मुसलिम वोटर ममता बनर्जी के साथ ज़्यादा मजबूती से एकजुट होने जा रहे हैं। यह कयास लगाया जा रहा है कि 85 प्रतिशत से ज़्यादा मुसलमान तृणमूल को वोट देंगे, अब तक उसे इतना वोट नहीं मिला है। यदि ऐसा होता है तो ममता को हटाना बीजेपी के लिए मुश्किल होगा। यदि बीजेपी ग़ैर-मुसलिम वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब होती है तो भी यह कल्पना करना कठिन है कि सभी 70 प्रतिशत ग़ैर-मुसलिम वोट उसे ही मिलेंगे।
भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को पूरी तरह युद्ध में तब्दील कर दिया है। ऐसे में, हर तरह के दाँव अपनाने के अलावा ममता बनर्जी के पास कोई चारा नहीं है। जो दो घटनाएँ इस चुनाव की दशा-दिशा तय करेंगी, वे हैं- राजनीतिक मंच से ममता बनर्जी का चंडी पाठ करना और पैर पर प्लास्टिक चढ़ाए हुए व्हील चेयर पर चुनाव प्रचार करना। ममता पर निजी हमले करने की अति आक्रामक रणनीति पर बीजेपी को पछताना पड़ सकता है।
ममता बनर्जी को नेता के रूप में ऊपर से नहीं थोपा गया है। वे सड़क से ऊपर उठी हैं, यदि आज वे अपने आप में एक महत्वपूर्ण नेता हैं तो इसकी वजह सड़क पर लड़ने की उनकी ताक़त है। मूल रूप से वे कांग्रेस की हैं, जब 1990 के दशक में उन्हें ऐसा लगा कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उनकी महत्वाकांक्षाओं को कुचल रहा है, उन्होंने बग़ावत कर दी और अपनी अलग पार्टी बना ली। यह एक बहुत बड़ा फ़ैसला था।
ममता का विद्रोह
उन दिनों यह माना जाता था कि जो नेता पार्टी तोड़ कर अलग हो जाता है वह ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाता है, शरद पवार जैसे कुछ लोग इसके अपवाद थे। ममता बनर्जी के विद्रोह के पहले कांग्रेस के दो बड़े दिग्गज़- अर्जुन सिंह और एन. डी. तिवारी ने नरसिम्हा राव के नेतृत्व के ख़िलाफ़ झंडा बुलंद किया था, अलग पार्टी बनाई थी और चुनाव इस उम्मीद में लड़ा था कि लोग उनकी पार्टी को ही असली कांग्रेस मान लेंगे। यह प्रयोग ज़्यादा दिन नहीं चल सका और दोनों नेताओं को मूल संगठन में लौटना पड़ा।
ममता बनर्जी ने कांग्रेस छोड़ने के बाद पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वे बुरे दिन से गजुरीं, पर प्रणब मुखर्जी की तरह कांग्रेस में लौट जाने का विचार उनके मन में कभी नहीं आया। सोनिया गांधी के साथ मधुर संबंध होने के बावजूद उन्होंने उनके सामने आत्मसमर्पण करने के बजाय बीजेपी से हाथ मिलाना बेहतर समझा था।
वाम मोर्चा को उखड़ा फेंका
अंत में उनकी मेहनत रंग लाई, 2011 में वे चुनाव जीत गईं, पश्चिम बंगाल में सीपीआईएम की अगुआई वाले वाम मोर्चा को हराया और सरकार बनाने में कामयाब रहीं।
पश्चिम बंगाल में किसी समय वाम मोर्चा को अपराजेय समझा जाता था। ममता बनर्जी ने वह कर दिखाया जो उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था। एक बार वाम मोर्चा के गुंडों ने उन पर जानलेवा हमला किया। पर इससे वे रुकी नहीं। कोई दूसरा राजनेता नाउम्मीद हो जाता, पर ममता नहीं हुईं। और नंदीग्राम व सिंगुर ने उनकी कामयाबी का रास्ता खोल दिया।
यदि बीजेपी ने यह सोचा है कि लगातार व क्रूर हमलों से ममता बनर्जी को डराया जा सकता है तो यह कहना उचित होगा कि उसने होमवर्क ठीक से नहीं किया है।
वे ऐसी नेता हैं जो विपरीत समय में बेहतर प्रदर्शन करती हैं और संघर्ष का आनंद उठाती हैं।
बीजेपी की आशातीत सफलता
पश्चिम बंगाल में निसंदेह बीजेपी बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी है। उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में 16 प्रतिशत वोट मिले थे और उसने तीन सीटों पर जीत हासिल की थी। लेकिन पाँच साल में उसके वोट शेयर में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई और उसे तृणमूल कांग्रेस की 24 सीटों के मुक़ाबले में 18 सीटें मिलीं। ये डराने वाले आँकड़े हैं। और सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बीजेपी की स्थिति में और सुधार होगा।
लेकिन इस कहानी में एक मोड़ है।
बीजेपी की आशातीत सफलता के बावजूद ममता के सामाजिक आधार में वे सेंध नहीं लगा पायी। वाम मोर्चा को 2011 के चुनाव में हराने के बाद से अब तक तृणमूल कांग्रेस को लगातार 42 प्रतिशत से 45 प्रतिशत वोट मिलते रहे हैं।
कांग्रेस-वाम मोर्चा
बीजेपी को फ़ायदा कांग्रेस और वाम मोर्चा की कीमत पर हुआ है। ममता बनर्जी ने कांग्रेस को तोड़ने के बाद उसका सामाजिक आधार भी उससे छीन लिया। कांग्रेस के ज़्यादातर मतदाता तृणमूल में आ गए। और जब ‘मोहभंग हुए’ वाम समर्थक वोटरों ने तृणमूल का हाथ थामा, ममता बनर्जी ने वाम मोर्चा को ध्वस्त कर दिया। अब वाम मोर्चा और कांग्रेस साथ-साथ हैं, पर उनसे न तो ममता बनर्जी, न ही बीजेपी को कोई ख़तरा है।
पश्चिम बंगाल में मुसलमान निर्णायक भूमिका में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की आबादी 27 प्रतिशत है। वाम मोर्चा के लगातार 34 साल के शासनकाल में ज़्यादातर मुसलमान पूरी मजबूती के साथ उनके साथ खड़े रहे। पर अब उनकी प्रतिबद्धता ममता बनर्जी से जुड़ गई है। बीजेपी का ममता बनर्जी पर मुसलिम तुष्टीकरण और हिन्दुओं की उपेक्षा करने का आरोप काफी हद तक सही है। पर बीजेपी अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता में कुछ अधिक ही बह गयी। बीजेपी का बहुत ही बढ़ा चढ़ा कर, बहुत ही ऊँचे सुर में, बहुत ही आक्रामक ढंग से ध्रुवीकरण आधारित प्रचार उसके ख़िलाफ़ जा सकता है।
क्या करेंगे मुसलमान?
