क्या दिल्ली की सरहदों पर चल रहा किसानों का आंदोलन मोदी सरकार की ‘अन्ना घड़ी’ है? मूलतः गैर राजनीतिक बने रहने की ज़िद के बावजूद मोदी सरकार पर किसान आंदोलन के क्या वैसे ही प्रभाव होंगे जैसे अन्ना आंदोलन के मनमोहन सरकार पर पड़े थे जो ख़ुद को गैर राजनीतिक ही मानता था? या किसी लोकतांत्रिक देश में कोई भी आंदोलन अपनी ज़िद के बावजूद गैर राजनीतिक रह सकता है? क्या उसके अपने राजनीतिक फलितार्थ नहीं होने लगते हैं?
इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं। लेकिन कुछ समानताएं ध्यान खींचती हैं। 2011 के अन्ना आंदोलन से पहले यूपीए सरकार बहुत मज़बूत दिखाई पड़ रही थी। 2004 के बाद 2009 का लोकसभा चुनाव उसने जीता ही नहीं था, बल्कि अपनी ताकत भी बढ़ाई थी।
मनरेगा और सूचना का अधिकार जैसे क़ानून इस सरकार की बड़ी उपलब्धि थे (यह अलग बात है कि बाद में सूचना का अधिकार ही मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा कारगर हथियार साबित हुआ।) तब तक अटल-आडवाणी का युग बीत चुका था और अपनी दूसरी पंक्ति के नेताओं की अपर्याप्तता के बीच बीजेपी बिल्कुल कुंद सी दिखती थी और विपक्ष श्रीहीन हो चुका था। अक्सर यह कहा जाता था कि विपक्ष की भूमिका भी यूपीए के घटक दल ही निभा रहे हैं। 2008 तक वाम मोर्चे ने दरअसल लगभग ऐसी ही भूमिका निभाई थी।
2011 में जब अन्ना आंदोलन शुरू हुआ तो सरकार तय नहीं कर पा रही थी कि वह इससे कैसे निपटे। कभी अन्ना की गिरफ़्तारी और कभी उनसे संवाद की कोशिश का द्वंद्व मनमोहन सरकार को बिल्कुल हास्यास्पद बना रहा था।
उन दिनों कपिल सिब्बल सरकार और आंदोलनकारियों के बीच हांफते-भागते ऐसे ही लगते थे जैसे इन दिनों कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर किसानों और अमित शाह के बीच आते-जाते दिखते हैं।
आप-बीजेपी को मिला फायदा
इसमें संदेह नहीं कि उस आंदोलन ने पहली बार मनमोहन सरकार की साख पर इतना बड़ा बट्टा लगाया कि पूरे देश में उसके ख़िलाफ़ एक माहौल सा बन गया। देश के कोने-कोने में कई जंतर-मंतर बन गए जहां लोकपाल के पक्ष में और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जनता जुटने लगी। अंततः इस व्यापक जनमत का फायदा आंदोलन के बाद बनी आम आदमी पार्टी को दिल्ली-पंजाब में और बीजेपी को देश के दूसरे राज्यों में मिला।
आरएसएस की शह
लेकिन दस साल पुराने अन्ना आंदोलन की तुलना इतने भर से मौजूदा किसान आंदोलन से नहीं की जा सकती। इसकी भी कई वजहें हैं। यह आम आरोप है कि अन्ना के उस आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शह भी थी जिसका एक सिरा रामदेव से जुड़ता था और दूसरा किरण बेदी से, जिन्हें बीजेपी ने बाद में दिल्ली में अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार बना कर उनकी और अपनी- दोनों की जगहंसाई करवाई।
भ्रष्टाचार का मुद्दा
दूसरी बात यह कि भ्रष्टाचार दरअसल भारतीय मध्य वर्ग के लिए एक भावनात्मक मुद्दा ही है- जिसका वास्ता दफ़्तरों में ली-दी जाने वाली मामूली रिश्वतखोरी पर लगाम लगाने भर से है जिससे उसकी मुश्किलें कुछ कम हों। अरविंद केजरीवाल जिस तरह दिल्ली की जनता को वीडियो बनाकर भ्रष्टाचार उजागर करना सिखा रहे थे, वह इसी सोच का एक नमूना भर था। लेकिन जो व्यापक भ्रष्टाचार है- उसकी पैठ हमारे सामाजिक जीवन में कितनी गहरी है और उसका आर्थिक-सामाजिक विषमताओं से कितना गहरा नाता है- इसका आकलन करने वाली दृष्टि उस आंदोलन के पास तब तक नहीं थी। इसलिए भ्रष्टाचार विरोधी उस आंदोलन से असली भ्रष्ट लोगों को कोई ख़तरा नहीं था और सब उसे समर्थन दे रहे थे।
किसान आंदोलन के साथ यह सुविधा नहीं है। उसका सबसे बड़ा संकट तो यह है कि भारत के नागरिक के तौर पर किसान भारतीय उच्च मध्य वर्ग की स्मृति से बरसों पहले निकल चुके हैं। अगर यह त्रासदी न घटित हुई होती तो विकास की चमक-दमक में लाखों किसानों की ख़ुदकुशी का मामला ऐसा अनदेखा नहीं रह जाता।
