राजनीतिक लोकतंत्र की बजाए, सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में भी काम करना होगा- बाबा साहेब आंबेडकर

डॉ.भीमराव आंबेडकर ( 14 अप्रैल 1891- 6 दिसंबर 1956) । बाबा साहेब आंबेडकर एक विश्वस्तर के संविधानवेत्ता , कानूनविद,राजनीतिज्ञ,अर्थशास्त्री और समाज पुनरुत्थानवादी होने के साथ-साथ, भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार भी थे। अपनी सारी जिंदगी भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष में बिताने वाले डॉ. आंबेडकर को भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया है। संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में डॉ. आँबेडकर की तीन चेतावनियाँ आज भी प्रासंगिक लगती  हैं । 25 नवंबर, 1949 के दिन उन्होंने अराजकता के व्यवहार को छोड़ने, नायकों की पूजा से बचने, और सिर्फ़ राजनीतिक लोकतंत्र की दिशा में काम करने के बजाए, सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में भी काम करने की बात कही। आज प्रस्तुत हैं उनके भाषण के संपादित अंश : संपादक

26 जनवरी 1950 को, भारत एक स्वतंत्र देश होगा। उसकी स्वतंत्रता का क्या होगा? क्या वह अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखेगा या फिर वह इससे खो जाएगी? यह पहला विचार है जो मेरे दिमाग़ में आता है। ऐसा नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। मुद्दा यह है कि वह एक बार अपनी स्वतंत्रता खो चुका है। क्या वह इसे दूसरी बार भी खो देगा? यह ऐसा विचार है जो मुझे भविष्य के लिए सबसे अधिक चिंतित करता है।

क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह ऐसा विचार है जो मुझे चिंतित करता है। यह चिंता इस तथ्य के बोध से और अधिक गहरी है कि जाति और पंथ के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त, हमारा साथ बहुत से राजनीतिक दलों व उनके विविध एवं विरोधी राजनैतिक पंथों के साथ भी जुड़ने जा रहा है। क्या भारतीय अपने देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे देश के ऊपर पंथ स्थापित करेंगे? मुझे नहीं पता। लेकिन यह बहुत निश्चित है कि यदि दलों ने देश से ऊपर पंथ स्थापित किया, तो हमारी स्वतंत्रता को दूसरी बार संकट में डाल दिया जाएगा और संभवत: यह हमेशा के लिए खो जाएगी। इस परिस्थिति में हम सभी को दृढ़ता से हमारे रक्त की आख़िरी बूँद के साथ हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए।

26 जनवरी 1950 को, भारत इस अर्थ में एक लोकतांत्रिक देश होगा कि उस दिन से भारत में जनता की सरकार, जनता के द्वारा और जनता के लिए होगी। वही विचार मेरे मन में आता है कि उसके लोकतांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह इसे बनाए रखने में सक्षम होगा या फिर वह इससे खो जाएगा? यह दूसरा विचार है जो मेरे दिमाग में आता है और मुझे पहले की तरह चिंतित करता है।

बाबा साहेब आंबेडकर की तीन चेतावनियां :

यदि हम लोकतंत्र को केवल एक रूप में बनाए रखने के बजाए उसे एक तथ्यात्मक रूप देना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिए?

मेरे विचार में सबसे पहले हमें सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीकों को मजबूती से पकड़कर इन्हें पूरा करना चाहिए। इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को छोड़ देना चाहिए। और इसका मतलब यह है कि हमें सामाजिक अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह की विधि को छोड़ देना चाहिए। जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ा गया था, तो असंवैधानिक तरीकों के लिए पर्याप्त औचित्य था। लेकिन जहाँ संवैधानिक तरीके खुले हैं, इन असंवैधानिक तरीकों के लिए कोई औचित्य नहीं हो सकता है। ये विधियाँ अराजकता के व्याकरण के अलावा कुछ भी नहीं हैं और जितनी जल्दी वे छोड़ दी जाती हैं, उतना ही हमारे लिए बेहतर है।

