भारत में स्वास्थ्य संकट और मौतों के लिए अकेले महामारी जिम्मेदार नहीं है। स्वास्थ्य पर अपर्याप्त बजट आवंटन ने हमारी स्वास्थ्य प्रणाली को कुचल कर रख दिया है।
करीब दो महीने से भारत के लोगों को बेहद दुखद और चिंतनीय हालात का सामना करना पड़ा है। अस्पतालों में कोविड मरीजों के ऑक्सीजन की कमी से दम घुटने वाले दृश्य लंबे समय तक इंसानी स्मृति में रहेंगे। न जाने कितनी त्रासदियां हैं जिनका वर्णन किया जा सकता हैं। लेकिन जो सबसे बड़ा सवाल है: वह यह कि आखिर ऐसा क्या गलत हुआ? आखिरकार, स्वास्थ्य क्षेत्र में मौजूद कमियां जो महामारी से निपटने में सामने आई थी, वह करीब एक साल पहले की बात थी। पहले से मौजूद इस चेतावनी के बावजूद, सरकार दूसरी लहर से पनपे कहर का सामना करने के करीब भी नहीं पहुंची और आवश्यक जीवन रक्षक उपकरणों, दवाओं, ऑक्सीज़न आदि की संभावित कमी को दूर करने में विफल रही, नतीजतन बड़ी संख्या में हर तरफ मौतें।
सच बात तो यह है कि समस्या सिर्फ महामारी की नहीं है बल्कि तीन अन्य ऐसी घनघोर गड़बडियाँ हैं जो स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को प्रभावित करती हैं। ये समस्याएँ हाल के दिनों में और बढ़ गई है, जिसने हमें दहशत भरे संकट की तरफ मोड़ दिया जहां आज हम खड़े हैं। सबसे पहली समस्या, सरकारें सभी को न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित करने में विफल रहीं है। दूसरा, स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में असमानताएं काफी ऊंची और बड़ी हैं। हमारे देश में धनी लोगों के लिए पांच सितारा सुविधाओं वाले अस्पताल हैं जबकि गरीब समुदायों के लिए बने सार्वजनिक अस्पतालों, सामुदायिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में आवश्यक दवाओं, बुनियादी उपकरणों, डॉक्टरों आदि की प्रचुर मात्रा में कमी है। तीसरा, आम लोगों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के लिए मंत्रालय से आवंटन काफी कम है। इसके ऊपर, संसाधनों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे ऐसे कार्यक्रम ले जिससे लाभ-उन्मुख निजी स्वास्थ्य संस्थानों को अधिक मुनाफा हो। कई बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां और अंतरराष्ट्रीय संगठन इन संस्थानों को चलाते हैं और इस तरह के नीतिगत बदलावों पर जोर देते हैं।
कोविड-19 महामारी के दौरान असमानताओं पर ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट (द इनइक्वलिटी वायरस एंड इट्स इंडिया सप्लीमेंट) इस बात पर प्रकाश डालती है कि कम आवंटन और कमजोर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली किसी भी महामारी को नियंत्रित नहीं कर सकती है या बीमारों को उचित और समय पर देखभाल प्रदान नहीं कर सकती है। सरकारी खर्च के मामले में भारत का स्वास्थ्य बजट सबसे कम है। यह भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को नाज़ुक, कमजोर और स्वास्थ्य कर्मी की संख्या में भारी कमी को दर्शाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 15-20 प्रतिशत के मानदंड के विपरीत, भारतीय अपने स्वास्थ्य व्यय का 58.7 प्रतिशत अपनी जेब से खर्च करते हैं।
