कोरोना वायरस से उपजे संकट ने एक ओर दसियों करोड़ लोगों की नौकरी खा ली तो दूसरी तरफ मुट्ठी भर अरबपतियों की दौलत ने इस दौरान नई ऊंचाई छू ली
कोविड-19 ने भारत सहित पूरी दुनिया में अमीर-गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है. ऑक्सफैम की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक इस संकट के दौरान देश के अरबपतियों की दौलत में करीब 35 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इसका एक मतलब यह भी है कि बीते साल मार्च से भारत के 100 सबसे अमीर लोगों ने जितनी दौलत कमाई है वह अगर देश के सबसे गरीब 13.8 करोड़ लोगों में बांटी जाए तो हर एक के हिस्से में करीब 94 हजार रु आएंगे. कोरोना वायरस संकट के दौरान भारत और एशिया के सबसे अमीर शख्स बनकर उभरे मुकेश अंबानी ने हर घंटे औसतन 90 करोड़ रु कमाए. ऑक्सफैम के मुताबिक उनकी दौलत में हुई यह बढ़ोतरी असंगठित क्षेत्र के करीब 40 करोड़ कामगारों को कम से कम पांच महीने गरीबी की रेखा से बाहर रख सकती थी.
कोरोना वायरस संकट ने आय की असमानता बढ़ाई है, इसकी पुष्टि पहली बार नहीं हो रही. कुछ समय पहले ब्लूमबर्ग ने दुनिया में सबसे अमीर 500 लोगों की अपनी सूची जारी की थी. इससे भी पता चला था कि दुनिया के ज्यादातर लोगों के लिए दु:स्वप्न रहा बीता साल धनकुबेरों के लिए शानदार रहा है. 2020 के दौरान उनकी दौलत में कुल 23 फीसदी यानी 13 खरब डॉलर की बढ़ोतरी हुई है. अमेरिकी इलेक्ट्रिक कार कंपनी टेस्ला के मालिक एलन मस्क ने तो इस मामले में सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. उन्होंने बीते साल अपनी दौलत में 100 अरब डॉलर से भी ज्यादा की रकम जोड़ी. खबर लिखे जाने तक यह आंकड़ा 175 अरब डॉलर से भी ज्यादा हो चुका है और 200 अरब डॉलर की संपत्ति के साथ वे दुनिया के सबसे अमीर शख्स बन गए हैं. उधर, भारत की बात करें तो रिलायंस इंडस्ट्रीज के मुखिया मुकेश अंबानी की दौलत में बीते साल करीब 22 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हुई. फिलहाल करीब 80 अरब डॉलर की कुल संपत्ति के साथ वे दुनिया के 11वें सबसे अमीर शख्स हैं.
यह हैरान करने वाला विरोधाभास है. कोरोना वायरस ने भारत सहित दुनिया के हर देश की अर्थव्यवस्था को सिकोड़ दिया है. लाखों लोगों के काम-धंधे तबाह हो गए हैं. दसियों करोड़ लोगों की नौकरियां चली गई हैं. दूसरी ओर धनकुबेरों के घरों में पैसा छप्पर फाड़कर बरस रहा है. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि स्विटजरलैंड के चर्चित बैंक यूबीएस और मशहूर अकाउंटिंग फर्म प्राइसवाटरहाउसकूपर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के अरबपतियों की दौलत में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी ठीक अप्रैल से जुलाई 2020 के दौरान यानी उस समय हुई जब कोरोना वायरस का कहर अपने चरम पर था. ठीक इसी दौरान करोड़ों लोगों की नौकरियां जा रही थीं और कइयों के घरों में खाने के लाले पड़ रहे थे. लेकिन इसी समय इन धनकुबेरों की दौलत 27.5 फीसदी बढ़ गई. विश्वशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका का ही उदाहरण लें तो महामारी के चलते अब तक वहां चार करोड़ से भी अधिक लोगों की नौकरियां चली गई हैं जबकि इसी दौरान अमेरिकी अरबपतियों की दौलत में 637 अरब डॉलर से भी ज्यादा का इजाफा हुआ है.