इस आंदोलन का दूसरा संकट यह है कि कृषि सुधारों के नाम पर लाए गए जिन तीन क़ानूनों का किसान विरोध कर रहा है, उसकी डरावनी असंगतियां या विसंगतियां कम लोगों को समझ में आ रही हैं।
बाज़ार पर हमारा भरोसा इतना ज़्यादा बढ़ चुका है कि हम मानते हैं कि बाज़ार में न्याय होता है। खेती की पैदावार कारखानों के उत्पाद से कैसे अलग होती है और उसे मंडियों तक पहुंचाने का गणित क्या होता है- लोगों को न इसकी समझ है और न इस बात की कि बहुराष्ट्रीय पूंजी का (और अब तो तथाकथित राष्ट्रीय पूंजी का भी) दैत्याकार आलिंगन जैसे किसानों को पीस डाल सकता है। यानी इस आंदोलन के सामने एक संकट अपनी बात उस ताकतवर भारत तक पहुंचाने का भी है जो कुछ सुनने को तैयार नहीं है।
बदनाम करने की कोशिश
तीसरा संकट यहीं से पैदा होता है। यूपीए सरकार के पास न वैसा प्रचार तंत्र था और न पार्टी संगठन जैसा इस सरकार के पास है। किसानों का आंदोलन शुरू हुआ नहीं कि उसकी साख ख़त्म करने के प्रयत्न शुरू हो गए। पहली तोहमत यह लगाई गई कि आंदोलन अमीर किसानों का है- उन किसानों का जो गरीब मज़दूरों का शोषण करते हैं। इसके बाद इसे देशद्रोही, आतंकवादी, ख़ालिस्तानी, नक्सली तत्वों तक का आंदोलन बता दिया गया। हैरान करने वाली बात यह है कि इनमें से कुछ तोहमतें सीधे सरकार के स्तर पर लगाई गईं।
साफ़ है कि किसानों की लड़ाई कहीं ज़्यादा तीखी है। बेशक, उन्हें उन तमाम वर्गों का समर्थन मिल रहा है जो कई अलग-अलग वजहों से पहले से ही मोदी सरकार से नाराज़ और निराश हैं, लेकिन मोदी पर भरोसा करने वाला जो प्रचंड बहुसंख्यक समर्थन है, वह अब भी सरकार के साथ बना हुआ है।
आंदोलन के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार
ख़तरा यह भी है कि जैसे-जैसे आंदोलन लंबा चलेगा, किसानों की थकान भी बढ़ेगी और उनके नुक़सान भी बढ़ेंगे और दूसरी तरफ़ आंदोलन के ख़िलाफ़ यह दुष्प्रचार भी तेज़-तीखा होगा कि इसकी वजह से आम आदमी को बहुत सारी परेशानियां उठानी पड़ रही हैं। बल्कि सरकार अपनी बहुत सारी विफलताओं का ठीकरा इस आंदोलन पर कुछ उसी तरह फोड़ती रहेगी जैसे साल के शुरू में शाहीन बाग आंदोलन पर फोड़ने की कोशिश करती रही थी।
मगर इसका मतलब यह नहीं कि यह आंदोलन विफल होने जा रहा है या कुछ मांगों पर समझौता करके ख़त्म होने जा रहा है। दरअसल, जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ रहा है, वह भारतीय लोकतंत्र में प्रतिरोध और जनमत-निर्माण की ठीक वैसी नई कसौटियां बना रहा है जैसा शाहीन बाग बना रहा था।
लोकतांत्रिक आंदोलन
अगर यह आंदोलन लंबा चला तो यह तीन क़ानून वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य को अनिवार्य बनाने की मांग भर नहीं रह जाएगा, यह निर्णयों और नीतियों के निर्धारण में भागीदारी का आंदोलन भी बन जाएगा, यह लगभग स्वेच्छाचार की ओर बढ़ती सरकार को याद दिलाने का आंदोलन भी बन जाएगा कि लोकतंत्र सिर्फ चुनावों में हासिल की जाने वाली रणनीतिक सफलता का नाम नहीं है, उसकी कसौटियां और भी होती हैं, उसकी कई तहें होती हैं।
लेकिन एक संकट है जो अन्ना आंदोलन के साथ भी था। किसी भी लोकतंत्र में किसी राजनीतिक पहल के अभाव में अंततः आंदोलन या तो भटक जाते हैं या सीमित लक्ष्यों के साथ ख़त्म हो जाते हैं या फिर इन आंदोलनों का फ़ायदा कोई और उठा ले जाता है।
राजनीतिक नेताओं के साथ मंच साझा न करने की युक्ति आंदोलन के विश्वसनीय चरित्र को बनाए रखने के लिए भले ज़रूरी हो, लेकिन उतना ही ज़रूरी यह भी है कि यह आंदोलन अपना एक वैचारिक-राजनीतिक रुख़ विकसित करे। किसी दलबंदी के चक्कर में वह न भी पड़े तो भी उसे विभिन्न मसलों पर अपनी एक राय विकसित करनी होगी।
राजनीतिक चुनौती बनेगा?
