किसान आंदोलन इस देश की जनता की सबसे बड़ी उम्मीद है, महज महान प्रेरणा के रूप में ही नहीं, वरन नीतिगत बदलाव की दिशा और सम्भावना की दृष्टि से भी। विश्व इतिहास के गम्भीर अध्येता प्रो. लाल बहादुर वर्मा के शब्दों में यह आंदोलन विश्व-इतिहास की अनूठी घटना है और इससे उचित ही लोगों को उम्मीद है कि कुछ बड़ा होने वाला है, ठीक वैसे ही जैसे फ्रांस की राज्यक्रांति की पूर्वबेला में वहां की जनता के मन में थी! (गाजीपुर बॉर्डर पर मीडिया विजिल के सम्पादक डॉ. पंकज श्रीवास्तव से बात करते हुए)
कृषि-प्रश्न तथा देश को आज मथ रहे दोनों बड़े सवाल, नौजवानों के रोजगार का सवाल और सार्वजनिक उपक्रमों, सम्पत्तियों, संसाधनों को निजी हाथों में सौंपने का सवाल, ये सब कारपोरेट-अर्थतंत्र और राजनीति के एक ही उभयनिष्ठ धागे से जुड़े हुए हैं।
किसान आंदोलन ने आज न सिर्फ इन सारी बहसों को सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में ला दिया है, बल्कि उन सामाजिक शक्तियों को भी प्रेरित किया है जो ऐसे बदलाव को सम्भावना के दायरे से वास्तविकता के धरातल पर उतार सकती हैं।
इसीलिए, देश की तमाम सेंट्रल ट्रेड यूनियनें किसान-आंदोलन के साथ समन्वय बनाते हुए बड़े आन्दोलन की ओर बढ़ रही हैं और छात्र-युवा आंदोलन की नई लहर की आहट है।
रोजगार का सवाल फिर सुर्खियों में है। पिछले दिनों से #मोदी रोजगार दो, लगातार ट्विटर पर टॉप ट्रेंड कर रहा है।
रोजगार के मोर्चे पर स्थिति कितनी भयावह हो गयी है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इलाहाबाद जो देश का एक प्रमुख विश्वविद्यालय और समूची 20वीं सदी में प्रतियोगी छात्रों का सर्वप्रमुख केंद्र रहा है, आज न सिर्फ उनकी उम्मीदों और अरमानों के लिए, बल्कि उनके जीवन के लिए भी कब्रगाह बनता जा रहा है, जहां एक महीने के अंदर 10 के आसपास युवा बेरोजगारी के भयानक दबाव में खुदकशी कर चुके हैं। इलाहाबाद प्रतियोगी छात्रों का सुसाइड जोन बनता जा रहा है।
एक औसत युवा जो आज शिक्षा प्राप्त कर रहा है अथवा रोजगार की तलाश में है, वह जबरदस्त मानसिक दबाव में है। आम तौर पर सामान्य, ग्रामीण-कस्बाई पृष्ठ भूमि से आने वाले छात्र-छात्राएं घर की खस्ता माली हालत के चलते, जो आज सरकार की गलत नीतियों की श्रृंखला के कारण आम हो गयी है, लंबे समय तक शहर में रह कर अनगिनत प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अनन्त काल तक तैयारी और रिजल्ट का इंतज़ार करते रहे पाने में असमर्थ होते हैं, पर सरकार ने उन्हें आज ठीक इसी त्रासद स्थिति में धकेल दिया है। नतीज़तन वे धीरे धीरे अवसाद की गहरी सुरंग में समाते जाते हैं और एक दिन अपने जीवन का अंत कर लेते हैं।
यह हमारे समय की कितनी बड़ी त्रासदी है कि इलाहाबाद के छात्र-युवा संगठन / मंच, जो पहले अपनी गोष्ठियों में दर्शन, विज्ञान, साहित्य, इतिहास, राजनीतिक अर्थशास्त्र के गूढ़ विषयों पर रचनात्मक विमर्श किया करते थे और नौजवानों को सपनों और उम्मीदों भरे भविष्य की ओर आत्मविश्वास के साथ संघर्ष की राह पर बढ़ने के लिए प्रेरित करते थे, आज हालात ऐसे हो गए हैं कि अब वे आत्महत्या और अवसाद पर गोष्ठियां करने और उससे युवाओं को बचाने के लिए अभियान चलाने के लिए अभिशप्त हैं।