सवाल उठता है कि ऐसा कैसे हुआ. यह समझने से पहले यह जानना जरूरी है कि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा. ब्लूमबर्ग की सूची के पहले 10 नामों में से आठ अमेरिकी हैं तो इसे अमेरिका के ही उदाहरण से समझते हैं. 2007 में अमेरिका में वित्तीय संकट आया था. इसकी वजह यह थी कि बैंकों ने रियल स्टेट क्षेत्र में जो अंधाधुंध कर्ज बांटे थे वे डूब गए थे. इस वित्तीय संकट से पैदा हुई सूनामी के चलते वहां के स्टॉक मार्केट ने 50 फीसदी का गोता लगा दिया था. 2009 खत्म होते-होते करीब 90 लाख लोगों की नौकरी चली गई. उस संकट की मार से 80 फीसदी अमेरिकी अब भी पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं. लेकिन धनकुबेरों के मामले में कहानी उलट रही है. 2009 से 2012 के आंकड़े देखें तो इस दौरान 99 फीसदी अमेरिकियों की आय में सिर्फ 0.4 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, लेकिन सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के लिए यह आंकड़ा 31.4 प्रतिशत था. अमेरिका के 400 सबसे ज्यादा अमीर लोगों की कुल संपत्ति में तब से लेकर अब तक 80 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हो गई है. कहने का मतलब यह कि आपदाएं अमीरों के लिए पहले भी और अक्सर अवसर बनती रही हैं.
अब शीर्ष धनकुबेरों की दौलत में बीते साल हुई असाधारण बढ़ोतरी के पीछे की वजह समझते हैं. 2020 की शुरुआत में जब कोरोना वायरस को वैश्विक महामारी घोषित किया गया तो उस वक्त दुनिया के शेयर बाजारों में कोहराम मच गया था. हर तरफ से ऐतिहासिक गिरावट की खबरें आ रही थीं. लेकिन जल्द ही यह सिलसिला उलट गया और आज भारत सहित दुनिया के तमाम देशों के शेयर बाजार ऐतिहासिक ऊंचाइयों पर हैं. इसका सीधा फायदा धनकुबेरों को हुआ है जिनकी कंपनियों का बाजार पूंजीकरण बढ़ा है.
उदाहरण के लिए ऑनलाइन रीटेल क्षेत्र के बड़े नाम एमेजॉन को ही देखें तो बीते साल मार्च से लेकर अब तक कंपनी के शेयरों में 50 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी दर्ज हुई है. कंपनी के मुखिया जेफ बेजॉस 194 अरब डॉलर की संपत्ति के साथ दुनिया के अमीरों की सूची में दूसरे पायदान पर बैठे हैं. इस आंकड़े में 74 अरब डॉलर से ज्यादा की रकम उन्होंने 2020 में जोड़ी है. कुछ ऐसा ही फेसबुक के साथ भी हुआ है जिसके मुखिया मार्क जुकरबर्ग की दौलत में इस दौरान 30 अरब डॉलर से भी ज्यादा का इजाफा देखने को मिला है. 102 अरब डॉलर की संपत्ति के साथ जुकरबर्ग धनकुबेरों की सूची में पांचवें स्थान पर हैं.
2020 की शुरुआत में जब कोरोना वायरस को वैश्विक महामारी घोषित किया गया तो उस वक्त दुनिया के शेयर बाजारों में कोहराम मच गया था. हर तरफ से ऐतिहासिक गिरावट की खबरें आ रही थीं. लेकिन जल्द ही यह सिलसिला उलट गया
इस चलन को गौर से देखा जाए तो पहली बात यही समझ में आती है कि ये वही कंपनियां हैं जिन्हें कोरोना वायरस से उपजे हालात से फायदा हुआ है. उदाहरण के लिए महामारी के डर के चलते लोगों ने खरीदारी के लिए बाहर निकलना कम किया तो एमेजॉन जैसी ऑनलाइन रीटेल कंपनियों की पौ बारह हो गई. इसी तरह लॉकडाउन के दौरान घरों में बंद लोगों के लिए इंटरनेट एक बड़ा सहारा बना तो रिलायंस जियो और फेसबुक जैसी कंपनियों को इसका फायदा हुआ. ऐसा ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय कंपनियों के बारे में कहा जा सकता है. सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को ही लें जो दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन निर्माता कंपनियों में से एक है. एस्ट्रा जेनेका और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने कोरोना वायरस के लिए जो टीका विकसित किया है उसका भारत में उत्पादन सीरम इंस्टीट्यूट ही कर रही है. कंपनी के मालिक सायरस पूनावाला उन अरबपतियों की सूची में दुनिया में पांचवें स्थान पर हैं जिनकी दौलत में कोरोना वायरस संक्रमण के चरम के दौरान सबसे तेज गति से बढ़ोतरी हुई. फिलहाल करीब 15.8 अरब डॉलर की संपत्ति के साथ वे फोर्ब्स की सूची में 165वें पायदान पर हैं. भारत के वे छठे सबसे अमीर शख्स हैं.
