गांधी और नेहरू मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के बारे में क्या कहते थे?

अव्यक्त

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के बारे में काफी विस्तार से लिखा है

भारतीय इतिहास के एक महान ‘राष्ट्रवादी’ और देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि उनका जन्म सऊदी अरब के मक्का में हुआ था. आज़ाद जब दो साल के थे तभी उनके पिता कलकत्ते में आ बसे. आज़ाद का परिवार कई पीढ़ियों से आज़ादीपसंद विद्वानों का परिवार रहा था और इसलिए शहंशाहों से उनके परिवार का संबंध बहुत अच्छा नहीं रहा था. उदाहरण के लिए, उनके पूर्वजों में से एक मौलाना जमालुद्दीन उर्फ देहली के शेख बहलोल सम्राट अकबर के समकालीन थे. और जब अकबर ने दीन-ए-इलाही नाम का नया धर्म चलाने की कोशिश की, तो मौलाना जमालुद्दीन ने उस मसौदे पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. मौलाना जमालुद्दीन के बेटे शेख मोहम्मद ने अपने पिता की तरह ही जहांगीर के सामने झुकने से इनकार कर दिया, जिसकी वजह से उन्हें ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया. मौलाना आज़ाद खुद को उसी परंपरा का मानते थे और अंग्रेजों के प्रति उनका रवैया भी वैसा ही रहा.

शेरो-शायरी और गज़लगोई का शौक अबुल कलाम को युवावस्था से ही था. ‘आज़ाद’ उनका तखल्लुस था. कहा जाता है कि यह तखल्लुस उन्होंने इसलिए भी रखा था ताकि वर्णक्रम के अनुसार छपने वाले कविता संग्रहों में उनका नाम और उनकी रचना पहले आ सके. उनकी शुरुआती रचनाएं ‘अरमुग़ान-ए-फारुख़’ और ‘ख़दंग-ए-नज़र’ जैसी पत्रिकाओं में छपीं. तेरह साल की उमर में ही आज़ाद का निकाह ज़ुलैखा बेग़म से हो गया. ‘हसीन’ नाम का उनका बेटा जो उनकी इकलौती संतान था, वह चार साल की उमर में चल बसा. 1942 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बंबई में हंगामेदार अधिवेशन चल रहा था, और आज़ाद उसकी अध्यक्षता करने के लिए घर से निकल रहे थे, तो उनकी पत्नी बहुत ज्यादा बीमार थीं. बाद में जब आज़ाद गिरफ़्तार हुए और उन्हें अहमदनगर किले में कैद कर दिया गया, उसी दौरान उनकी पत्नी का निधन हो गया. गांधी, नेहरू और आज़ाद सरीखों ने आज़ादी की लड़ाई में अपने पारिवारिक जीवन के स्तर पर जो कुर्बानियां दीं, वे हमें अक्सर याद नहीं रहतीं.

महात्मा गांधी के सहयोगी महादेव देसाई ने मौलाना आज़ाद पर 1940 में अंग्रेजी में एक किताब लिखी थी. किताब का नाम था- ‘मौलाना अबुल कलाम आज़ाद’. यह एक संस्मरणात्मक जीवनी जैसी थी. महादेव देसाई ने गांधीजी से अनुरोध किया कि वे इस किताब की प्रस्तावना में मौलाना आज़ाद के बारे में दो शब्द लिख दें. 18 मई, 1940 को सेवाग्राम में गांधीजी ने मौलाना आज़ाद के बारे में लिखा – ‘मुझे 1920 से ही राष्ट्रीय कार्य के सिलसिले में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के संपर्क में रहने का सौभाग्य प्राप्त रहा है. इस्लाम का जितना ज्ञान उन्हें है, उससे अधिक किसी को नहीं होगा. वे अरबी के उद्भट विद्वान हैं. उनकी जितनी दृढ़ श्रद्धा इस्लाम में है, उतनी ही दृढ़ श्रद्धा राष्ट्रवादिता में भी है. और आज वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर्वोच्च पद पर आसीन हैं, इसका एक गहरा अर्थ है, जिसकी उपेक्षा भारतीय राजनीति के किसी भी अध्येता को नहीं करनी चाहिए.’