यह आशंका ग़लत है कि मुसलमानों का वोट तृणमूल कांग्रेस और वाम-कांग्रेस में बँट जाएगा। सच तो यह है कि मुसलिम वोटर ममता बनर्जी के साथ ज़्यादा मजबूती से एकजुट होने जा रहे हैं।
यह कयास लगाया जा रहा है कि 85 प्रतिशत से ज़्यादा मुसलमान तृणमूल को वोट देंगे, अब तक उसे इतना वोट नहीं मिला है। यदि ऐसा होता है तो ममता को हटाना बीजेपी के लिए मुश्किल होगा।
हिन्दू वोटों पर क़ब्ज़ा!
यदि बीजेपी ग़ैर-मुसलिम वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब होती है तो भी यह कल्पना करना कठिन है कि सभी 70 प्रतिशत ग़ैर-मुसलिम वोट उसे ही मिलेंगे।
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी-आरएसएस ने हिन्दू वोटों के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा जमाने में कामयाबी हासिल कर ली है। पर उत्तर भारत के कुछ राज्यों को छोड़ कर कुल पड़े वोटों में इन वोटों का हिस्सा 50 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होता है। इसमें भी मोदी एक अहम कारक हैं। विधानसभा चुनावों में जहाँ मोदी उम्मीदवार नहीं होते हैं, बीजेपी के वोट शेयर में 8 से 24 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जाती है। साल 2017 से अब तक हुए 12 राज्यों के विधानसभा चुनाव और आम चुनाव के आँकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। इसी तरह बीजेपी को बिहार में 17 प्रतिशत, दिल्ली में 18 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 8 प्रतिशत और हरियाणा में 22 प्रतिशत वोटों का नुक़सान हुआ।
बीजेपी को ऐतिहासिक जनादेश
इन राज्यों में चुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए, जिसमें बीजेपी को 303 सीटों का ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त हुआ था और 2014 के आम चुनाव की तुलना में 6 प्रतिशत अधिक वोट मिले थे। यह कहा जा सकता है कि राज्यों में कम वोट सरकार-विरोधी भावनाओं के कारण मिले। पर दिल्ली और ओडिशा के मामलों में यह बात नहीं कही जा सकती है। ओडिशा में बीजेपी के लोकसभा और विधानसभा के वोटों में 10% का अंतर है। दिल्ली इसका अच्छा उदाहरण है। 2019 में दिल्ली में बीजेपी को लोकसभा की सभी सात सीटें मिल गईं और आम आदमी पार्टी तीसरे स्थान पर सिमट कर रह गई।
लेकिन विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 54 प्रतिशत वोट मिले और उसने 62 सीटें जीत लीं। जिस बीजेपी को 2019 में 57 फ़ीसदी वोट मिले थे, उसे विधानसभा चुनाव में 39 प्रतिशत वोटों पर ही संतोष करना पड़ा था।
मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा मोदी और बीजेपी में अंतर करता है। मोदी के पास अपने 8 से 10 प्रतिशत वोट हैं जो उनके निजी खाते में हैं और विधानसभा चुनावों में बीजेपी को ट्रांसफर नहीं होते हैं।
राजनीतिक भविष्यवाणी करना हमेशा ख़तरनाक होता है। पर यदि ऊपर दिये आँकड़ों और तर्क को माना जाये तो पश्चिम बंगाल में बीजेपी की जीत की संभावना कम है। इस तर्क से बीजेपी के लिए 2019 का प्रदर्शन दुहरा पाना मुश्किल होगा, इसके अलावा उसे 4 से 5 प्रतिशत वोटों का अतिरिक्त नुक़सान भी हो सकता है।
पश्चिम बंगाल के आँकड़े भी इस तर्क की पुष्टि करते हैं। 2016 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को मिले वोट 2014 के लोकसभा के वोटों से 6 प्रतिशत कम थे। इस परिप्रेक्ष्य में खुद को हिन्दू नेता के रूप में स्थापित करने की ममता बनर्जी की कोशिशों से बीजेपी की दिक्क़तें बढ़ेंगी। और ऐसे में यदि प्लास्टर चढ़े पैर की वजह से ममता को सहानुभूति के वोट मिले तो बीजेपी की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी।
(सौज-एनडीटीवी )