हाल ही में उम्र का 90वां बसन्त मना रहीं प्रख्यात लेखिका उषा प्रियंवदा का अंदाज़ ज़िदादिली, खिलंदड़पन और दिलकशी से भरपूर है। पद्म भूषण सम्मान से अलंकृत ऊषा ने पीएलएफ में, “जिंदगी और गुलाब के फूल” सत्र में, अरविंद कुमार के सवालों का जवाब देते हुए अपनी जिंदगी के कई रंग सामने रखे।
खिलखिलाते हुए ऊषा कहती हैं कि उनके भीतर एक बच्चा है और उन्होने हमेशा इस बच्चे को सहलाया है। यही राज़ है कि इस उम्र में भी उनकी रंगत पर उम्र नज़र नहीं आती।
भाषा के विषय पर ऊषा कहती हैं कि “मैं 50 साल से अमेरिका में रह रही हूँ, लेकिन मेरी त्वचा भारतीय है, ऐसे ही हिंदी मेरी त्वचा है, जिसे मैं अपने से अलग नहीं कर सकती। भारत आती हूँ और हिंदी बोलती हूँ तो लोग पूछते हैं, तुम्हारी अंग्रेजी को क्या हुआ? तब मैं कहती हूँ- यहां आकर अंग्रेजी सो जाती है।”
कॉलेज, विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने वाली उषा प्रियंवदा महान लेखक हरिवंश राय बच्चन को याद करती हैं, जिन्होंने उनसे एक मर्तबा कहा था कि अंग्रेजी पढ़ो और पढ़ाओ लेकिन लिखो हिंदी में। वहीं से प्रेरित होकर ऊषा ने हिंदी में लेखन शुरू किया। उषा हरिवंश राय बच्चन और प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी को गुरु मानती हैं। शिवरानी देवी ने ही उन्हें सीख दी कि नौकरी कभी मत छोड़ना। वे बताती हैं कि कैसे कॉलेज के दिनों में उन पर बच्चन, सुमित्रानंदन पंत और रघुपति सहाय फिराक का बहुत स्नेह रहा। शायद कम ही लोगों को पता होगा कि उषा प्रियंवदा इलाहाबाद में अपनी जिस बहन के घर रहती थीं, उनके फ़िराक़ गोरखपुरी सगे जेठ होते थे। फ़िराक़ के अपनी पत्नी के प्रति गुस्सेल रवैये की दास्ताँ भी उन्होंने दुखी मन से सुनाई। वे कहती हैं-“हालांकि हमारे लिए वे फूल जैसे कोमल थे।”
वर्ष 1953 में उषा प्रियंवदा की “सरिता” में पहली कहानी “लाल चुनर” उषा के नाम से छपी जिसके पारिश्रमिक के रूप में उन्हें 20 रुपए मिले। उषा का वास्तविक नाम उषा सक्सेना था और बाद में उन्होंने अपनी मां का नाम प्रियंवदा अपने नाम में जोड़ लिया और फिर इसी नाम से लिखने लगी।
क्या उन्हें प्रवासी लेखिका कहलाने से चिढ़न होती हैं, इस पर हंसते हुए ऊषा कहती हैं कि “प्रवासी” शब्द नामवर सिंह जी ने दिया, जिनका वे हमेशा सम्मान करती रही हैं। नामवर जी मज़ाक में कहते थे-“आपकी भाषा अब प्रेमचंदीय हो गई है, अब आप तिलिस्मी उपन्यास लिखो।” वे कहती हैं, प्रवासी लेखिका के तमगे से उन्हें कोई गुरेज़ नहीं। वे बताती हैं कि दिल्ली और इलाहाबाद के बाद अमेरिका की ज़मीं पर जाकर उन्हें सचमुच आज़ादी महसूस हुई।लगा जैसे पिंजरे से निकल कर खुली हवा में आ गई हैं। वे कहती हैं, हमारे देश में, खासकर महिलाओं पर हमेशा एक अबोला अनुशासन बना रहता है।
बातचीत में उषा ने अपने निजी जीवन की परतों को भी खोला और बताती चलीं कि कैसे उन्हें एक स्वीडिश पुरुष से प्रेम हुआ, फिर उनसे विवाह भी किया और वहां की संस्कृति को भी बखूबी देखा और समझा। बाद में अलग होने के दुख पर वे कहती हैं, उपन्यास में दो लोगों को कलम के एक झटके से अलग किया जा सकता है, लेकिन वास्तविक जीवन में यह कितना पीड़ादायक होता है, यह अब समझ में आया। हालांकि इस विवाह से उनकी मां और समूचे परिवार का दिल टूटा और वे मानती हैं कि इस अपराध बोध से वे कभी मुक्त नहीं हो सकी।
90 की उम्र में उन्होंने हाल ही में एक उपन्यास पूरा किया है, जो एक नितांत प्रेम में डूबी एक युवक और अधेड़ उम्र की स्त्री की कहानी है। उषा ठहाके लगाते हुए कहती हैं, आखिर 90 की उम्र में कोई लिखे, और प्रेम कहानी नहीं लिखे, तो फिर कब लिखे!!