क्यों भाजपा का हिंदुत्व तमिल पहचान के सामने विफल है?

विग्नेश कार्तिक के.आर., एजाज़ अशरफ़

तमिल जनता की मिली-जुली संस्कृति/पहचान और समाज के अलग-अलग समूहों को एक साथ लाने वाली ऐतिहासिक प्रक्रिया भाजपा की राजनीति के ब्रांड के लिए अभिशाप है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनाव होने वाले राज्यों में दखल को संक्षेप में परिभाषित किया जाए तो वह यह कि: वे आते है, भाषण देते है, और विजयी हो जाते है। दक्षिण, विशेष रूप से तमिलनाडु, जो लोकसभा में 39 सांसदों को भेजता है, मोदी के जादू के सामने काफी हद तक अभेद्य रहा है।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी ने नौ में से मात्र एक सीट जीती थी और उसे कुल मतों में से 5.48 प्रतिशत [और लड़ी सीटों पर 23.91 प्रतिशत मत] मिले थे, जो बाद में गिरकर 3.66 प्रतिशत रह गए [लड़ी सीटों पर 28.37 प्रतिशत] थे और पाँच साल बाद लड़ी गई पाँच सीटों में से वे एक भी सीट नहीं जीत पाए थे। इन दो राष्ट्रीय चुनावों के बीच, भाजपा 2016 में तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में अकेले ही लड़ी थी, और उतारे गए उम्मीदवारों में उसे 188 सीटों में से एक भी सीट नहीं मिली थी और केवल 2.86 प्रतिशत वोट [लड़ी सीटों पर 3.57 प्रतिशत] मिले थे।

ये आंकड़े बताते हैं कि तमिलनाडु की जनता को मोदी से एतराज़ हैं, जो अपने ही लोगों के प्रति  घृणा उकसाते है। जब वे 2018 में डिफेंस एक्सपो का उद्घाटन करने चेन्नई गए थे, तो उनके स्वागत में सोशल मीडिया पर (“#GoBackModi”) ‘मोदी वापस जाओ’ ट्रेंड कराया गया था। एक साल बाद, ममल्लापुरम में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी मुलाकात के दौरान, हैशटैग #GoBackModi ‘मोदी वापस जाओ’ के ट्रेंड पर लाखों ट्वीट्स दर्ज़ किए गए थे। यह तब भी हुआ जब मोदी ने तमिल सांस्कृतिक प्रतीकों का लिबास वेष्टि थुंडू पहना और शी को तमिल व्यंजनों का स्वाद चखाया था। 

मोदी ने अक्सर तमिल भाषा के प्रति अपना स्पष्ट शौक दिखाया है, इस उम्मीद में कि ऐसी  छवि बनाने से भाजपा की राजनीति हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान/हिंदुत्व के परस्पर विचारों के आसपास दिखाई दे। कई उदाहरणों में से एक को यहाँ उद्धृत किया जा सकता है: संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने 2019 के भाषण में, उन्होंने तमिल संगम युग के कवि, कन्यायन पूंगुंद्रन का नाम लिया, और बाद में चेन्नई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के दीक्षांत समारोह में दर्शकों को बताया, कि उनके द्वारा संयुक्त राज्य में तमिल भाषा की प्राचीनता का संदर्भ देने से तमिल भाषा एक चर्चा का विषय बन गई है!