इत्तेफ़ाक़ से यह आंदोलन ठोस सामाजिक-आर्थिक मुद्दों का आंदोलन हो चुका है। इस आंदोलन को इस पूरी आर्थिक वैचारिकी के विरुद्ध खड़ा होना होगा। किसानी के साथ मज़दूरी के मुद्दों को भी संबोधित करना होगा। फिलहाल इस आंदोलन को देश के कई मज़दूर संगठनों ने समर्थन दिया है, लेकिन जब तक यह आंदोलन सरकार या विभिन्न राजनीतिक दलों के सामने एक राजनीतिक चुनौती प्रस्तुत नहीं करता, वह किसी के लिए ख़तरा नहीं बनेगा।
मुश्किल यह है कि जो राजनीतिक दल इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, वे भी वैचारिक से ज़्यादा रणनीतिक तौर पर इसके साथ खड़े हैं। वैचारिक तौर पर किसानों को लेकर उनका रुख वही रहा है जो मोदी सरकार का है। दरअसल, मोदी सरकार की कुल जमा शिकायत यही है कि जो काम सभी राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में लिख रखा है, वही अब उसने किया तो उसका विरोध किया जा रहा है।
मोदी सरकार के लिए ख़तरा?
क्या इस आंदोलन से मोदी सरकार को कोई ख़तरा है, जैसा अन्ना आंदोलन की वजह से मनमोहन सरकार के सामने पैदा हुआ? फिलहाल ऐसा नहीं दिखता तो इसकी कई वजहें हैं। एक तो यह कि बीजेपी और संघ-परिवार का सांगठनिक आधार आज की कांग्रेस के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बड़ा है जिसने सरकार के ख़िलाफ़ गुस्से को ज़मीनी स्तर पर लपकने में कोई चूक नहीं की।
मोदी का जादू
दूसरी बात यह कि जब एक लहर उसे अपने पक्ष में मिली तो बड़ी चालाकी के साथ उसने सांप्रदायिक विद्वेष की अपनी सुप्त पड़ी धारा को भी इसमें जोड़ लिया। तीसरी और बहुत महत्वपूर्ण बात गुजरात से नरेंद्र मोदी का दिल्ली आगमन रहा। 2012 में नरेंद्र मोदी ने बीजेपी की कमान संभाली तो जैसे हिंदू विकास का मिथक मूर्तिमान हो उठा। मोदी की व्यक्ति-पूजा की जो सुनामी उठी, उसके आगे सारे मुद्दे ज़मींदोज़ हो गए।
आज भी हम देखते हैं कि मोदी का जादू जीवित है। इसके आगे नोटबंदी से पैदा तबाही, कारोबारी दुनिया की गिरावट, मज़दूरों के पलायन की त्रासदी- सब बेकार हैं। बल्कि यही नहीं, इस व्यक्ति पूजा ने समाज का भयावह ध्रुवीकरण कर डाला है।
बांटने की राजनीति
कोरोना से भी ख़तरनाक विद्वेष का एक वायरस जैसे समाज की रगों में दाख़िल हो गया है जिसके आगे सारे तर्क बेमानी नज़र आ रहे हैं। भीमा-कोरेगांव केस हो, दिल्ली के दंगे हों, शाहीन बाग से लेकर किसान आंदोलन तक की बात हो, लव जिहाद जैसी मूर्खतापूर्ण अवधारणा हो- इन सबमें विद्वेष की इस राजनीति और इसके प्रभाव को पहचाना जा सकता है।
यह सारी स्थिति किसान आंदोलन की चुनौती को और विकट बनाती है। लेकिन विकट चुनौतियों की काट नए और बड़े रास्ते तैयार करके ही संभव होती है। किसान आंदोलन धीरे-धीरे जो रूप ले रहा है, उसमें भारत के सामाजिक विवेक की प्रतिध्वनियां भी शामिल हैं और राजनीतिक प्रतिरोध की क्षीण सी उम्मीद भी।
मौजूदा माहौल में यह उम्मीद जगाना भी छोटी बात नहीं है। किसान आंदोलन में लोकतंत्र की गरिमा बचाने के कई बीज दिखते हैं। ज़रूरी है कि उन्हें सही पोषण, धूप और पानी मिले।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दी