दूसरा हमें ‘जॉन स्टुअर्ट मिल’ के उस कथन को अवश्य याद रखना चाहिए जो उन्होंने लोकतंत्र के रखरखाव में दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों को सावधानी बरतने के लिए दिया है कि “किसी भी महान व्यक्ति के पैरों पर अपनी आज़ादी न रखें, और न ही उस पर इतना विश्वास करें जो उसे आपके संस्थानों को नष्ट करने में सक्षम बनाता है।” उन महान पुरुषों के लिए आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है, जिन्होंने देश के लिए अपने अपने पूरे जीवनकाल भर सेवाएँ दी हैं। लेकिन कृतज्ञता की भी सीमाएं हैं। जैसा कि ‘आयरिश पैट्रियट डैनियल ओ कोनेल’ ने कहा है “कोई भी व्यक्ति अपने सम्मान के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई भी स्त्री उसकी पवित्रता के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।” यह सावधानी किसी भी अन्य देश के मामले की तुलना में भारत के मामले में कहीं अधिक आवश्यक है। भारत में भक्ति, भक्ति मार्ग या नायक-पूजा दुनिया में किसी भी अन्य देश की तुलना में राजनीति में अप्रत्याशित एवं अद्वितीय भूमिका निभाती है। धर्म में भक्ति आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकता है लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा गिरावट और तानाशाही के लिए एक निश्चित मार्ग है।

तीसरा, हमें केवल राजनीतिक लोकतंत्र के साथ संतुष्ट नहीं होना है। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को भी एक सामाजिक लोकतंत्र बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक सही ढंग से सक्रिय और सक्षम नहीं हो सकता जब तक कि इसमें सामाजिक लोकतंत्र का आधार न हो।

क्या है सामाजिक लोकतंत्र :

सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? यह जीवन का एक साधन है जो जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और आपसी बंधुत्व को पहचानता है। स्वतंत्रता, समानता और आपसी बंधुत्व के इन सिद्धांतों को अलग-अलग चीज़ों के रूप में नहीं माना जा सकता। वे एक संघ के रूप में कार्य करते हैं कि एक को दूसरे से अलग कर देना अर्थात् लोकतंत्र के उद्देश्य को हराना है।

स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता है, समानता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है और न ही इन दोनों को आपसी बंधुत्व से अलग किया जा सकता है। समानता के बिना स्वतंत्रता, कई लोगों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता को जन्म देगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्ति की पहल को मार देगी। आपसी बंधुत्व के बिना भी स्वतंत्रता कई लोगों पर कुछ की सर्वोच्चता को जन्म देगी। आपसी बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता प्राकृतिक चीज़ें नहीं बन पाएँगी और तब उन्हें लागू करने के लिए किसी ताकत की आवश्यकता पड़ेगी।

हमें इस तथ्य को स्वीकार करते हुए आरम्भ करना चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीज़ों का पूर्ण अभाव है इनमें से एक है – समानता। भारत की सामाजिक पृष्ठभूमि में वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत के आधार पर एक समाज है जिसमें एक तरफ कुछ ऐसे लोग हैं जिनके पास बहुत अधिक धन है और दूसरी तरफ काफी ऐसे लोग भी हैं जो बहुत गरीबी में जी रहे हैं।

26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक जीवन में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक मत के सिद्धांत और एक मत-एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे जबकि हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम, हमारे सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के कारण, एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धांत से इनकार करते रहेंगे। कब तक हम विरोधाभासों के इस जीवन को जीना जारी रखेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता से इन्कार करते रहेंगे? यदि हम इसे लंबे समय तक अस्वीकार करते हैं, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ऐसा करेंगे। हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द संभवतः दूर करना चाहिए अन्यथा असमानता से पीड़ित लोग उस राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को ही ख़त्म कर देंगे जो संसद को श्रमसाध्य रूप से निर्मित करना है।

दूसरी बात जिसे हम चाहते हैं, वह है – आपसी बंधुत्व के सिद्धांत की मान्यता। बंधुत्व का क्या अर्थ है? बंधुत्व का अर्थ है सभी भारतीयों के भीतर भाईचारे की भावना। यह वह सिद्धांत है जो सामाजिक जीवन को एकता और मज़बूती प्रदान करता है। यह हासिल करना एक मुश्किल काम है। यह कितना मुश्किल है, इसे ‘जेम्स ब्रीसे’ द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के बारे में अमेरिकी कॉमनवेल्थ पर अपने वॉल्यूम में दी गई संबंधित कहानी से महसूस किया जा सकता है। मैं खुद ब्रीसे के शब्दों में इस कहानी को बताने का प्रयास करता हूँ :