लेकिन यदि हमें मौलाना आज़ाद की शख्सियत का सबसे प्रामाणिक और सबसे गहरा विश्लेषण पढ़ना हो, तो वह जवाहरलाल नेहरू की प्रसिद्ध किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में ही मिल सकता है. इस किताब को लिखने के दौरान आज़ाद भी नेहरू के ही साथ अहमदनगर किले में कैद थे. नेहरू ने मौलाना आज़ाद के बारे में लिखा था – ‘हिंदुस्तान के मुसलमानी दिमाग़ की तरक्क़ी में सन् 1912 भी एक ख़ास साल है, क्योंकि उसमें दो नए साप्ताहिक निकलने शुरू हुए. उनमें से एक तो ‘अल-हिलाल’ था, जो उर्दू में था और दूसरा अंग्रेज़ी में ‘दि कॉमरेड’ था. ‘अल-हिलाल’ को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (कांग्रेस के वर्तमान सभापति) ने चलाया था. वे एक चौबीस बरस के नौजवान थे. उनकी शुरू की पढ़ाई लिखाई क़ाहिरा में अल-अज़हर विश्वविद्यालय में हुई थी और जिस वक़्त वे पंद्रह और बीस बरस के ही बीच में थे, उसी वक़्त अपनी अरबी और फ़ारसी की क़ाबिलियत के लिए मशहूर हो गए थे. इसके अलावा उन्हें हिंदुस्तान के बाहर की इस्लामी दुनिया की अच्छी जानकारी थी और उन सुधार-आंदोलनों का पूरा पता था जो वहां पर चल रहे थे. साथ ही उन्हें यूरोपीय मामलों की भी अच्छी जानकारी थी.’

नेहरू ने आगे लिखा है – ‘मौलाना आज़ाद का नज़रिया बुद्धिवादी था और साथ ही इस्लामी साहित्य और इतिहास की उन्हें पूरी जानकारी थी. उन्होंने इस्लामी धर्मग्रंथों की बुद्धिवादी नज़रिए से व्याख्या की. इस्लामी परंपरा से वे छके हुए थे और मिस्त्र, तुर्की, सीरिया, फ़िलिस्तीन, इराक और ईरान के मशहूर मुस्लिम नेताओं से उनके ज़ाती ताल्लुक़ात थे. इन देशों के इख़लाकी और राजनैतिक हालात का उनपर बहुत ज़्यादा असर था. अपने लेखों की वजह से इस्लामी देशों में अन्य किसी हिंदुस्तानी मुसलमान की अपेक्षा वे ज़्यादा प्रसिद्ध थे. उन लड़ाइयों में, जिनमें कि तुर्की फंस गया था, उनकी बेहद दिलचस्पी हुई, और उनकी हमदर्दी तुर्की के लिए सामने आई. लेकिन उनके ढंग और नज़रिए में और दूसरे बुज़ुर्ग मुसलमान नेताओं के नज़रिए में फ़र्क़ था.’

‘मौलाना आज़ाद का नज़रिया विस्तृत और तर्कसंगत था और इसकी वजह से न तो उनमें सामंतवाद था और न संकरी धार्मिकता और न ही सांप्रदायिक अलहदगी. इसने उनको लाज़िमी तौर पर हिंदुस्तानी क़ौमियत का हामी बना दिया. उन्होंने तुर्की में और दूसरे इस्लामी देशों में क़ौमियत की तरक्क़ी को ख़ुद देखा था. उस जानकारी का उन्होंने हिंदुस्तान में इस्तेमाल किया और उन्हें हिंदुस्तानी क़ौमी आंदोलन का वही रुख़ दिखाई दिया. हिंदुस्तान के दूसरे मुसलमानों को इन देशों के आंदोलनों की शायद ही जानकारी रही हो और वे अपने सामंती वातावरण में घिरे रहे. वे सिर्फ़ मज़हबी नज़र से चीज़ों को देखते थे और तुर्की के साथ उनकी हमदर्दी सिर्फ धर्म के नाते थी. ये मजहबी मुसलमान तुर्की के साथ अपनी ज़बरदस्त हमर्ददी के बावजूद तुर्की की क़ौमी और ग़ैरमजहबी तहरीक़ों के साथ न थे.’

मौलाना आज़ाद अव्वल दर्जे के पत्रकार और प्रखर संपादक के रूप में भी जाने जाते रहे. नेहरू ने आज़ाद की पत्रकारिता पर भी विस्तार से लिखा है. उनकी साप्ताहिक पत्रिका ‘अल-हिलाल’ के बारे में नेहरू लिखते हैं -‘अबुल कलाम आज़ाद ने अपने हफ़्तेवार रिसाले ‘अल-हिलाल’ में एक नई भाषा में बात की. वह भाषा सिर्फ़ नज़रिए या विचार के लिहाज से ही नई नहीं थी, बल्कि उसका गठन भी दूसरे ढंग का था. उसकी वजह यह थी कि आज़ाद की शैली में ज़ोर था, मर्दानगी थी और फ़ारसी पृष्ठभूमि के कारण कभी-कभी वह समझने में मुश्किल होती थी. उन्होंने नए विचार के लिए नई शब्दावली का इस्तेमाल किया और उर्दू भाषा आज जैसी भी है, उसको बनाने में एक निश्चित असर डाला. मुसलमानों के पुराने कट्टरपंथी नेताओं में इस सबके लिए अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं हुई और उन्होंने आज़ाद के विचारों और उनके नज़रिये की आलोचना की. लेकिन उनमें से क़ाबिल-से-क़ाबिल लोग भी आज़ाद से बहस या दलील में, यहां तक कि धर्म-ग्रंथों और पुरानी परंपरा की बुनियाद पर भी, आसानी से टक्कर नहीं ले सकते थे. वजह यह थी कि इन चीज़ों के बारे में उनके मुक़ाबले में आज़ाद की जानकारी ज़्यादा थी. उन्हें मध्य-युग के इल्म, अठारहवीं सदी के तर्कवाद और मौजूदा ज़माने के नज़रिये का एक अजीब मेल था.’