इलाहाबाद में जो हो रहा है वह एक राष्ट्रीय परिघटना की झांकी मात्र है। असाध्य बेरोजगारी से पैदा होने वाला अवसाद केवल बड़े शिक्षा-प्रतियोगी परीक्षा के केंद्र या बड़े शहरों तक सीमित नहीं है, वरन गांवों तक युवक-युवतियां इसकी चपेट में हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद (कायमगंज ) के एक गांव की 27 वर्षीय युवती स्वाति राजपूत ने फंदा लगाकर अपनी जान दे दी। स्वाति BTC, MA, TET किये हुए थीं अर्थात सामान्य अध्यापन की नौकरी के लिये सभी योग्यताओं से लैस थीं और नौकरी के लिए हर सम्भव कोशिश कर रही थीं, पर उनके हाथ अंततः मौत लगी। अपने सुसाइड नोट में लिखा स्वाति ने, ” मैं अपनी जिंदगी में जो भी फैसला ले रही हूँ, उसमें किसी का दोष नहीं है। एक उम्मीद थी कि सरकार बच्चों के हित में शायद कुछ करे, लेकिन हमें नहीं लगता इस सरकार से बच्चों का कुछ भला होने वाला है।”
दरअसल, बेरोजगारी पर CMIE के आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं और उनसे यह दिन के उजाले की तरह साफ हो जाता है कि युवाओं के इस गहन अवसाद का कारण क्या है और हमारे युवा आज कितनी बड़े संकट में झोंक दिये गए हैं। इन आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती ने न्यूज़क्लिक के एक वीडियो में खुलासा किया है कि आज भारत में वास्तविक बेरोजगारी दर 39% के विस्फोटक स्तर पर है, जो सरकार के आधिकारिक आंकड़े से 5 गुना अधिक है, उसमें भी 20 से 24 आयुवर्ग के युवाओं में यह 46.4% के अकल्पनीय स्तर पर है, अर्थात इस आयु वर्ग के काम करने को इच्छुक युवक-युवतियों में करीब आधे बेरोजगार हैं! सरकार और कारपोरेट के भोंपू पत्रकार, बुद्धिजीवी यह कहते नहीं थकते कि युवा अशिक्षा और स्किल के अभाव के कारण बेरोजगार हैं। पर ये आंकड़े बताते हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त ग्रेजुएट्स में बेरोजगारी दर 26% है!
अर्थात आप जितने अधिक शिक्षित हैं, आपके बेरोजगार रहने की प्रायिकता उतनी अधिक है।
इससे यह बुनियादी सच सामने आ जाता है कि, दरअसल रोजगार का सृजन अर्थव्यवस्था और आर्थिक नीतियों पर निर्भर है, शिक्षा उसके लिए जरूरत के अनुरूप शिक्षित man-power उपलब्ध कराती है। पर, अर्थव्यवस्था को पहले नोटबन्दी, फिर GST और अंततः कोरोना दौर की अविवेकपूर्ण, अनियोजित तालाबंदी द्वारा मोदी ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। कोरोना तो पूरी दुनिया में आया, पर अर्थव्यवस्था और रोजगार का ऐसा ध्वंस दुनिया में कहीं नहीं हुआ। उस पर final assault सरकार ने अब किया है, सारे सार्वजनिक उद्यमों को कारपोरेट के हाथों सौंपते हुए, बैंकों का merger करते हुए, सभी सम्भव तरीकों से कर्मचारियों की संख्या कम कर बची-खुची सरकारी नौकरियों को खत्म करते हुए।
युवा आज इसलिए बेरोजगार नहीं हैं कि वे अशिक्षित या अकुशल हैं, वरन इसलिए कि मोदी-राज में देश में नौकरियां नहीं हैं। सरकारी भर्ती में साल-दर-साल लगातार गिरावट हो रही है। सिविल सेवा परीक्षा ( आईएएस, आईपीएस, अलाइड सर्विसेज ) में 2014 के 1364 पदों से घटकर इस बार केवल 796 पद रह गए हैं, UPSC ने 2016-17 में कुल 6103 पदों पर भर्ती की तो 2019-20 में केवल 4399 पदों पर, SSC ने 2016-17 में 68880 पद भरे थे लेकिन 2020-21 में मात्र 2160 पद विज्ञापित हैं, बैंक PO के लिए 2013 में 21680 पद थे, वह 2020 में घटकर 1167 रह गए।