“कुछ साल पहले अमेरिकन प्रोटेस्टेंट एपिस्कोपल चर्च को अपने ग्रंथों में संशोधन के लिए उसके त्रैवार्षिक सम्मेलन में अधिकृत कर लिया गया था। उस समय शॉर्ट वर्ड प्रार्थना को सभी लोगों की प्रार्थना के रूप में माना जाता था। प्रार्थना शुरू हुई, और एक प्रख्यात न्यू इंग्लैंड ज्ञानी ने ‘ओ भगवान, हमारे राष्ट्र को आशीर्वाद दो’ शब्दों से प्रार्थना शुरू की। इसे उस दिन दोपहर को स्वीकार किया गया, इस पल के पश्चात, इस बात को पुनर्विचार के लिए अगले दिन आगे बढ़ाया गया, जब आम जनों द्वारा राष्ट्र शब्द के लिए इतनी सारी आपत्तियां उठाई गईं, जैसे कि इस शब्द से राष्ट्रीय एकता की पहचान को निश्चित किया जा रहा है, और बाद में इसके बजाय इन शब्दों को अपनाया गया, “हे भगवान, इन संयुक्त राज्यों को आशीर्वाद दें।”

उस समय अमेरिका में बहुत कम एकजुटता थी। जब यह घटना हुई तब अमेरिका के लोग यह नहीं सोचते थे कि वे एक राष्ट्र हैं। अगर संयुक्त राज्य के लोग यह महसूस नहीं कर सके कि वे एक राष्ट्र हैं, तो भारतीयों के लिए यह सोचना कितना मुश्किल है कि वे एक राष्ट्र हैं?

एक बड़ी भ्रांति :

मुझे याद है कि जब भारतीय राजनैतिक बुद्धिजीवियों ने “भारत के लोगों” की अभिव्यक्ति का विरोध किया था। उन्होंने “भारतीय राष्ट्र” की अभिव्यक्ति पसंद की थी। मेरा पक्ष है कि ऐसा मानने में कि हम एक राष्ट्र हैं, हम एक महान भ्रम को संजो रहे हैं। हज़ारों जातियों में विभाजित लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? इस बात को जितनी जल्दी हम समझते हैं कि हम दुनिया के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मायनों में अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं, हमारे लिए बेहतर है। और केवल तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता का महत्व समझेंगे और लक्ष्य को साकार करने के तरीकों के बारे में गंभीरता से सोचेंगे। इस लक्ष्य की प्राप्ति बहुत मुश्किल हो रही है – संयुक्त राज्य अमेरिका में जितनी अधिक कठिन रही उससे भी अधिक मुश्किल। संयुक्त राज्य में कोई जाति समस्या नहीं है। भारत में जातियाँ हैं और जातियां राष्ट्र विरोधी हैं। पहली बात, क्योंकि वे सामाजिक जीवन में विभाजन लाती हैं। वे राष्ट्रविरोधी इसीलिए भी हैं क्योंकि वे जाति और जाति के बीच ईर्ष्या और प्रतिपक्ष पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सभी कठिनाइयों को दूर करना होगा। आपसी बंधुत्व तभी कायम हो सकता है, जब कोई राष्ट्र हो। बंधुत्व के बिना, समानता और स्वतंत्रता रंगों की परतों से अधिक गहरी नहीं होगी।