ऐसे कारोबारियों की दौलत में भी इस दौरान अकूत बढ़ोतरी हुई है जिन्हें अपने-अपने क्षेत्रों के स्थापित समीकरण पलटने के लिए जाना जाता है. एलन मस्क का ही उदाहरण लें. इलेक्ट्रिक कारों के मामले में अगुवा कंपनी टेस्ला के इस संस्थापक की संपत्ति में बीते साल 100 अरब डॉलर से भी ज्यादा का इजाफा हुआ है. टेस्ला पिछली पांच तिमाहियों से लगातार फायदे में रही है और उसका उत्पादन लगातार बढ़ रहा है. माना जा रहा है कि वह एक दशक पुराने ऑटोमोबाइल उद्योग की तस्वीर पूरी तरह से बदल सकती है. यही वजह है कि उसका शेयर लगातार ऊंची उड़ान भर रहा है.
उधर, भारत में देखें तो रिलांयस इंडस्ट्रीज के मुखिया मुकेश अंबानी को जियो के जरिये भारतीय दूरसंचार क्षेत्र के सारे समीकरण बदलने के लिए जाना जाता है. कंपनी कोरोना महामारी से पहले भी लगातार आगे बढ़ रही थी और ऐसी धारणा है कि ऐसा करने में इसे वर्तमान सरकार का भी सहयोग हासिल रहा है. महज चार साल पहले लॉन्च हुई रिलायंस जियो आज 37 करोड़ ग्राहकों के साथ भारतीय दूरसंचार बाजार में शीर्ष पर है. इसकी एक वजह यह भी है कि कोरोना काल के दौरान फेसबुक सहित तमाम दिग्गजों ने इसमें करीब डेढ़ लाख करोड़ रु का निवेश कर इसकी 33 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी है. यानी निवेशक ऐसी कंपनियों को हाथों-हाथ ले रहे हैं जिन्हें बदले हालात में भविष्य की कंपनियां माना जा रहा है और नतीजतन इनके मालिकों की झोली का वजन लगातार बढ़ रहा है.
जानकारों के मुताबिक दुनिया के सबसे अमीर लोगों की कमाई आर्थिक उथल-पुथल से भरे समय के दौरान इसलिए भी जारी रहती है कि दूसरे वर्गों के मुकाबले उन्हें सत्ता तंत्र से कहीं ज्यादा मदद मिलती है. उदाहरण के लिए 2008 के वित्तीय संकट के दौरान अमेरिका में इमरजेंसी इकॉनॉमिक स्टेबलाइजेशन एक्ट नाम का एक कानून पास हुआ. जैसा कि नाम से जाहिर है, इसका मकसद आर्थिक अस्थिरता को थामना था. इस कानून के तहत सरकार ने 700 अरब डॉलर खर्च करने की योजना बनाई. इसके तहत बैंकों से वे परिसंपत्तियां खरीदी जानी थीं जिनकी कीमत आर्थिक संकट के चलते काफी गिर गई थी. इसमें से सिर्फ 75 अरब डॉलर घर खरीदारों को दिए गए कर्ज पर लगने वाला ब्याज घटाने के लिए गए. यानी सरकार द्वारा दी गई राहत का करीब 90 फीसदी बैंकों और बड़ी कंपनियों के खातों में गया. जबकि आम लोगों को सिर्फ 10 फीसदी से काम चलाना पड़ा. इसी तरह का बड़ा असंतुलन दूसरे मामलों में भी दिखा.
इसका नतीजा यह हुआ कि जब गिरावट के बाद शेयर बाजार फिर चढ़ने लगे तो अमीरों के हाथों में पैसा था. इसे उन्होंने बाजार में निवेश किया और खूब फायदा कमाया. शेयर बाजार के चढ़ने की वजह यह थी कि आर्थिक संकट के चलते अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने लघु अवधि वाली ब्याज दरों को घटाकर लगभग शून्य कर दिया था. अगले एक दशक तक ये दरें लगभग वहीं रहीं. इसके चलते अमेरिकी शेयर बाजार में 2009 में जो तेजी शुरू हुई वह मार्च 2020 यानी महामारी के आने तक जारी रही. इस दौरान अमेरिका के शेयर बाजारों में सूचीबद्ध 500 सबसे बड़ी कंपनियों के शेयरों से बने सूचकांक एसएंडपी 500 में 462 फीसदी का उछाल आया. इसका मतलब है कि 2008 में अगर किसी ने इन कंपनियों में 10 लाख डॉलर लगाए होंगे तो मार्च 2020 में इनकी कीमत 46 लाख 200 डॉलर पहुंच गई होगी. हैरानी की बात नहीं कि एक रिपोर्ट के मुताबिक 2009 से 2020 तक अमेरिका के अरबपतियों की कुल दौलत के आंकड़े में 80 फीसदी से भी ज्यादा का इजाफा हो गया था.
