कोरोना कोई ढोल बजा कर नहीं आता। अगर कुंभ स्थगित हो जाता तो न धर्म का लोप होता न हिंदू समाज का। अलबत्ता एक मैसेज यह जाता कि हिंदू एक सहिष्णु और सभ्य व वैज्ञानिक चेतना वाली क़ौम है।
कोई भी धर्म, कोई भी कर्मकांड, कोई भी विचार मनुष्य से ऊपर नहीं हो सकता। मनुष्य है, तब ही धर्म है, कर्मकांड है और विचार है। इसीलिए इस बार हरिद्वार का कुंभ स्थगित किया जा सकता था। क्योंकि चाहे जितनी जाँच कर लो, दवाएँ ले लो अथवा टीका लगवा लो, अगर कोई कोरोना संक्रमित है तो उसे पकड़ा नहीं जा सकता। कोरोना कोई ढोल बजा कर नहीं आता। अगर कुंभ स्थगित हो जाता तो न धर्म का लोप होता न हिंदू समाज का। अलबत्ता एक मैसेज यह जाता कि हिंदू एक सहिष्णु और सभ्य व वैज्ञानिक चेतना वाली क़ौम है। ऐसा नहीं है कि पहले कभी कुंभ स्थगित नहीं हुए। आपदा-बिपदा में अक्सर कुंभ स्थगित होते रहे हैं। शायद इसीलिए यह उक्ति बनाई गई होगी कि “आपत्तिकाले मर्यादानास्ति!” यानी आपत्ति काल में कोई शास्त्रोक्त मर्यादा नहीं होती। इसलिए धर्म का कर्मकांड समयानुकूल होना चाहिए। पिछले वर्ष चैत्र नवरात्रि के पहले दिन से ही लॉक-डाउन लगा था। मंदिरों के पट बंद हो गए थे। तब भी लोगों ने पूजा-पाठ किए थे पर चुपचाप घर पर बैठ कर। फिर इस साल क्या दिक़्क़त थी?
यूँ भी धर्म की पालना तब ही संभव है, जब जान बची रहे। राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘घुमक्कड़ स्वामी’ में एक ऐसे घुमक्कड़ साधु का वर्णन किया है, जो यात्रा करते हुए कैलाश मानसरोवर पहुँच गए और तूफ़ान के बीच वहीं फँस गए। वहाँ कुछ तिब्बती लामा कन्दराओं में रहते थे, व वे जिस याक की सवारी करते थे, उन्हीं को काट कर जाड़ों में उनका मांस भून कर खाते थे। जाड़े में भूख मिटाने का और कोई ज़रिया वहाँ नहीं था। स्वामी जी, जाति से इटावा के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे जिनके यहाँ मांसाहार वर्जित है। और याक तो गाय की प्रजाति का पशु है। लेकिन यदि नहीं खाते हैं तो जान जाती है। स्वामी जी ने फ़ैसला किया और याक का मांस खा कर जान बचायी। उनके बहुत से साथी भूख से मर गए। उन स्वामी जी ने बाद में राहुल जी से कहा, कि अगर मैं जीवित ही नहीं रहता तो धर्म बचा कर भी क्या कर लेता! यह साफ़गोई और विवेक ही किसी समाज को ज़िंदा रखता है। लेकिन जब कूप-मंडूकता और अंध भक्ति चरम पर हो तो धर्म, समाज और राजनीति विवेक को खो देती है।
अब आज के समय में जब कोरोना की दूसरी लहर अपने घातक रूप से सामने खड़ी हो और मृत्यु हर कहीं दस्तक दे रही हो, तब सोमवारी अमावस्या (12 अप्रैल) समेत हरिद्वार में कुंभ के सभी स्नान स्थगित किए जा सकते थे। हरिद्वार में 12 अप्रैल को मेले में आए 408 लोग कोरोना संक्रमित पाए गए थे। अगले रोज़ यह संख्या 594 हो गई। इनमें से 18 साधु भी संक्रमित मिले। इसके बावजूद 14 अप्रैल (बैशाखी) के शाही स्नान को भी नहीं रोका गया। इसके अलावा हरिद्वार में 200 लोग पहले से कोरोना संक्रमित थे। ज़ाहिर है, ये लोग कोई आइसोलेशन में नहीं थे और स्वस्थ लोगों के संपर्क में भी आए होंगे। इन लोगों के स्पर्श से कितने और लोग संक्रमित हुए होंगे, इसका कोई आँकड़ा नहीं है। ऐसे में कुंभ स्नान को टाल देना बेहतर विकल्प होता। आख़िर पिछले वर्ष उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सावन के महीने में कांवड़ियों के हरिद्वार प्रवेश पर रोक लगाई ही थी और उसके सार्थक परिणाम भी सामने आए थे। किंतु उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री तीरथसिंह रावत ने यह फ़ैसला नहीं किया। नतीजा सामने है। कुंभ को टालने का फ़ैसला कोई इतिहास में पहली बार नहीं हुआ होता, इसके पहले भी कई बार हरिद्वार में कुंभ को स्थगित करना पड़ा है।
अब तक के ज्ञात इतिहास में पता चलता है कि तैमूर लंग के हमले के बाद हरिद्वार में शाही स्नान स्थगित कर दिए थे। 1398 में जब उसने दिल्ली को फ़तेह किया, तभी उसे किसी ने हरिद्वार में लगने वाले कुंभ मेले की तरफ़ ध्यान दिलाया था। उसे भड़काया गया कि वहाँ हिंदू लोग खूब पैसा लेकर आते हैं और दान-दक्षिणा करते हैं। वहाँ के मंदिरों में सोना गड़ा है। उसने हरिद्वार कूच किया और हज़ारों लोग मारे गए। ख़ुद तैमूर लंग ने अपनी आत्म कथा ‘तुजक-ए-तैमूर’ में यह वर्णन किया है। इसके बाद से हरिद्वार कुंभ में स्नान गृहस्थों के लिए रोक दिया गया। और हमलावरों से रक्षा के लिए 1565 में मधुसूदन सरस्वती ने ऐसे साधुओं की सेना खड़ी की जो कुंभ में हमलावरों से स्नान करने आने वालों की रक्षा कर सके।
