इन नियमों में जो शब्दावली उपयोग की गई है, उसके चलते नए आईटी नियमों की देश में लागू 2 बेहद विवादित और दमनकारी क़ानूनों से तुलना स्वाभाविक हो गई है। ट्विटर और वॉट्सऐप के साथ जारी मौजूदा विवाद के बीच केंद्र ने आईटी एक्ट के तहत नए नियम निकाल दिए हैं। इन नियमों से सोशल मीडिया और ओटीटी प्लैटफॉर्म्स की नुकसानदेह सामग्री (कंटेंट) से निपटने की जवाबदेही बढ़ गई है। सिद्धार्थ गांगुली लिखते हैं कि इन नियमों में जिन खास शब्दों का जिक्र किया गया है, उनका मेल देश में लागू दो दमनकारी और विवादित क़ानूनों से होता है।
25 फरवरी, दिन गुरूवार को सरकार ने आईटी एक्ट के तहत ‘इंटरमीडियरी गाइडलाइन्स एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड’ नाम के नए नियमों की संसूचना जारी की। इन नियमों के ज़रिए सोशल मीडिया और ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स के लिए कई दिशानिर्देश दिए गए हैं, जिससे इन कंपनियों की सरकार और नियामक एजेंसियों के प्रति जवाबदेही ज़्यादा बढ़ गई है।
नियमों के तहत कंपनी को आईटी एक्ट का पालन सुनिश्चित करने के लिए ‘चीफ कंप्लायंस ऑफिसर’ की नियुक्ति और क़ानूनी एजेंसियों के साथ सतत् समन्वय बनाने के लिए ‘नोडल कांटेक्ट पर्सन’ की नियुक्ति करनी होगी। साथ ही हर महीने एक रिपोर्ट जमा करनी होगी, जिसमें 30 दिनों में लोगों द्वारा दर्ज की गई शिकायतें और विवादित सामग्री को हटाने के लिए उठाए गए कदमों के बारे में बताना होगा।
इन सभी नियमों से सरकारी अधिकारियों का डिजिटल मीडिया पर एक या दूसरे तरीके से नियंत्रण बढ़ता है। लेकिन इन नियमों की कथित ‘मुख्य विशेषताओं’ में दो ऐसे बिंदु हैं, जो इनके गलत उपयोग की संभावना के चलते पूरी सूची से अलग नज़र आते हैं।
परेशान करने वाले दो बिंदु
पहला बिंदु उन सोशल मीडिया कंपनियों के बारे में है, जो मुख्यत: संदेशों के आवागमन पर काम करती हैं। नए नियम के तहत इन कंपनियों को ‘जानकारी के प्रथम उद्भव की पहचान को बताना होगा’ ताकि प्रशासन “भारत की अखंडता और संप्रभुता, राष्ट्र की सुरक्षा, विदेशी देशों के साथ मित्रवत् संबंधों और क़ानून-व्यवस्था को बरकरार रखने” के लिए संबंधित व्यक्ति तक पहुंच सके और उसे उसके अपराधों के लिए सजा दे सके।
दूसरा बिंदु इन मैसेजिंग कंपनियों की “गैरक़ानूनी जानकारी हटाने की जवाबदेही” से संबंधित है। नियम कहता है कि कोर्ट के आदेश, किसी सरकारी एजेंसी या किसी नियुक्त अधिकारी की मांग या आदेश के बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को किसी ऐसी जानकारी को हटाना होगा, जो “भारत की संप्रभुता और अखंडता, सार्वजनिक क़ानून व्यवस्था, विदेशी देशों के साथ मित्रवत् संबंधों और ऐसी ही किसी चीज के चलते किसी क़ानून द्वारा प्रतिबंधित होगी।”
गैरक़ानूनी जानकारी हटाने वाले नियम तो ज़्यादा आगे बढ़ते नज़र आते हैं, इनके ज़रिए केंद्रीय अधिकारियों को यह तय करने का अधिकार मिल जाएगा कि कौन सी सामग्री या जानकारी उनके हिसाब से गैरक़ानूनी है। इस तरह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर सामग्री का प्रकाशन सीधी तरह केंद्र के नियंत्रण में आ जाएगा।
