनों महिलाएं जो हर अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने से नहीं कतराई, उन्हें जेल की सलाखें कहां डराने वाली थी।
जब पहली बार नताशा नरवाल के पिता महावीर नरवाल को अपनी बेटी के बारे में बोलते सुना तब उनकी बेटी गैरकानूनी गतिविधियों रोकथाम कानून (यूएपीए) समेत भारतीय दंड संहिता के कई संगीन मामलों के तेहत जेल में कैद थी। जब-जब यह पिता अपनी बेटी का नाम लेते थे, उनके चेहरे पर आने वाले गर्व को आसानी से पढ़ा जा सकता था। मेरे जीवन का शायद यह पहला ऐसा वाकया था जब कोई पिता इतने आत्मविश्वास के साथ अपनी बेटी की गैरकानूनी गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहा है। वह पिता अपनी बेटी के इस पुरुषवादी और सांप्रदायिक समाज और सरकार के विरुद्ध अपने अधिकारों के लिए खड़े होने की इस लड़ाई में उसके साथ खड़ा है। अपनी बेटी के प्रति उनके विश्वास और उनकी आंखों से साफ़ झलकती निडरता ने मेरे भीतर नताशा और उनके परिवार को गहराई से जानने की जिज्ञासा पैदा की।
नताशा नरवाल जो कि मेरे ही विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली एक होनहर छात्रा हैं। उन्हें इसी साल के मई महीने में दिल्ली पुलिस ने फरवरी में हुए दिल्ली दंगों का कथित साजिशकर्ता बताकर गिरफ्तार कर लिया था। यह जगज़ाहिर है कि नताशा और उनकी साथी देवांगना पिंजरा तोड़ नामक संगठन से लंबे अरसे से जुड़ी हैं जो खासकर दिल्ली के उच्च-शिक्षण संस्थानों में छात्राओं के साथ लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता के खिलाफ मुखरता से आंदोलन चलाता रहा है। पिंजरा तोड़ और नताशा खुद भीनारीवादी विचारधारा से इत्तेफ़ाक रखती हैं। जब पिछले साल अक्टूबर में भारत सरकार ने विवादित नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को पास किया गया और उसके विरोध में देश भर की महिलाओं ने सड़कों पर आकर प्रदर्शन किया तो नताशा और उनके साथी कैसे इससे अलग रहती। नताशा शाहीन बाग़ सहित दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में सीएए के खिलाफ चल रहे आंदोलनों में अन्य आंदोलनरत महिलाओं के साथ शामिल हुई। पितृसत्ता और सांप्रदायिकता के खिलाफ़, औरतों के इंक़लाब की आवाज़ उठाने वाली नताशा आज दिल्ली के तिहाड़ जेल में पिछले सात महीने से बंद हैं।
जब मैंने पहली बार नताशा की गिरफ्तारी के बाद उनके पिता महावीर नरवाल से फेसबुक के ज़रिये बात की तो उनका पहला वाक्य यह था-“ख़ुशबू, आप उसी यूनिवर्सिटी में पढ़ती हैं न जहां मेरी बेटी नताशा पढ़ती हैं?” इस वाक्य में गर्व था ही साथ ही एक अपनापन भी। उसी दौरान नताशा और देवांगना के ऊपर मीडिया में कई लेख छप रहे थे। यह दोनों महिलाएं जो हर अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने से नहीं कतराई, उन्हें जेल की सलाखें कहां डराने वाली थी। वे जेल के भीतर रहते हुए भी लगातार जेल प्रशासन और न्यायालय के ज़रिये तिहाड़ के भीतर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठाती रहीं। इन दोनों महिलाओं के संघर्ष की दास्तान सुनने के बाद बार मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि यह समाज जो कदम कदम पर औरतों को पैरों तले रौंदने को तैयार खड़ा रहता है, उसमें इतनी जाबांज़, जिंदादिल और खुदमुख्तार महिलाएं इतनी हिम्मत कहां ले ला रही हैं।
तुरंत ही सिमोन दी बोउवर का वह मशहूर कथन याद आया- “महिलाएं पैदा नहीं होती, बनाई जाती हैं।” मैं जानना चाहती थी कि नताशा, ‘नताशा’ कैसे बनीं? उनके भीतर इतनी हिम्मत और ताक़त के साथ शोषितों के हकों की लड़ाई लड़ने का जज़्बा कहां से आ रहा था? इस पितृसत्तात्मक समाज, जो पैदा होने से लेकर मरने तक एक महिला के आत्मविश्वास को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ता, उसी समाज में पली-बढ़ी नताशा आज किसी से नहीं डरती। मैंने तुरंत उनके पिता से उनके बारे में जानने की इच्छा ज़ाहिर की। वे तुरंत तैयार हो गए। यह लेख महावीर नरवाल के साथ हुई मेरी बातचीत के ज़रिये नताशा की कहानी दुनिया के सामने लाने का एक प्रयास है। यह कहानी है नताशा नरवाल के बहादुर और जिंदादिल ‘नताशा’ बनने की।