हालांकि, केंद्रीय बजट 2021-22 स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में वृद्धि का आभास देता है। हालांकि, यह केवल दिखने वाला भ्रम है जो स्वास्थ्य और कल्याण की एक निर्मित श्रेणी के भीतर मौजूद पोषण, स्वच्छता और जल आपूर्ति बजट को भी शामिल करके बनाया गया है। यदि ये सभी खर्च (जिसमें कोविड-19 के टीके का बजट भी शामिल है) हटा दें तो स्वास्थ्य बजट में वृद्धि भी गायब नज़र आएगी। महामारी के दौरान, गैर-कोविड रोगियों की नियमित चिकित्सा बंद हो गई है। इसके बावजूद, सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए बजट आवंटन में कोई खास या महत्वपूर्ण बढ़ोतरी नहीं की है।
वास्तव में, हाल के वर्षों में, केंद्र और राज्य सरकारों, दोनों ने स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.35 प्रतिशत ही आवंटित किया है। यह आश्चर्यजनक रूप से कम है और सरकार ने स्वीकार भी किया है कि उसे इसे बढ़ाकर 2.50 प्रतिशत करने की जरूरत है। सरकार का घोषित लक्ष्य हर साल खर्च का प्रतिशत बढ़ाना है जब तक कि वह इस लक्ष्य को पूरा नहीं कर लेती है। हालांकि, इस साल और पिछले वित्तीय वर्ष में, केंद्र सरकार का खर्च (कृत्रिम खर्च को घटाकर) लगभग 50,000 करोड़ रुपए कम रहा है।
जब हम केंद्रीय बजट के रूप में देखते हैं तो 2017-18 (वास्तविक व्यय) में स्वास्थ्य आवंटन 2.55 प्रतिशत से घटकर 2021-22 (बजट अनुमान) में 2.21 प्रतिशत रह जाता है। धन की यह कमी बताती है कि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी 80 प्रतिशत के करीब क्यों है, जबकि इन केंद्रों की संख्या सरकार द्वारा स्वयं बताई गई जरूरत से लगभग 37 प्रतिशत कम है। (हमारे देश में करीब 23 प्रतिशत उप-केंद्रों और 28 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की भी कमी है।) भारत में प्रति 1,000 लोगों पर केवल 0.55 सरकारी अस्पताल के बिस्तर हैं जबकि डब्ल्यूएचओ का मानदंड इसके लिए प्रति 1,000 लोगों पर 5 बिस्तर का है।
इस तरह की आपातकालीन स्थिति के दौरान भी स्वास्थ्य क्षेत्र में धन की कमी मौजूद है, लेकिन सेंट्रल विस्टा और केन-बेतवा नदी-जोड़ने की परियोजना अभी भी आगे बढ़ रही है। इसके लिए कई इस्तेमाल की जाने वाली ऐतिहासिक इमारतों और सार्वजनिक स्थानों को ध्वस्त कर दिया जाएगा। और बाद में, 20 लाख से अधिक पेड़ों को काट दिया जाएगा।
हमें स्वास्थ्य सेवा के गुणात्मक पहलुओं पर भी नज़र डालने की जरूरत है। जून 2020 में प्रकाशित सुनीला गर्ग, सौरव बसु और अन्य सामुदायिक चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में किए गए एक सर्वेक्षण के आधार पर किए अध्ययन में पाया गया कि उनमें से 57 प्रतिशत केन्द्रों में अपर्याप्त वेंटिलेशन यानि हवा की आवाजाही ठीक नहीं है, 75.5 प्रतिशत में हवा से होने वाले संक्रमण को रोकने का कोई साधन नहीं हैं, और 50 में एन95 मास्क उपलब्ध ही नहीं थे। यह बात मानने का कोई कारण नज़र नहीं आता कि एक वर्ष में स्थिति बदल गई है। वास्तव में, कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया – ताकि वहाँ के कर्मचारी ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 की ड्यूटी पर जा सकें – इसने भी ऐसी स्थिति में योगदान दिया, जिससे कमजोर लोगों के पास नियमित बीमारियों के इलाज के लिए कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं बचा है।