किसी सोशल मीडिया कंपनी को समस्याग्रस्त संदेश के उद्भव स्त्रोत के बारे में जवाबदेह बनाकर व्यक्तिगत निजता को ख़तरे में डाला जा रहा है। इस आलोचना से बचने के लिए नियम कहता है कि “इंटरमीडियरी कंपनी को संदेश की सामग्री का खुलासा नहीं करना है”। लेकिन किसी संदेश की सामग्री के खुलासे के बगैर यह कैसे तय किया जा सकता है कि उससे भारत की संप्रभुता और अखंडता को नुकसान पहुंच रहा है। इससे नियमों में संदेश का खुलासा ना करने वाली बात नकली नज़र आती है।
यहां और भी चीजें हैं। सामग्री के वर्गीकरण में ‘भारत की अखंडता और संप्रभुता’, और ‘सार्वजनिक क़ानून व्यवस्था’ जैसे वाक्यांशों का जिस तरीके से उपयोग हुआ है, वह देश के दो कुख्यात क़ानूनों- IPC की धारा 124-A के तहत राजद्रोह और UAPA से भयावह तरीके से मेल खाता है।
दो कुख्यात क़ानून
पूरे देश में असहमति को कुचलने के लिए UAPA और राजद्रोह के क़ानून का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है। अप्रैल, 2020 में जेएनयू के पूर्व शोधार्थी उमर खालिद के साथ दूसरे प्रदर्शनकारियों को नागरिकता संशोधन अधिनियम में हिस्सा लेने के चलते UAPA के तहत गिरफ़्तार किया गया था। इस साल जनवरी में देश के कुछ प्रमुख पत्रकारों पर किसान आंदोलन से संबंधित कुछ ट्वीट्स करने के चलते राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया है। हाल में 22 साल की दिशा रवि को किसान आंदोलन से संबंधित ‘टूलकिट मामले’ के चलते 14 फरवरी को गिरफ़्तार कर लिया गया था।
इन दमनकारी क़ानूनों की न्यायपालिका से लेकर विपक्ष ने तक आलोचना की है।
वाक्यांश ‘भारत की संप्रभुता और अखंडता’ और ‘सार्वजनिक क़ानून व्यवस्था’ ना केवल राजद्रोह के क़ानून और UAPA में मौजूद है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता पर लगाए गए युक्तियुक्त प्रतिबंधों में भी इसका जिक्र है। इस तरह इस वाक्यांश का उपयोग अकसर असहमत आवाज़ों को दबाने के लिए किया जाता है।
दिल्ली हाईकोर्ट वीमेन्स लॉयर्स फोरम ने फरवरी की शुरुआत में ‘असहमति का हमारा अधिकार’ नाम के शीर्षक से एक आभासी चर्चा की थी। इसमें वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने बताया था कि कैसे UAPA का इस्तेमाल कर असहमत आवाजों को दबाया जा रहा है, यह वह आवाज़ें हैं, जो केंद्र को उसकी कार्रवाइयों के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं।
इसी कार्यक्रम में मौजूद वकील और लेखक चित्रांशुल सिन्हा ने कहा था, “अब वक़्त आ गया है कि IPC की धारा 124 को फिर से चुनौती दी जाए। हमें अपने मत को व्यक्त करने के लिए इस जगह की जरूरत है।” अपनी किताब “द ग्रेट रिप्रेशन” में सिन्हा आगे विस्तार में जाती हैं और राजद्रोह के क़ानून को ‘औपनिवेशिक अवशेष’ करार देती हैं, जिसका इस्तेमाल सिर्फ़ आपात स्थिति में ही किया जाना चाहिए।
भारत द्वारा राजद्रोह का जिस तरीके से गलत उपयोग किया जा रहा है, उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आलोचना हुई है। 27 फरवरी को ‘यूनाईटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर ह्यूमन राइट्स’ मिशेल बाशलेट ने भारत की अपने पत्रकारों और असहमत आवाजों पर राजद्रोह लगाने की त्वरित प्रवृत्ति की आलोचना की थी।
दमन अब आम नियम बनता जा रहा है