जब मैंने नताशा के पिता से उनके परिवार के बारे में और नताशा के सामाजिक-आर्थिक परिवेश के बारे में ज़िक्र करने का आग्रह किया, तो उनके चेहरे पर एक उत्सुकता का भाव था। वह समय में पीछे चले जा रहे थे। हरियाणा के हिसार ज़िले में पैदा हुई नताशा नरवाल का परिवार उनके दादा-दादी के समय से ही अंधविश्वास और धर्मांधता का विरोधी रहा है। नताशा की दादी, उनकी नानी और खासकर उनकी मां ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं होने के बावजूद महिलाओं के साथ सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से होने वाले भेदभाव को लेकर सजग और संवेदनशील थी। शायद नताशा का नारीवाद के प्रति झुकाव का कुछ अंश उनकी परवरिश से ही आया होगा। उनके परिवार में जात-पात, धर्म और लैंगिक आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को बढ़ावा नहीं दिया जाता। यही वजह है कि नताशा और उनके भाई आकाश दोनों में ही छोटी-सी उम्र से ही जातीय, धार्मिक और लैंगिक अत्याचार के प्रति संजीदगी पैदा हो गई।
अपने पुराने दिनों को याद करते हुए महावीर नरवाल आगे बताते हैं कि किस तरह से धरने-प्रदर्शन, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाना और सही के साथ खड़ा होने उनकी अपनी ज़िंदगी का भी एक अहम हिस्सा रहा है। वे खुद न सिर्फ इंदिरा गांधी के द्वारा लागू किए गए आपातकाल के विरोध में हुए आंदोलनों का हिस्सा रहे बल्कि उस दौरान जेल भी गए। जब नताशा छोटी थी तो अपने पिता के साथ उनके दोस्तों की राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को लेकर होने वाली चर्चाओं और बातचीत में गहरी रुचि रखती थी। पिता का जेल जाना, आंदोलनों में शामिल होना और साथ ही अपनी मां का पिता के साथ मिलकर लड़ने की प्रवृत्ति ने नताशा पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी। अपनी स्कूली शिक्षा में होनहार नताशा का बहुत कम उम्र में ही राजनीति से लगाव पूरे परिवार को दिखाई देने लगा था। दुर्भाग्यवश सिर्फ़ 13 साल की उम्र में उनकी मां ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। अपनी पत्नी के देहांत के बाद महावीर नरवाल ने सिंगल पैरेंट के रूप में अपने दोनों बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी उठाई।
महावीर नरवाल हरियाणा एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, हिसार से वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद से 2010 में रिटायर हुए हैं। जब उनसे उनकी बेटी की गिरफ़्तारी के बारे में पूछा गया तो वह बेहद ही गंभीर स्वर में मई 2020 की 22 तारीख को याद करते हुए बताते हैं कि वे उस दिन भी नताशा से मिलने गए थे। नताशा की गिरफ्तारी से दो दिन पहले उन्होंने अपनी बेटी से घर चलने के लिए कहा। लेकिन तब तक नताशा और देवांगना के पास दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल का नोटिस आ चुका था। अगले दो दिनों उनके घर पर स्पेशल सेल द्वारा दिल्ली दंगों के मामले में पूछताछ होनी थी। जब उन्हें यह बात पता चली तो नताशा की गिरफ्तारी की आशंका के चलते वे अपनी बेटी को अपने जेल अनुभवों के आधार पर बताने लगे कि किस तरह से जेल में रहा जाता है, किन किन चीजों की ज़रूरत पड़ती है, किन बातों का ख़याल रखना चाहिए। इसी दौरान, कुछ सेकंड्स का ठहराव लेते हुए और एक गर्व भरी हंसी के साथ महावीर नरवाल कहते हैं,“बहुत प्यारी है मेरी बच्ची और बहुत बहादुर भी। उसे कोई चीज़ डरा नहीं सकती। उसके भीतर बहुत ठहराव और हिम्मत है। मुझे गर्व है इस बात पर कि वो अपने अधिकारों के लिए लड़ना और सही को सही बोलना जानती है। मैं उसके साथ खड़ा हूं। पहले नताशा को मेरी बेटी के नाम से जाना जाता था, आज मुझे उसके पिता के नाम से पहचाना जाता है। मुझे उस पर पूरा विश्वास और गर्व है।” इन शब्दों के भीतर की भावुकता किसी से छिपी नहीं है। खैर, इसके बाद हंसते हुए वह बताते हैं कि वह हर दिन पांच मिनट नताशा से फ़ोन पर बात करते हैं। पिछले साथ महीनों में नताशा ने जेल के भीतर बीत रही अपनी ज़िंदगी को जिंदादिली और हिम्मत के साथ जीया है। वह जेल में योगा सिखाती हैं, किताबें पढ़ती हैं, बच्चों और महिलाओं को पढ़ाती हैं और साथ ही उन्होंने अब तिहाड़ जेल की लाइब्रेरी को संभालने का ज़िम्मा भी उठा लिया है। जेल के भीतर भी और मजिस्ट्रेट के सामने सुनवाई के दौरान भी नताशा बेहद ताक़त के साथ अपनी बात को रखती हैं और किसी भी तरह के अत्याचार या दमन को सहन करने से इनकार करती हैं।