सरकार ने लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में बताया था कि केंद्र सरकार की नौकरियों में 6.83 लाख पद खाली थे। ठीक इसी तरह राज्यों में लाखों पद खाली पड़े हुए हैं। लेकिन नए पदों के सृजन की बात तो छोड़िए, पहले से खाली पड़े पद भी भरे नहीं जा रहे, बल्कि पूरा जोर पदों को खत्म करने पर है। इसीलिए सारी भर्तियों को तरह तरह के नायाब तरीके ईजाद कर लंबे समय तक अटकाया-लटकाया-भटकाया जा रहा है। पूरा माहौल इतना डिप्रेसिंग है कि उससे cope कर पाने में असमर्थ अनेक युवा आत्मघात के रास्ते पर बढ़ जा रहे हैं।
जबकि, सच्चाई यह है कि सरकार की अगर नीति और इच्छा शक्ति हो तो केवल शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपना निवेश बढ़ाकर वह करोड़ों नई नौकरियों का सृजन कर सकती है, जिसकी हमारी बढ़ती हुई जनसंख्या की शिक्षा और स्वास्थ्य की जरूरतों के मद्देनजर बेहद जरूरत है।
पर मोदी सरकार की तो घोषित नीति ही है मिनिमम गवर्नमेंट, वह तो सब कुछ कारपोरेट को सौंपकर, जनता के प्रति सारे दायित्वों से मुक्त होकर, शायद, केवल उसकी प्रबंधक, रक्षक वाहिनी बन जाना चाहती है।
यह अनायास नहीं है कि पिछले 3 सप्ताह में 3 बार प्रधानमंत्री ने सरकार/सार्वजनिक क्षेत्र के कर्ताधर्ता आईएएस अधिकारियों को लेकर बेहद तीखी, एक तरह से अपमान जनक टिप्पणियाँ की। इसी दौरान केंद्र सरकार के सर्वोच्च पदों पर निजी क्षेत्र के गैर-आईएएस कथित विशेषज्ञों की नियुक्ति ( Lateral Entry ) की गई। समाज मे नौकरशाही के प्रति मौजूद नाराजगी, जो अक्सर इसलिए भी होती है कि उन्हें सरकारों की जनविरोधी नीतियों को by hook or by crook लागू करना होता है, को हवा देते हुए मोदी जी एक तीर से कई निशाने लगा रहे हैं। सर्वोपरि नौकरशाही की लानत-मलामत करते हुए वे दरअसल यह लॉजिक build कर रहे हैं कि तमाम सार्वजनिक उद्यमों/सरकारी उपक्रमों को चला पाना इनके वश में नहीं है, इसे तो कारपोरेट और उनके मैनेजर ही चला सकते हैं ।
बाबुओं को अयोग्य घोषित कर वे लैटरल एंट्री के माध्यम से निजी क्षेत्र के कथित एक्सपर्ट्स का सरकार के अंदरूनी तंत्र पर कब्जा सुनिश्चित कर रहे हैं, ताकि monetisation अर्थात निजीकरण के अभियान को वे तेजी से आगे बढ़ा सकें। IAS अधिकारियों से मोदी जी की नाराजगी की यह प्रमुख वजह लगती है कि मोदी जी जितनी तेजी से सब कुछ कारपोरेट के हवाले कर देना चाहते हैं, वे अधिकारी विभिन्न कारणों से उस तेजी में उनका साथ नहीं दे पा रहे हैं! जाहिर है, नौकरशाही तो बहाना है, सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण असली निशाना है। इस प्रक्रिया में हमारी सुरक्षा, सम्प्रभुता से कैसा खिलवाड़ हो रहा है, देश की सर्वोच्च सिविल सेवा परीक्षाओं का कैसा अवमूल्यन हो रहा है और आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों का किस तरह निषेध हो रहा है, इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं है।
यह स्वागतयोग्य है कि युवा इस दमघोंटू माहौल को और बर्दाश्त करने की बजाय सड़क पर उतर रहे हैं और संघर्ष की राह पर बढ़ रहे हैं।
एक मार्च को बिहार की राजधानी पटना में 19 लाख नौकरियों के नीतीश सरकार के वायदे को पूरा करने की मांग लेकर AISA-RYA के नेतृत्व में छात्र-युवाओं ने जुझारू मार्च किया। इसी बीच इलाहाबाद जो देश में प्रतियोगी छात्रों का प्रमुख केंद्र है, वहाँ भी नौजवान लगातार अभियान चला रहे हैं। हाल ही में हजारों प्रतियोगी युवक-युवतियों के प्रदर्शन पर योगी सरकार की पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया और उनके नेताओं को गिरफ्तार किया था। ठीक इसी तरह BHU के छात्रों को गिरफ्तार किया गया जो विश्वविद्यालय खोलने और पढ़ाई की मांग कर रहे थे। दरअसल सरकार विश्वविद्यालयों को खोलने से डर रही है क्योंकि खतरनाक आयाम ग्रहण करती बेरोजगारी और छात्र-विरोधी नई शिक्षानीति के खिलाफ देश में बड़े छात्र-युवा आंदोलन की सुगबुगाहट है।