भाजपा ने तमिलनाडु में जाति की राजनीति को भाषा की राजनीति में बदल दिया है, जहां संस्कृत और हिंदी को उच्च जातियों और बाहरी लोगों के मामले में चिन्ह के रूप में माना जाता है। भाजपा ने एल मुरुगन को राज्य अध्यक्ष नियुक्त किया, जो कि अरुन्थतिहार दलित जाति से हैं, जो जाति अनुसूचित जातियों के भीतर काफी मिचले पायदान पर हैं। साथ ही, भाजपा ने हाल ही में अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित सात पल्लर जातियों की मांग को लागू किया और उन्हें देवेंद्र कुला वेल्लार नामकरण के तहत लाया गया। पल्लर शब्द, उन्होंने कहा, अपमानजनक रूप से इस्तेमाल किया जाता है।

लेकिन भाजपा के राजनीतिक प्रदर्शनों में जो बात निरंतर है वह है हिंदुत्व। सेलम में दिए एक हालिया भाषण में, सांसद और भाजपा की युवा शाखा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तेजस्वी सूर्या ने कहा, “द्रमुक [द्रविड़ मुनेत्र कड़गम] एक खराब और जहरीली विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है जो हिंदू विरोधी है।” सूर्या ने कहा कि अगर तमिल भाषा को ज़िंदा रखना है, तो हिंदुत्व को जीतना होगा- और कि हर तमिल एक गौरान्वित हिंदू है। कोयंबटूर में 14 फरवरी 1998 को हुए सिलसिलेवार बम धमाकों की बरसी पर आयोजित एक कार्यक्रम में मुरुगन ने कहा, “अगर मरने वाले 58 लोगों की कुर्बानी को बर्बाद नहीं करना है और अगर हिंदू धर्म की रक्षा करनी है तो डीएमके को शासन करने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि वह हिंदू विरोधी और तमिल विरोधी है।” इस तरह के बयानों को जानबूझकर तमिल पहचान का हिंदूकरण करने के लिए तैयार किया गया है, तमिल पहचान जो हमेशा से मिली-जुली, समावेशी और धर्मनिरपेक्ष रही है।

हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की हद 

कोयंबटूर बम धमाकों ने तमिलनाडु की धर्मनिरपेक्ष हद में दरार पैदा कर दी थी, जिसके माध्यम से भाजपा को राज्य में सेंघ लगाने की उम्मीद थी। हिंदू दक्षिणपंथ और बॉर्डरलाइन आतंकवादी संगठन कोयंबटूर बेल्ट में उभर आए थे, जैसा कि कट्टरपंथी मुस्लिम समूहों ने किया वह जनता को ध्रुवीकरण करने की एक आदर्श स्थिति थी। फिर भी, जैसा कि चुनाव परिणाम गवाह हैं, भाजपा अपने प्रयास में सफल नहीं हुई। इसकी विफलता का एक कारण यह भी है कि मुस्लिम राज्य की आबादी का 6 प्रतिशत से भी कम हैं, जो मुसलमानों के नाम पर समाज में  काल्पनिक खतरे को बढ़ाने के मामले में बहुत कम है।

लेकिन भाजपा की विफलता का एक बड़ा कारण मिली-जुली तमिल पहचान बनाने में मुसलमानों का एकीकरण भी शामिल है। 1920 में, सीवी वेंकटरमण अयंगर ने प्रशासन के भारतीयकरण करने के लिए मद्रास प्रेसीडेंसी विधानमंडल में प्रस्ताव पेश किया जिससे बड़ी बहस छिड़ गई। प्रस्ताव में कहा गया कि यूरोपीयन लोगों के साथ-साथ भारतीयों को भी पुलिस में कुछ पद दिए जाने चाहिए। जस्टिस पार्टी की संस्थापक सदस्य डॉ॰ नतेसा मुदलियार ने प्रस्ताव में संशोधन की मांग करते हुए कहा कि पुलिस में सामाजिक रूप से विविधता लाने के लिए एक अतिरिक्त श्रेणी बनाई जानी चाहिए जिसे गैर-ब्राह्मण भारतीयों ’वाक्यांश’ का इस्तेमाल होना चाहिए। उन्होंने गैर-ब्राह्मण भारतीयों में सामूहिक रूप से गैर-ब्राह्मण हिंदुओं, मोहम्मडन, भारतीय ईसाई, जैन, पारसी और एंग्लो-इंडियन को शामिल किया था।