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सरकार तत्काल स्वास्थ्य जरूरतों के लिए संसाधन जुटाने में नाकामयाब रही है। उसी ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, अगर भारत सरकार देश में मौजूद शीर्ष 11 अरबपतियों पर महामारी के दौरान उनकी कुल संपत्ति पर मात्र 1 प्रतिशत का टैक्स लगा देती तो इससे जन औषधि योजना के आवंटन में 140 गुना की बढ़ोतरी हो जाती। यह योजना गरीबों और वंचित तबकों को सस्ती दवाएं उपलब्ध कराती है, जो इस संकट के दौरान सबसे ज्यादा पीड़ित हुए हैं।
अंत में, कोविड-19 संकट का सामना करने में लाभ-संचालित निजी स्वास्थ्य सेवा का योगदान काफी संदिग्ध लगता है। पिछले साल, बिहार के स्वास्थ्य मामलों के प्रमुख सचिव संजय कुमार ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए मैसेजिंग प्लेटफॉर्म ट्विटर का सहारा लिया था। उन्होंने लिखा: “राज्य में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र का लगभग पूरी तरह से पीछे हटना निंदनीय और विचारोत्तेजक बात है। सार्वजनिक क्षेत्र के 22,000 बेड की तुलना में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में 48,000 बेड हैं और सभी ओपीडी (बाहरी रोगी विभाग) का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है। कोविड-19 को भूल जाओ, यहां तक कि नियमित सेवाएं भी उपलब्ध नहीं हैं।”
ऑक्सफैम की रिपोर्ट यह भी बताती है कि महामारी के दौरान कई निजी अस्पतालों ने भारी मुनाफाखोरी की है। रिपोर्ट कहती है कि एक निजी अस्पताल में कोविड-19 के इलाज़ में अत्यधिक गरीब आबादी वाले 13 करोड़ भारतीयों की मासिक आय का 24 गुना खर्च शामिल हो सकता है। अब तक तो यह कई भारतीयों के लिए एक जीवंत वास्तविकता बन गई है- और सरकार इस साल भी इसे नहीं रोक पाई है। स्वास्थ्य सेवाओं और सुविधाओं की दरों में कई गुना वृद्धि हुई है, अक्सर रातों-रात, ऐसी दरें पेल दी गई जिसे कई अमीरों के लिए भी सहन करना मुश्किल था। उदाहरण के लिए, दिल्ली के एक प्रमुख निजी अस्पताल ने वेंटिलेटर और आईसीयू बेड के इलाज़ की दैनिक लागत 72,500 रुपए वसूल की है, जो वसूली परामर्श शुल्क, दवाओं और अन्य उपभोग की सामग्रियों को अलग है।
करीब एक साल बीत गया है, महामारी में कुछ महीनों की राहत को छोडकर, मध्यम वर्ग और गरीब तबका अपने बीमार दोस्तों, परिवार के सदस्यों को अस्पताल में बेड दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि अमीर और शक्तिशाली तबका आईसीयू बेड “बुक” किए अस्पताल में पड़े थे भले ही उनमें कोविड-19 के लक्षण कुछ खास नहीं थे। हर तरह से देखा जाए तो, एम्बुलेंस, बेड, आईसीयू, वेंटिलेटर, जीवन रक्षक दवाओं और साधारण दवाओं की कमी आज भी स्वास्थ्य प्रणाली को प्रभावित कर रही है और इन सभी वस्तुओं की काला बाज़ारी फल-फूल रही है।
सरकार को हर किस्म की फिजूलखर्ची बंद करनी चाहिए और अपने संसाधनों को स्वास्थ्य क्षेत्र में लगाना चाहिए। सरकार को जरूरी जीवन रक्षक उपकरणों और दवाओं की भरपाई को प्राथमिकता देनी चाहिए। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य को मजबूत करने के लिए दीर्घकालिक प्रयास जरूरी हैं ताकि अधिक संसाधन दिए जा सके। यदि भारत को अपनी किसी भी किस्म की आकांक्षा को पूरा करना है तो इन मांगों और जरूरतों का कोई शॉर्टकट नहीं है।
भरत डोगरा एक पत्रकार और लेखक हैं। उनकी हाल की किताबों में प्रोटेक्टिंग अर्थ फॉर चिल्ड्रन एंड प्लेनेट इन पेरिल शामिल हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। सौज- न्यूजक्लिक अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें