लगभग सौ साल पहले, 1918 में इन्फ़्लुएंज़ा संक्रमण या स्पेनिश फ्लू ने पांच करोड़ लोगों को लील लिया था. भारत में मरने वालों की तादाद क़रीब एक करोड़ अस्सी लाख थी. हिंदी के महाकवि निराला की पत्नी मनोहरा देवी और कई परिजन भी इसी आपदा के शिकार बने थे. शवों को जलाने के लिए लकड़ियों की कमी पड़ गयी थी। गंगा की लहरों में लाशें उतरा रही थीं. प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल होने धरती के की कोनों पर भेजे गये भारतीय सैनिक वापसी में ये संक्रमण भी साथ ले आये थे.
चौदहवीं सदी में प्लेग ने पूरे यूरोप में भयानक तबाही मचाई थी. इस महामारी के कारण यूरोप की एक तिहाई आबादी काल के गाल में समा गयी थी. खेतों में काम करने वाले मज़दूरों की कमी पड़ गयी थी जिसने सामंती ढांचे पर गहरी चोट की.
यूरोप में आबादी की कमी की वजह से नई ज़मीन की तलाश शुरू हुई. इस साम्राज्यवादी दौर में पंद्रहवी-सोलहवीं शताब्दी में अमेरिका महाद्वीप में भीषण हत्याकांड हुए. यूरोपीय तमाम बीमारियाँ लेकर अमेरिका पहुँचे जिनमें चेचक सबसे ख़ास थी. एक अनुमान के मुताबिक युद्ध और बीमारियों की वजह से अमेरिकी महाद्वीप की आबादी छह करोड़ से घटकर साठ लाख रह गयी.
इतिहास के ये कुछ अध्याय बताते हैं कि महामारियों ने किस तरह मानव सभ्यता का नाश किया. उसके सफ़र में ज्ञात-अज्ञात इतिहास के दौरान कितनी महामारियो के दलदल पड़े होंगे, कहना मुश्किल है. लेकिन समय के साथ मनुष्य ने इनसे लड़ना सीखा.प्राचीन और मध्ययुग में जादू-टोना या झाड़-फूंक ही निदान था, लेकिन आज विज्ञान भरपूर जवाब देने में सक्षम है. ज़ाहिर है, कोरोना का यह संकट भी गुज़र जाएगा. इसकी क़ीमत भी वैसी नहीं चुकानी पड़ेगी जैसा कि अतीत के काले अध्यायों में दर्ज हैं. ताली-थाली बजवाने वाले भी जानते हैं कि निदान किसी टोटके से नहीं, प्रयोगशाला से निकलेगा।
मनुष्य के लिए ज़रूरी है वायरस
विषाणु या वायरस के बिना मानव जीवन संभव नहीं था. यहाँ तक कि मानव प्रजनन की प्रक्रिया भी वायरस के कारण ही संभव हुई वरना बात अंडा देने से आगे नहीं बढ़ती. हानिकारकर और लाभकारी विषाणुओं के साथ ही मानव प्रजाति विकसित हुई है. विषाणु को फैलने के लिए कोशिकाओं की जरूरत होती है, इसलिए कोरोना भी एक के बाद दूसरे मानव शरीर की तलाश में है जबकि मनुष्य की चुनौती इससे बचने की है. एक समय ऐसा भी आता है जब खतरनाक से खतरनाक वायरस भी मानव शरीर के साथ रहना सीख जाता है यानी नुकसान पहुँचाने की उसकी ताकत घट जाती है.
बहरहाल, कोरोना अभी तीव्रतम रूप में है जिसे काबू करना एक चुनौती है. लेकिन इसी के साथ एक और खेल भी चल रहा है जो हर संकट के समय सत्ताओं का प्रिय खेल रहा है. वे ज़्यादा निरंकुश होने की दिशा में बढ़ गयी हैं. ‘युद्धकालीन परिस्थिति’ का हवाला देते हुए वे हर सवाल को दफ़्न कर देना चाहती हैं. भारत मे तो ये और भी खुले रूप में हो रहा है जहाँ सरकार घंटा बजवाकर अपनी आपराधिक लापरवाही छिपाने की कोशिश कर रही है. 21 दिन का लॉकडाउन सबको स्वीकार करना चाहिए, लेकिन ‘दिमाग़ पर लॉक लगाना’ कोरोना से बचने की कोई शर्त नहीं है.
सरकार की आपराधिक लापरवाही
कोरोना को लेकर खतरे की घंटी दिसंबर 2019 से बजने लगी थी. वुहान (जहां से कोरोना फैला) चीन में है और भारत उसका पड़ोसी है पर यहां सरकार पूरी तरह निश्चिंत दिखी जबकि जबकि चीन के कई पड़ोसियों ने तुरंत कार्रवाई किया. ताइवान, सिंगापुर, हांगकांग इसके उदाहरण हैं जिन्होंने बड़े पैमाने पर नुकसान से खुद को बचा लिया. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 31 दिसंबर को ही सार्स जैसे रहस्यमय निमोनिया फैलने की आशंका जता दी थी. इसके तीन-चार दिनों के भीतर उन्होंने बड़े पैमाने पर सीमाओं पर स्क्रीनिंग शुरू कर दी. चीन, खासतौर पर वुहान से आने वाले यात्रियों को देश मे कदम रखते ही अलग-थलग करके उनकी सघन जांच की गयी. उधर, दक्षिण कोरिया ने बड़े पैमाने पर कोरोना टेस्ट कराये, बिना इस बात की परवाह किये कि किसी में लक्षण हैं या नहीं.
अब ज़रा भारत का हाल देख लीजिए. देश के स्वास्थ्यमंत्री डॉ.हर्षवर्धन ने 5 मार्च को ट्वीट करके ‘गाँधी परिवार’ पर देश में कोरोना को लेकर बेवजह सनसनी फैलाने का आरोप लगाया. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने कोरोना के सिलसिले में पहला ट्वीट 31 जनवरी को किया था. इसके बाद लगभग दर्जन भर ट्वीट उन्होने अलग-अलग दिनों में किये ताकि सरकार इस गंभीरता को समझे. चलते-फिरते चैनलों को साउंड बाइट भी दी कि देश बड़े संकट में फंसने जा रहा है. कोरोना और उससे होने वाली आर्थिक तबाही को सुनामी बातते हुए गहरी आशंका जतायी. लेकिन जिस व्यक्ति को ‘पप्पू’ साबित करने के लिए सैकड़ो करोड़ रुपये खर्च किये गये हों, उसका मज़ाक न उड़ाया जाता तो क्या किया जाता!
By- पंकज श्रीवास्तव- सौ मीडिया विजिल