मुसलमानों को शामिल करने और उनके एकीकरण करने की प्रक्रिया के बारे में आकर्षक विवरण स्वर्गीय सामाजिक वैज्ञानिक एमएसएस पांडियन ने अपने पेपर बीइंग ‘हिंदू’ और बीइंग ‘सेकुलर’ में लिखा है, जो ईपीडब्लू साप्ताहिक में प्रकाशित हुआ था। पांडियन इस प्रक्रिया का श्रेय द्रविड़ कज़गम नेता ईवी रामासामी को देते हैं, जिन्होंने तमिलनाडु में आत्म-सम्मान आंदोलन की स्थापना की थी और जो पेरियार के रूप में लोकप्रिय हुए। 

पेरियार की लामबंदी का तरीका मुसलमानों को दलित के रूप में चिन्हित करना था जिन्होने हिंदू धर्म के बेदर्द जातिय उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम कबूल किया था। लेकिन, और इससे भी महत्वपूर्ण बात ये कि उन्होंने अस्पृश्यता या छूआ-छुत से निजात पाने की विधि के रूप में दलितों को इस्लाम कबूल करने की वकालत की थी। उन्होंने इस्लाम में समानता के विचार को बढ़ाया और विधवा पुनर्विवाह और तलाक की अनुमति देने के लिए उसकी प्रशंसा की, साथ ही साथ पर्दा व्यवस्था की गंभीर रूप से आलोचना की। कार्तिक राम मनोहरन तर्क देते हैं कि जब पेरियार इस्लाम के लिए “रणनीतिक रूप से सहानुभूतिपूर्ण” थे, तो उन्होंने बुद्ध से प्रेरणा ली थी, जिन्होंने तर्क की वकालत की थी। पेरियार ने बौद्ध धर्म को तर्क का दर्शन माना।

पांडियन ने 18 मार्च 1947 को दिए पेरियार के भाषणों में से एक को उद्धृत किया, जो यह मानता है कि इस्लाम और द्रविड़ आंदोलन समान आदर्शों को साथ लेकर चलते हैं। “इस्लाम में… कोई ब्राह्मण (उच्च जाति) या शूद्र (निम्न जाति) या पंचमन (सबसे कम जाति) नहीं है… यह भी कहा जा सकता है कि इस तरह के सिद्धांत द्रविड़ लोगों के लिए भी हैं और इसकी जरूरत है,”। इसके बाद उन्होंने विश्लेषण किया और पाया कि इस्लाम के प्रति ब्राह्मण समुदाय में घृणा थी: “तथाकथित हिंदू (आर्यन) धर्म कई देवताओं और कई जातियों पर आधारित था.. कई देवताओं की इस व्यवस्था के जरिए [और] कई जातियों को आर्य (ब्राह्मण) व्यवस्था के ज़रीए अच्छे लाभ और विशेषाधिकार मिलते हैं। दूसरी ओर, द्रविड़ लोगों को मानव अधिकारों का हनन, ह्रास और बाधा मिलती हैं। यही कारण है कि इस्लामी सिद्धांत ब्राह्मणों के लिए बहुत ही हानिकारक है।”

पेरियार के भाषण का विश्लेषण करने के बाद, पांडियन निष्कर्ष निकालते हैं कि, “हिंदू धर्म के भीतर जाति आधारित असमानताओं को देखते हुए, इस्लाम आत्म-सम्मान आंदोलन का  प्रतिनिधित्व करने वाला, एक धार्मिक आदर्श था और निम्न-जाति के हिंदुओं के अपमान के  खिलाफ एक हथियार था।”