स्कूल से निकलने के बाद नताशा दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में अपनी आगे की पढ़ाई के लिए दाख़िला लिया। वहां आकर जैसे उन्हें खोजने के लिए पूरी दुनिया और उड़ने के लिए पूरा आसमान मिल गया। उनकी परवरिश ने उन्हें उड़ने के लिए वे पंख दिए जो इस समाज की ज़्यादातर लड़कियों को नहीं मिलते। दिल्ली विश्वविद्यालय में उन्होंने खुलकर छात्र राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया लेकिन राजनीति के प्रति उनके लगाव ने किसी भी तरह से उनकी पढ़ाई को प्रभावित नहीं किया। बल्कि जैसे जैसे-जैसे वो राजनीति में ज्यादा हिस्सा लेने लगी, वैसे-वैसे उनका अकादमिक प्रदर्शन भी बेहतर होता गया। इसी दौरान उनके लिए नारीवादी विचार के दरवाज़े भी खुल गए। वह बहुत नज़दीक से इस विचारधारा को पढ़ने, समझने और जीने लगी। जैसा कि उनके पिता बताते हैं और खुद भी मानते हैं कि औरतों पर होने वाले ज़ुल्म से लड़ने के लिए उन्हें आगे आकर बोलना और लड़ना होगा। इसी के साथ नताशा दिल्ली और देश भर के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे नारीवादी और महिला संचालित आंदोलनों के साथ जुड़ने लगी। शोषितों के प्रति संवेदनशीलता और शोषण के प्रति उनकी असहनशील प्रवृति ही उन्हें सीएए विरोधी आंदोलन तक ले गई। उन्होंने अपनी राह तय की और उस पर निकल पड़ी। तमाम परेशानियों के बावजूद आज भी वे अपने उसी रास्ते पर बिना डरे, बिना झुके चली जा रही हैं, देश और दुनिया की उन तमाम महिलाओं की हौसलाफज़ाई करते हुए जिन्होंने अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष की राह चुनी, जिन्होंने अत्याचार के ख़िलाफ़ इन्कलाब चुना, जिन्होंने पुरुषवादी समाज से समझौता करने की जगह उसकी आंखों में आंखें डालकर चुनौती देना तय किया।
लोकतांत्रिक समाज में एक अभिभावक की ज़िम्मेदारी पर बात करते हुए महावीर नरवाल ने साफ़ तौर पर कहा कि मां और पिता के रूप में इस मुल्क के सभी नागरिकों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चों को लोकतांत्रिक और प्रगतिशील मूल्यों से रूबरू करवाएं। उनके अनुसार ऐसा करने का कोई ‘फिक्स्ड फ़ॉर्मूला’ तो नहीं होता लेकिन हमारे परिवार और उनकी परवरिश काफ़ी कुछ तय करती है। समाज अपने बच्चों पर अपनी घिसी-पिटी और पुरानी सोच थोपने पर अमादा रहता है लेकिन इससे न सिर्फ बच्चों बल्कि पूरा समाज को इस परवरिश का खामियाज़ा भुगतना पड़ता है। अपनी बेटी नताशा और बेटे आकाश के साथ अपने रिश्तों का ज़िक्र करते हुए, एक हलकी मुस्कराहट के साथ महावीर नरवाल कहते हैं कि उन्होंने कभी भी अपनी सोच अपने बच्चों पर थोपने की कोशिश नहीं की और शायद यही कारण रहा की उनके बच्चों के साथ उनका संवाद इतना दुरुस्त है। उनके बच्चे निडर हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि चाहे दुनिया की कोई भी ताक़त उनके सामने आकर खड़ी हो जाए, उनके पिता और मां ने उन्हें जो आत्मविश्वास दिया है वो उनका साथ कभी नहीं छोड़ेगा। नताशा को याद करते हुए उनके पिता कहते हैं कि उनकी बेटी ने अपनी ज़िंदगी के सभी बड़े फैसले खुद लिए हैं और उनके हर फैसले में कई बार असहमत होते हुए भी उन्होंने नताशा का साथ दिया है।
नताशा की संजीदगी और स्वभाव से लोग कितने परिचित हैं यह इस बात से साबित होता है कि उनकी गिरफ़्तारी के बाद हजारों लोगों ने उनके समर्थन में उनकी रिहाई की मांग करते हुए आंदोलन किए। नताशा को जानने वाले लोगों का साफ़ तौर पर मानना है कि उनकी गिरफ्तारी बेबुनियाद और गैरकानूनी है। जो महिला सालों से अन्याय और अत्याचार के खिलाफ बोलती, लिखती और लड़ती हुई आ रही हैं वह पिछले सात महीने से जेल में कैद है। औरतों के इंकलाब के लिए नताशा और उनके साथियों की लड़ाई आज भी जारी है और उनके पिता पूरी हिम्मत के साथ नताशा के साथ खड़े हैं।
सौज- एफआईआई