जब दिल्ली में मुग़ल बादशाह अकबर गद्दीनशीं हुए, तब हिंदू गृहस्थ फिर से हरिद्वार कुंभ में स्नान के लिए आने लगे। ख़ुद राजा मानसिंह कई बार हरिद्वार कुंभ में गए। कहा जाता है, कि अकबर के पीने के लिए गंगा जल हरिद्वार से आता था। 1760 में हरिद्वार कुंभ के दौरान शैव और वैष्णव सम्प्रदाय के साधु परस्पर भिड़ गए। इसमें 1800 साधुओं की जान गई। इसके बाद फिर हरिद्वार कुंभ सिर्फ़ संन्यासियों के लिए हो गया और गृहस्थों ने आना बंद कर दिया। 1803 में दूसरे आँग्ल-मराठा युद्ध के बाद अपर दो-आब अंग्रेजों के पास चला गया। इसलिए हरिद्वार कुंभ को सरकारी आदेश से आम लोगों के लिए बंद हो गया। इसके बाद 1820 में हरिद्वार कुंभ पड़ा तो भारी भगदड़ मच गई। क़रीब 500 लोग मारे गए। इसके बाद दो कुंभ में आम जनता नहीं आई। 1856 में झगड़े की आशंका के चलते सिर्फ़ साधु लोग ही कुंभ में आए। बाद में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफ़सरों को पता चला, कि इस कुंभ में जुटे साधुओं में अन साधुओं की संख्या भी ख़ासी थी, जिन्होंने कम्पनी सरकार के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काया। ग़दर के बाद ब्रिटिश सरकार ने ऐसे किसी जुटान पर रोक लगा दी।
इस रोक के बाद 1906 में हुए हरिद्वार कुंभ का पता चलता है, जिसमें पटियाला की महारानी की विशालकाय छावनी देख कर तो अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गए। कोई देसी रियासत इतना तड़क-भड़क कर सकती है, यह उन्हें समझ न आया। 1918 का कुंभ इंफ़्ल्यूइंजा के चलते रद्द रहा। 1945 में प्लेग फैलने के कारण सब जगह के कुंभ मेले प्रतिबंधित कर दिए गए। सिर्फ़ साधु लोग ही स्नान कर सकते। 1950 के हरिद्वार कुंभ से पुनः गृहस्थ लोग आने शुरू हुए।
आज़ादी के बाद 1954 में प्रयाग का कुंभ पड़ा। इसमें भारी भगदड़ मची और हज़ारों लोग लापता हो गए। 1962 में हरिद्वार कुंभ को भारत-चीन युद्ध की वजह से आम लोगों को रोकना पड़ा। इसके बाद से कुंभ नियमित चल रहे हैं। 1998 के हरिद्वार कुंभ में हरियाणा के एक वीवीआईपी नेता स्नान करने आए। उनके लिए विशेष व्यवस्था की गई। इसी बीच साधु लोग क्रुद्ध हो गए और भगदड़ मच गई, जिसमें कई लोग मारे गए। इसके बाद मुख्य स्नान में वीआईपी लोगों को रोकने का नियम बना। हालाँकि हरिद्वार में हर की पैड़ी के सामने वीआईपी घाट बना हुआ है पर मोक्ष की आकांक्षा में लोग हर की पैड़ी में ही स्नान करते हैं। जब हर की पैड़ी में जो गंगा जल आ रहा है, वह बैराज का पानी है। गंगा की मुख्यधारा तो चंडी देवी की तरफ़ बहती है। लेकिन हर की पैड़ी के संकरे घाट में एक साथ लाखों लोगों का स्नान बीमारियों को भी न्योतता है तथा किसी अनहोनी को भी। इसलिए या तो नहाने के लिए कोई विस्तृत मैदान हो अन्यथा हरिद्वार कुंभ में स्नान को सिर्फ़ साधुओं के लिए किया जाए।
सच बात तो यह है, कि कुंभ स्नान का महत्त्व सिर्फ़ प्रयागराज का है, जहां गृहस्थ लोग भी स्नान कर सकते हैं। बाक़ी स्थानों में सिर्फ़ अखाड़ों के साधु-संन्यासियों के स्नान का ही महत्त्व है। यही होता भी रहा है। इसीलिए हरिद्वार में अखाड़ों के ही मुख्यालय हैं। यूँ भी हिंदू धर्म में हरिद्वार का सम्बंध पितरों के तर्पण से है। किंतु मंदिरों और महंतों ने इसे कुंभ से जोड़ दिया। मगर जो भी धार्मिक स्थल आम लोगों के लिए खुला हो, वहाँ पर प्रवेश प्रतिबंधित होना आवश्यक है। मान्यता है कि साधु लोग चूँकि बस्तियों से दूर रहते हैं इसलिए छूत की बीमारियों से वे दूर रहते हैं। ऐसे में यदि हरिद्वार कुंभ को साधुओं तक सीमित रखा जाता तो इस कोरोना को रोकने में कुछ तो मदद मिलती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज- न्यूजक्लिक
सर्वथा उचित एवं सामयिक। धर्माधिकारियों ने अपना विवेक और प्रभुत्व स्थगित कर दिया है।