1947 के विभाजन से पहले के महीनों में देश में हिंदू-मुस्लिम दंगों के समय पेरियार ने उपरोक्त भाषण दिया था। इस्लाम के बारे में उनके सकारात्मक चित्रण ने मुसलमानों को आत्म-सम्मान आंदोलन की तह में खींच लिया। पांडियन, पी॰ दाउद शाह, जो 1957 तक प्रकाशित होने वाली एक तमिल पत्रिका के प्रभावशाली संपादक, का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने मुसलमानों के सामने एजेंडा रखा, अन्य बातों के अलावा जिस बात की वकालत की उसमें कहा कि तमिल भाषा को सीखने के साथ-साथ इस्लाम को समझने के लिए तमिल के इस्तेमाल की कोशिश की जाए। शाह यह भी चाहते थे कि समुदाय राष्ट्रीय ’मामलों पर ब्राह्मणवादी रुख से परहेज़ करें। पांडियन बताते हैं, “गैर-ब्राह्मण द्रविड़ आंदोलन और मुसलमानों के बीच उभरे इस सहयोग का बड़ा परिणाम इस नारे में मिलता है, जिसे तमिल मुसलमान आज तक इस्तेमाल करते रहे हैं, जिसमें वे कहते हैं इस्लाम हमारा रास्ता है, मीठी तमिल भाषा हमारी है।”

हिंदू दक्षिणपंथ के प्रयासों के बावजूद, समावेशी तमिल पहचान टिकी हुई है, क्योंकि इसका मुख्य कारण तमिल भाषा है, जिसे मुख्य रूप से उच्च जातियों के खिलाफ उप-समूहों द्वारा प्रतिरोध की भाषा के रूप में देखा जाता है। मुस्लिम इन दोनों प्रक्रियाओं का एक अभिन्न अंग थे। न केवल मुसलमान तमिल बोलते हैं, बल्कि वे कुलीन समूहों के खिलाफ निचली जातियों या मातहत समुदायों के आंदोलन का हिस्सा थे, और अभी भी हैं। तमिल पहचान एक राजनीतिक पहचान है। यह जातीयता पर आधारित नहीं है।

इससे एक लाभकारी प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिए, कुछ मुस्लिम जातियां लगभग सभी राज्यों की अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल हैं। 2007 में, डीएमके सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर-ओबीसी आरक्षण के भीतर ही मुसलमानों को अलग से तीन-प्रतिशत आरक्षण की सुविधा दे दी थी, तमिलनाडु में इसका कोई विरोध भी नहीं हुआ, जबकि उत्तर भारतीय राज्यों में ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है, कम से कम इसलिए नहीं क्योंकि भाजपा यहाँ प्रमुख राजनीतिक खिलाड़ी है। द्रमुक ने सवर्णों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के विरोध में मुसलमानों को यह लाभ दिया गया था। डीएमके नेता एमके स्टालिन को पता था कि सबाल्टर्न जातियों के बीच उनके समर्थकों के साथ उनकी स्थिति अच्छी होगी। द्रमुक ने 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 39 सीटों में से 37 सीटें जीतीं थी।

तमिल पहचान की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति ही थी जिसकी वजह से द्रमुक ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का कडा विरोध किया था, और दावा किया कि मोदी सरकार का यह कदम संघवादी सिद्धांत को कमजोर करेगा। तमिलनाडु के भीतर कश्मीरी मुसलमानों को सबक सिखाने की कोई अदम्य इच्छा नहीं थी, जैसा कि कई अन्य राज्यों में देखा गया था। नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ भी इसी तरह का समान विरोध किया गया था, जिसका नेतृत्व द्रमुक, विदुथलाई चिरुथिगाल काची के नेता थोल थिरुमावलवन और वाम दलों के गठबंधन के   नेतृत्व में किया गया था।