नेहरू ने आज़ाद के बारे में आगे लिखा है – ‘पुरानी पीढ़ी के कुछ ऐसे लोग थे, जिन्होंने आज़ाद के लेखों को पसंद किया. इनमें एक तो मौलाना शिबली नूमानी थे, जो खुद तुर्की घूमकर आए थे और अलीगढ़ कॉलेज के सिलसिले में सर सैयद अहमद खां के साथ थे. जो भी हो, अलीगढ़ कॉलेज की परंपरा बिल्कुल जुदा और राजनैतिक तथा सामाजिक दोनों ही नज़रिये से अनुदार थी. उसके ट्रस्टी नवाब और ज़मींदार थे, जो सामंती ढांचे के ही नुमाइंदे थे. एक के बाद दूसरे ऐसे अंग्रेज़ प्रिंसिपलों के अधीन रहकर, जो सरकारी हलक़ों से नज़दीकी ताल्लुक रखते थे, इसमें अलहदगी के रुझान ने तरक्क़ी की और क़ौमियत के ख़िलाफ़ और कांग्रेस के ख़िलाफ़ नज़रिया कायम किया. …अबुल कलाम आज़ाद ने कट्टरता और क़ौमियत-विरोधियों के इस गढ़ पर हमला किया. सीधे तौर पर नहीं, बल्कि ऐसे विचारों का प्रचार करके, जो अलीगढ़ की परंपरा को ही खोखला कर देते. मुसलमानों के बुद्धिजीवी लोगों के दायरे में इस नौजवान लेखक और संपादक ने हलचल मचा दी. नई पीढ़ी के दिमाग़ में उनके शब्दों से एक उबाल पैदा हुआ.’

‘…ब्रिटिश सरकार के नुमाइंदों ने ‘अल-हिलाल’ को पसंद नहीं किया. प्रेस एक्ट के मातहत उससे ज़मानत मांगी गई और आख़िर सन् 1914 में उसका प्रेस जब्त कर लिया गया. इसके बाद आज़ाद ने एक दूसरा साप्ताहिक ‘अल-बलाग़’ निकाला, लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा आज़ाद को क़ैद किए जाने पर यह भी सन् 1916 में ख़त्म हो गया. चार साल तक वह क़ैद में रखे गए और जब बाहर आए, तो उन्होंने फौरन ही इंडियन नेशनल कांग्रेस के नेताओं में अपनी जगह हासिल कर ली. तबसे वे बराबर कांग्रेस की ऊंची कार्यकारिणी में रहे, और उस वक़्त कम उम्र के होते हुए भी वे कांग्रेस के बड़ों में गिने गए. क़ौमी और राजनैतिक मामलों के साथ ही सांप्रदायिक या अल्पसंख्यक समस्या के सिलसिले में उनकी सलाह की बहुत क़द्र की जाती है. दो बार वे कांग्रेस के सभापति रहे हैं और कई बार उन्होंने लंबी मुद्दतें जेल में बिताई हैं.’

इतना विस्तार से लिखा है नेहरू में आज़ाद के बारे में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में. भारत में राष्ट्रवाद या क़ौमियत के बारे में छिड़ी नई बहसों को देखते हुए मौलाना आज़ाद जैसी शख्सियतों के बारे में पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत है. अबुल कलाम आज़ाद एक विवेकवान और सच्ची रूहानियत में यक़ीन रखने वाले मौलाना थे जिसे संकरी धार्मिकता और सांप्रदायिक अलहदगी जैसी बीमारियां कभी छू नहीं सकीं. ये बीमारियां हमें भी न ही छुएं, तो बेहतर है. आख़िर शारीरिक, दिमाग़ी और रूहानी तौर पर स्वस्थ और तंदुरुस्त रहना कौन नहीं चाहता!

सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/122239/maulana-abul-kalam-azad-work-profile

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