पिछले कुछ सालों में राजद्रोह के क़ानून और UAPA के तहत दायर होने वाले मामले आम होते जा रहे हैं। NCRB के आंकड़ों के मुताबिक़, 2019 में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए। 2018 में 70, 2017 में 51, 2016 में 35 मामले दर्ज किए गए थे। इस तरह तीन साल में इन मामलों में 165 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हो गई।
इसी तरह 2019 में UAPA के तहत 1,226, 2018 में 1,182 और 2017 में 901 मामले दर्ज किए गए। इस क़ानून का बढ़ता इस्तेमाल इसलिए भी चिंताजनक है, क्योंकि इस क़ानून को आंतकरोधी माना जाता है और इससे अधिकारियों को बिना चार्ज के 180 दिन तक किसी व्यक्ति को हिरासत में रखने का अधिकार मिलता है।
2019 में किए गए संशोधन से किसी व्यक्ति की पुलिस कस्टडी को 30 दिन तक और बढ़ाए जाने का अधिकार मिल गया है। इस संशोधन के बाद अब केंद्र किसी आरोपी को बिना ट्रायल के ही “आतंकी” करार दे सकता है। इस तरह के क़ानून से लोकतंत्र के एक केंद्रीय तत्व- असहमति का जोरदार ढंग से दमन होता है।
ऊपर से UAPA या राजद्रोह के मामले में दोषी सिद्ध होने की दर बेहद कम है। द प्रिंट की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2019 में राजद्रोह के केवल 17 फ़ीसदी मामलों में ही चार्जशीट दाखिल की गई। वही दोषसिद्धी दर तो महज़ 3.3 फ़ीसदी ही रही। इसी तरह 2019 में UAPA के तहत दर्ज मामलों में केवल 9 फ़ीसदी में ही चार्जशीट दाखिल की गई, वहीं दोषसिद्धि दर 29.2 फ़ीसदी रही।
इन दो क़ानूनों में जो मामले दर्ज किए जाते हैं, वे कोर्ट में नहीं टिकते। इनका मकसद किसी को दोषी सिद्ध करना ही नहीं है। बल्कि इनके ज़रिए प्रशासन के खिलाफ़ उठने वाली आवाज़ों का दमन किया जाता है, आवाज उठाने वालों को गिरफ़्तारी, हिरासत और कोर्ट में खुद का बचाव करने से उपजने वाली प्रताड़ना और ट्रामा को भोगने पर मजबूर किया जाता है।
लगातार दायर हो रहे मामले
बड़े स्तर की आलोचना के बावजूद भी इन क़ानूनों के तहत लगातार मामले दर्ज किए जा रहे हैं। ‘सार्वजनिक क़ानून व्यवस्था’ और ‘भारत की संप्रभुता और अखंडता’ जैसे वाक्यांशों का उपयोग कर इन कार्रवाईयों का बचाव किया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट के जज रहे जस्टिस मदन लोकुर ने द वायर के लिए लिखे लेख में इन विशेष शब्दावलियों की अर्थपूर्ण व्याख्या की है। 1975 से 1977 के बीच इंदिरा गांधी के दमनकारी शासन से तुलना करते हुए उन्होंने लिखा, “अब धीरे-धीरे वैसी ही स्थिति बनती देख रहे हैं। अंतर बस इतना है कि आपातकाल के दौर में भारत की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को ख़तरा होता था और आज ख़तरा भारत की अखंडता और संप्रभुता को है।”
आईटी एक्ट के तहत संसूचित नए नियम भारत में डिजिटल क्षेत्र के ऊपर सरकारी नियंत्रण का विस्तार करते हैं। इन चिर-परिचित वाक्यांशों का इन नियमों में उपयोग किए जाने से सवाल उठता है कि क्या आईटी एक्ट अब अपने खिलाफ़ उठने वाली असहमति की आवाज़ों को कुचलने के लिए केंद्र का नया क़ानून होगा?
(सिद्धार्थ गांगुली सिम्बॉयसिस इंस्टीट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड कम्यूनिकेशन में पत्रकारिता के छात्र हैं। वे द लीफ़लेट के साथ इंटर्न हैं। यह उनके निजी विचार हैं।) लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था। सौजः न्यूजक्लिक
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।