भाषा और जाति का दोष 

तमिल पहचान के निर्माण में भाषा और जाति की भूमिका को देखते हुए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मोदी तमिल भाषा के प्रति अपने प्यार को चित्रित करने का काम कर रहे है- और इसलिए भाजपा निरंतर दलितों को लामबंद कर रही है। मोदी एक ओबीसी हैं, जिसका बखान वे अक्सर करते रहते है। फिर भी वे जिस संस्कृतनिष्ठ हिंदी को बोलते है और हिंदू धर्म के पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते है, वह उन्हे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में चित्रित करता है, जो तमिल लोगों के लिए, उत्तर भारत की उच्च-जाति की संस्कृति का प्रतीक है। सितंबर 2019 में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि कभी-कभार स्लिप-अप होने पर यह धारणा प्रबल हो जाती है कि केवल हिंदी ही भारत को एकजुट कर सकती है।

यह सब, सबाल्टर्न समूहों के एक बड़े हिस्से को अलग-थलग कर देता है, जो आगे चलकर तमिल को “हिंदू” भाषा के रूप में वर्गीकृत करने के भाजपा नेताओं की प्रवृत्ति से भ्रमित होते लगते हैं। “हिंदू” शब्द उच्च-जाति वाले संस्कृतनिष्ठ तमिल बोलने वालों की यादों को पुनर्जीवित करता है, जो दशकों से राज करते आए हैं। एमजीएस नारायणन, पूर्व अध्यक्ष, भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद, ने देखा है कि तमिलों को कभी संस्कृतकृत नहीं किया जा सका, जो इस बात का संकेत है कि ब्राह्मण मूल रूप से तमिलनाडु के बाहर से आए थे। उन्होंने यह भी टिप्पणी की थी कि केवल तमिलों (आदिवासियों के अलावा) ने अपनी मूल भाषा और एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व को बरकरार रखा है।

जाति-भाषा की कड़ी की वजह से भाजपा दलितों को लुभाकर न केवल अपने आधार का विस्तार करना चाहती है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि भाजपा सर्व-साधारण के दल के रूप में उभरना चाहती है। हालांकि, ऐसा कुछ हद तक अगले कुछ वर्षों में हो सकता है। इसका कारण ये है कि तमिलनाडु में सामाजिक न्याय की राजनीति सत्ता के मामले में सभी सामाजिक समूहों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व के मामले में समाप्त हो गई है। उदाहरण के लिए, 1970 के दशक में, ओबीसी के पास कुल विधायकों का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा था। वे अब विधानसभा में आधे से अधिक सदस्यों का गठन करते हैं, जिनमें दलित लगभग 15-20 प्रतिशत और बाकी लोग शामिल हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो, सभी श्रेणियों की जातियों को पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व दिया जाता है, जिससे बीजेपी की नाराजगी की संभावना सीमित हो जाती है जो तेजी से इसका आधार बढ़ा सकती थी। 

भाजपा को दो तबकों से सीमित समर्थन मिल रहा है। कुछ ऐसी जातियाँ हैं, जो उपजातिय लामबंदी से लाभान्वित हुईं और अब गौंडर और हिंदू नादर जातियों जैसे अखिल भारतीय सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक महत्वाकांक्षाओं में पनाह ले रही हैं। यह बहस का मुद्दा है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को किस हद तक पूरा कर सकती हैं। तब कुछ जातियों को सशक्तीकरण की राजनीति से अपेक्षाकृत कम फायदा हुआ था, उदाहरण के लिए, अरुन्थियार दलित जाति उनमें से एक है। उनका भाजपा को समर्थन केवल उनके आधार को थोड़ा बढ़ा सकता है, इसलिए पार्टी को अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 20 सीटें दी हैं। डीएमके और एआईडीएमके दोनों को इन सभी जातियों का समर्थन हासिल हैं।

गुप्त और चालाकी भरा खेल 

दरअसल, भविष्य में भाजपा की बढ़त एआईडीएमके के भाग्य पर निर्भर करती है। इसीलिए भाजपा ने द्रमुक की हार को अपना पहला उद्देश्य बना लिया है, वह इसलिए क्योंकि द्रमुक   तमिल मिली-जुली पहचान का ध्वजवाहक है, जो हिंदुत्व विचारधारा के विरुद्ध है। इसका मतलब यह नहीं है कि अन्नाद्रमुक ने तमिल पहचान बनाने की परियोजना में अर्जित हिस्सेदारी को छोड़ दिया है। लेकिन जे॰ जयललिता की मौत के बाद गुटबाजी ने एआईएडीएमके को कमजोर बना दिया है। बीजेपी ने एआईडीएमके को पछाड़कर अपने विकास के रास्ते को तय करने का मौका देखा। 