अब मौजूदा दौर की बात करते हैं. 2019 में फेडरल रिजर्व की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 40 फीसदी अमेरिकी ऐसे हैं जिनके बचत खाते में इतना भी पैसा नहीं है कि अचानक से 400 डॉलर (लगभग 30 हजार रुपये) का कोई खर्च आ जाए तो वे इसे झेल सकें. इसके बाद तो कोरोना वायरस संकट के चलते हालात खराब ही होते चले गए. 2020 के शुरुआती महीनों में ही खबरें आने लगी थीं कि अमेरिका में करीब चार करोड़ लोग बेरोजगार हो गए हैं और लॉकडाउन के चलते कई छोटे-मोटे काम धंधे बंद हो गए हैं. इन कारोबारियों की मदद के लिए अमेरिकी सरकार ने 349 अरब डॉलर की राहत की घोषणा की थी. इसके तहत ‘पे चेक प्रोटेक्शन प्रोग्राम’ नाम की एक योजना बनाई गई. इसमें कंपनियों को किसी गारंटी के बगैर कर्ज दिए जाने थे. खास बात यह थी कि यह कर्ज पूरी तरह माफ भी हो सकता था. शर्त यह थी कि यह पैसा मिलने के बाद छह महीनों तक कंपनी ने किसी कर्मचारी को नौकरी से नहीं निकाला हो और कर्ज का कम से कम 60 फीसदी हिस्सा तनख्वाह पर खर्च किया हो. कर्ज की रकम किसी और मद में खर्च करने पर ब्याज महज एक फीसदी था.
जानकारों के मुताबिक दुनिया के सबसे अमीर लोगों की कमाई आर्थिक उथल-पुथल से भरे समय के दौरान इसलिए भी जारी रहती है कि दूसरे वर्गों के मुकाबले उन्हें सत्ता तंत्र से कहीं ज्यादा मदद मिलती है.
लेकिन जानकारों के मुताबिक इस बार भी वही हुआ जो 2008 में हुआ था. इस रकम में से एक बड़ा हिस्सा बड़े कारोबारियों ने लपक लिया. ‘पे चेक प्रोटेक्शन प्रोग्राम’ और ब्याज दरों में गिरावट के मेल का नतीजा यह हुआ कि मार्च में ढेर हुआ अमेरिकी शेयर बाजार जून आते-आते नई ऊंचाइयों पर पहुंच गया. इसके चलते दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से सात की संपत्ति में महज़ कुछ ही महीनों में 50 फीसदी से भी ज्यादा की बढ़ोतरी हो गई.
ऐसा दुनिया में हर जगह होता है. भारत में कारोबारियों की एक प्रमुख एसोसिएशन के सदस्य नाम न छापने की शर्त पर सत्याग्रह को बताते हैं, ‘कोरोना संकट के समय हम जैसे व्यापारियों के लिए हजारों करोड़ रु के ऐलान हुए, लेकिन इनका फायदा सत्ता तंत्र से नजदीकी रखने वाले लोगों को ही मिलता है. जरूरतमंदों का एक बड़ा हिस्सा राह तकता ही रह जाता है.’
यानी आपदा को अवसर में बदलने के लिए कई धनकुबेरों के पास अपने अलावा सरकार के संसाधन भी होते हैं. इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है. अमेरिका में राजस्व से जुड़े कानून इस तरह के हैं कि एमेजॉन को 2017 और 2018 में कुछ भी टैक्स नहीं देना पड़ा जबकि इस अवधि में उसका घरेलू लाभ दोगुना होकर 11 अरब डॉलर हो गया. 2019 में उसने टैक्स के रूप में सिर्फ 16.2 करोड़ डॉलर चुकाए जो उस साल कंपनी की कमाई का महज 1.2 फीसदी था. यही नहीं, आंकड़े बताते हैं कि 1980 से अरबपतियों द्वारा दिए जाने वाले टैक्स में 79 फीसदी की कमी आई है. और यह कमी सिर्फ उन कानूनी उपायों के जरिये आई है जिनका इस्तेमाल अमीर लोग टैक्स देने से बचने के लिए करते हैं. एक अनुमान के मुताबिक दुनिया की 10 फीसदी जीडीपी के बराबर रकम धनकुबेरों ने टैक्स बचाने के लिहाज से स्वर्ग कहे जाने वाले देशों में रखी हुई है.