ये उन कार्यों के बारे में मेरे प्रतिबिंब हैं जो हमारे सामने हैं। ये कुछ लोगों के लिए बहुत सुखद नहीं भी हो सकते हैं लेकिन यह कहने में कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि इस देश में राजनीतिक शक्तियाँ काफ़ी समय के लिए एकाधिकृत रही हैं और कई लोग केवल बोझ ढोने के जानवर हैं, लेकिन साथ ही शिकार के जानवर भी हैं। इस एकाधिकार ने उन्हें केवल भलाई की सम्भावनाओं से वंचित नहीं किया है, बल्कि इसने उन्हें जीवन के महत्व से भी दूर किया है। ये निचले और शोषित वर्ग शासित होते-होते थक गए हैं। वे स्वयं को शासित करने के लिए अधीर हैं। इन निचले व शोषित वर्गों में आत्म अनुभूति के लिए इस उत्तेजना को किसी वर्ग संघर्ष अथवा जाति युद्ध में परिवर्तित नहीं होने देना चाहिए। यह सदन के एक विभाजन का नेतृत्व करेगा और तब यह वास्तव में आपदा का दिन होगा। जैसा कि ‘अब्राहम लिंकन’ ने कहा है कि “अपने आप में विभाजित एक सदन बहुत लंबे समय तक खड़ा नहीं रह सकता।” इसलिए जितनी जल्दी उनकी आत्म अनुभूति की आकांक्षाओं को जगह दी जाएगी उतना ही कुछ के लिए बेहतर है, देश के लिए बेहतर है, आज़ादी के रखरखाव के लिए बेहतर है और इस लोकतांत्रिक ढांचे की निरंतरता के लिए बेहतर है। यह केवल जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और आपसी बंधुत्व की स्थापना के द्वारा ही किया जा सकता है। यही कारण है कि मैंने उन पर इतना ज़ोर दिया है।

मैं सदन को और आगे नहीं बढ़ाना चाहता हूँ। निःसंदेह स्वतंत्रता एक अत्यंत खुशी की बात है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हमारे ऊपर बड़ी जिम्मेदारियाँ भी डाली हैं। आजादी से पहले तक, हमने कुछ भी गलत होने का कारण ब्रिटिश शासन को बताया है यदि इसके बाद चीज़ें गलत होती हैं, तो हमें स्वयं को छोड़कर कोई भी दोषी नहीं होगा। और चीज़ों के गलत होने का खतरा बहुत अधिक है। समय तेजी से बदल रहा है। हम सहित अन्य लोग नई विचारधाराओं से जुड़ रहे हैं। वे लोगों द्वारा शासित सरकार से थक रहे हैं और वे लोगों के लिए सरकार बनाने को तैयार हैं और उदासीन भी हैं कि क्या यह लोगों की लोगों के द्वारा सरकार है? यदि हम संविधान को संरक्षित करना चाहते हैं, जिसमें हमने लोगों की, लोगों के लिए, और लोगों के द्वारा सरकार के सिद्धांत को स्थापित करने की माँग की है, तो हमें अपने रास्ते में आने वाली उन बुराइयों की पहचान करने में सुस्ती न दिखाने का संकल्प लेना होगा जो लोगों की, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा सरकार के सिद्धांत को प्रेरित होने से रोकती हैं और उन बुराइयों को खत्म करने के लिए हमें कमज़ोर न पड़ने का संकल्प भी लेना होगा। यह देश सेवा करने का एकमात्र तरीका है। मुझे इससे बेहतर और कोई तरीका नहीं पता है।

(ये डॉ आम्बेडकर के भाषण के संपादित अंश हैं । – संपादक )

One thought on “राजनीतिक लोकतंत्र की बजाए, सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में भी काम करना होगा- बाबा साहेब आंबेडकर”

  1. बहुत बढ़िया लेख है ।
    बाबा साहेब आम्बेडकर की तीनो
    चेतावनीया आज भी प्रासंगिक है ।
    सही कहा है लेखक ने वे एक क़ानूनविद् राजनीतिज्ञ अर्थशास्त्री ( अमर्त्यसेन ने कहा था की अर्थशास्त्र में बाबा साहेब उनके पिता है ) समाज पुनरुत्थानवादी और संविधान के मुख्य शिल्पकार थे । भारत के आर्थिक धार्मिक और सामाजिक ढाँचे को भलीभाँति जानते थे ।

    यदि सत्ता पक्ष के नेता उनके बताये रास्ते पर चले होते और विपक्ष के नेता
    सत्ता पक्ष के नेताओ को ग़लत निर्णय करने से रोक सकते ।देश की जनता अपने वोट की ताक़त को पहचान कर नेताओ को मनमानी ढंग से काम करने नही देती तो देश पता नही आज किस ऊँचाई पर होता ।
    लेकिन सत्ता पक्ष ने वह नही किया ।
    तीनो चेतावनीयों के साथ साथ solution भी बताया ।
    आज उनकी दुसरी चेतावनी सच होते दिख रही है । राजनीति में व्यक्ति पूजा भक्ति तानाशाही को आमंत्रित कर रही है ।

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