इसके पूर्व सितम्बर में जब युवाओं का गुस्सा फूटा था, तो सरकार यह सांत्वना दे रही थी कि यह कोरोना से पैदा संकट है और हमारी अर्थव्यवस्था की जो V-shaped रिकवरी होने जा रही है, उसके बाद सब कुछ भला-चंगा हो जाएगा। पर उसके 6 महीने बाद भी हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे, नवम्बर से अधिक बेरोजगारी दर दिसम्बर में रही।
सरकार के पास रोजगार संकट के समाधान के नाम पर आंचलिकतावाद का sentiment उभारने और विभाजन की राजनीति के अलावा और कोई उपाय नहीं बचा है। किसान आंदोलन के कारण जिस हरियाणा सरकार के पैरों तले की राजनीतिक जमीन खिसक चुकी है और जो आज अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही है, उसने निजी क्षेत्र की 50 हजार मासिक वेतन तक की 75% नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित करने का फैसला किया है। यह उस पार्टी के मुख्यमंत्री का कारनामा है, जिसके प्रधानमंत्री “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” की लफ्फाजी करते नहीं अघाते। ऐसा ही इनकी मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भी प्रस्तावित है। जबकि इस तरह का कानून आंध्र प्रदेश में कोर्ट में लंबित है।
मोदी सरकार जिसने बेरोजगारी की भयावहता को छिपाने के लिए, उसके आंकड़ों को ही छिपा दिया, उन्हें प्रकाशित करना बंद कर दिया, उससे अब नौजवानों को शायद ही कोई उम्मीद बची हो। दरअसल मोदी जी के लिए अब यह कोई issue ही नहीं है, उनका सारा ध्यान wealth creators को मजबूत करने पर केंद्रित है, क्योंकि उनकी समृद्धि में ही देश की समृद्धि है!
छात्र-युवा अब अपने आंदोलन के बल पर रोजगार के सवाल को बड़ा राजनैतिक मुद्दा बनाने के लिए कमर कस रहे हैं, जिसकी एक झलक बिहार चुनाव में भी दिख चुकी है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि किसान-आंदोलन के साथ मिलकर रोजगार के लिए युवाओं और निजीकरण के खिलाफ मजदूरों की मुहिम आने वाले दिनों में न सिर्फ राजनैतिक परिवर्तन का आगाज करेगी, वरन जनपक्षीय वैकल्पिक अर्थनीति की भी आधारशिला रखेगी।
आज देश के सारे जलते सवालों का जवाब कृषि के चौतरफा विकास और रोजगार को केंद्र में रखकर नए आर्थिक ढांचे के निर्माण में निहित है, जहां राज्य को अपनी सम्पत्तियों, संसाधनों, उपक्रमों को लुटाने की बजाय, जनता के हित में उनके सर्वोत्तम सदुपयोग की जवाबदेही लेनी पड़ेगी।
उम्मीद की जानी चाहिए कि किसान-आंदोलन के साथ मिलकर रोजगार के लिए युवाओं और निजीकरण के खिलाफ मजदूरों की मुहिम आने वाले दिनों में न सिर्फ राजनैतिक परिवर्तन का आगाज करेगी, वरन जनपक्षीय वैकल्पिक अर्थनीति की भी आधारशिला रखेगी।
इसीलिए, आज न सिर्फ हमारे देश के, बल्कि दुनिया के तमाम देशों के किसान और उनकी हितैषी ताकतें, पर्यावरण आंदोलन के कार्यकर्ता और मानवाधिकारों तथा लोकतांत्रिक आज़ादी के पैरोकार भारत के किसान-आंदोलन की ओर उम्मीद और उत्सुकता के साथ देख रहे हैं।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज-न्यूजक्लिक