ये संकेत ठीक नहीं हैं. जानकारों के मुताबिक अमीरों का और अमीर और गरीबों का और गरीब होते जाना बताता है कि पूंजीवाद ठीक से काम नहीं कर रहा. कुछ समय पहले रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने चेतावनी दी थी कि पूंजीवाद खतरे में है क्योंकि आम लोगों को उसका लाभ मिलना बंद हो गया है. उनके मुताबिक समाज में बढ़ रही असमानता की अनदेखी नहीं की जा सकती. दूसरे जानकार मानते हैं कि संपत्ति का इस हद तक चंद लोगों के हाथों में चला जाना नैतिक रूप से तो गलत है ही, आर्थिक और सामाजिक लिहाज से भी इसके विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं. चर्चित थिंक टैंक हाइ पे सेंटर के कार्यकारी निदेशक ल्यूक हिलयार्ड द गार्डियन के साथ बातचीत में कहते हैं, ‘अरबपतियों के पास इतनी संपत्ति है कि वे कई जन्मों तक चरम विलासिता वाली जिंदगी जिएं तो भी ये खत्म नहीं होगी. अगर कोई इतना पैसा कमा रहा है तो वह आराम से उन कर्मचारियों की तनख्वाह भी बढ़ा सकता है जो ये दौलत पैदा करते हैं. या फिर वह टैक्स में कहीं ज्यादा योगदान कर सकता है ताकि सरकार जनता को मिलने वाली सुविधाओं को बेहतर बना सके.’ ल्यूक आगे कहते हैं कि इससे इन अमीरों का कुछ नहीं घटेगा. लेकिन अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक कल्याण के लिए देने वाले बिल गेट्स और वॉरेन बफे जैसे नामों को छोड़ दें तो ज्यादातर धनकुबेर इस मोर्चे पर पर बहुत पीछे दिखते हैं.
रघुराम राजन जैसे कई लोग मानते हैं कि अगर अमीर-गरीब के बीच की यह खाई बढ़ती गई तो इसके नतीजे में सामाजिक अस्थिरता बढ़ेगी. कुछ जानकारों के मुताबिक ऐसे ही चलता रहा तो इन अरबपतियों का समाज की नजर में खलनायक बनना तय है और भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में यह दिखने भी लगा है. धनकुबेरों को निवेश संबंधी सलाह देने वाले यूबीएस के एक विभाग के मुखिया जोसेफ स्टैडलर कहते हैं, ‘हम एक अहम मोड़ पर हैं. दौलत के सिकुड़कर मुट्ठी भर लोगों के हाथ में चले जाने के लिहाज से हम लौटकर वहीं आ गए हैं जहां 1905 में थे.’ उनके मुताबिक अब देखने वाली बात ये है कि ऐसा कब तक चलेगा और किस मोड़ पर समाज इसके खिलाफ निर्णायक प्रतिक्रिया करेगा.
क्या इस प्रक्रिया को रोका जा सकता है? चर्चित अमेरिकी थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर पॉलिसी स्टडीज की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक इसके लिए कई कदम उठाने की जरूरत है. मसलन ऐसे नियम बनाए जाएं जिससे धनकुबेर कागजी कंपनियां बनाकर अपनी कमाई छिपा न सकें. साथ ही अमीरों पर अलग से टैक्स लगाया जाए और उस अर्थव्यवस्था को बंद किया जाए जो दुनिया में गोपनीय तरीके से चलती है. अकेले अमेरिका से ही हर साल करीब 200 अरब डॉलर टैक्स का स्वर्ग कहे जाने वाले देशों में चले जाते हैं. यह रकम उस पैसे से करीब तीन गुना ज्यादा है जो अमेरिकी सरकार ने 2021 में शिक्षा क्षेत्र के लिए आवंटित किया है. ऑक्सफैम ने भी अपनी रिपोर्ट में अमीरों पर फिर से विशेष टैक्स लगाने जैसे कई सुझाव दिए हैं.
लेकिन अगर ऐसा नहीं हो और मौजूदा चलन जारी रहता है तो क्या होगा? बहुत से जानकार मानते हैं कि ऐसे में दुनिया फिर से मध्ययुग और सामंतवाद की तरफ जा सकती है. उनके मुताबिक वह एक ऐसी दुनिया होगी जहां मुठ्ठी भर लोग शीर्ष वकीलों, अकाउंटेंटों और मैनेजरों की मदद से दुनिया चला रहे होंगे और मामूली आय पर काम करने वाला आबादी का एक बड़ा हिस्सा शोषण सहते हुए किसी तरह जी रहा होगा.
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