यही कारण है कि बीजेपी ने फिल्म-स्टार रजनीकांत को विधानसभा चुनावों के लिए एक नई पार्टी बनाने के लिए प्रोत्साहित किया था- ताकि एआईडीएमके के आधार में सेंघ लगाई जा सके। गठबंधन के प्रमुख पार्टनर को कम आंकने की रणनीति को बिहार में भाजपा ने आजमाया था,  जहाँ इसने लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान को जनता दल-युनाइटेड को दुर्बल करने के लिए उकसाया था। रजनीकांत ने एक पार्टी बनाई लेकिन फिर पीछे हट गए। 

रजनीकांत के पीछे हटने ने भाजपा को एहसास दिलाया कि तमिलनाडु में बने रहने के लिए और द्रमुक को चुनौती देने के लिए अन्नाद्रमुक ही मजबूत साथी बन सकती है। जब दिवंगत मुख्यमंत्री जे॰ जयललिता की सहयोगी वीके शशिकला जेल से रिहा हुई और उनका जोरदार स्वागत हुआ, तो भाजपा की एआईएडीएमके के साथ गठबंधन करने की इच्छा पैदा हुई। आरएसएस के विचारक एस गुरुमूर्ति, जिन्होंने अतीत में शशिकला की कड़ी आलोचना की थी, ने कहा: “यदि आपके घर में आग लगी है, तो आप इसे बुझाने के लिए गंगा पानी का इंतजार नहीं कर सकते। आप इसे सीवर के पानी से भी बुझा सकते हैं।”

कई लोगों ने सीवर शब्द को जातिवाद सूचक के रूप में समझा, एक अन्य उदाहरण की कैसे संघ की उच्च-जाति की मानसिकता अनजाने में प्रकट होती है, इसका यह जीता-जागता उदाहरण है। हालांकि, गुरुमूर्ति ने एक किसी अन्य संदर्भ में अनुभवी पत्रकार अरुण शौरी की लाइन कहकर आलोचना को चकमा देने की कोशिश की।

गुरुमूर्ति की टिप्पणी से यह भी पता चला कि शशिकला और अन्नाद्रमुक के अलग-अलग चुनाव लड़ने से डीएमके को आसान जीत मिल जाएगी। रहस्यमय तरीके से, शशिकला ने अपने पहले के चुनावी मैदान में कूदने के फैसले को रद्द कर दिया। हालाँकि, उनके भतीजे टीटीवी दिनाकरन के नेतृत्व वाली पार्टी अम्मा मक्कल मुनेत्र कड़गम 2021 का चुनाव लड़ रही हैं। 2019 के आम चुनावों में एएमएमके को 5 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे, यह वोट काफी हद तक अन्नाद्रमुक के वोट-बेस से निकाला गया था। यदि अन्नाद्रमुक खराब प्रदर्शन करती है, तो भाजपा आक्रामक रूप से अन्नाद्रमुक के एक बड़े हिस्से को अपने तहत लाने की कोशिश  करेगी, ताकि वह अपने हिंदी-हिंदू-हिंदुत्व/हिंदुस्तान को सर्व-साधारण पार्टी होने स्पर्श दे सके।

सौज- न्यूजक्लिकविग्नेश कार्तिक केआर किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट, किंग्स कॉलेज लंदन में डॉक्टरेट शोधकर्ता हैं और एक राजनीतिक विश्लेषक भी हैं। एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें ( अनुवाद- महेश कुमार)

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