जो आसानी से समझा न जाए वह या तो देवता बना दिया जाता है या उसे सजा दी जाती है. तो आसानी के इस जमाने में नेहरू को ठिकाने लगाने की जुगत देखकर हैरानी क्यों हो! आश्चर्य नहीं कि नेहरू ज़्यादातर लोगों को समझ में नहीं आए और न अब भी आते हैं!
जब मैकदा छूटा तो फिर अब क्या जगह की कैद?
मस्जिद हो, मदरसा हो, कोई खानकाह हो!
हर बुल हवस ने हुस्न परस्ती शेआर की
अब आबरू-ए-शेवा-ए अहले नज़र गई.
पंडित जवाहरलाल नेहरू अहमदनगर किले की कैद से अपनी बेटी इंदिरा के नाम लिखे एक ख़त को ग़ालिब के लिखे इन दो अशआर से ख़त्म करते हैं. ख़त 1943 की दो अक्टूबर का लिखा हुआ है. यह नेहरू की अनेक जेल यात्राओं में से एक थी. नेहरू ने तय किया था कि अपने हर ख़त में उर्दू के दो शेर लिखा करेंगे. जेल में मौलाना आज़ाद उनके साथी थे जिन्हें उन्होंने अपना उस्ताद बनाया था.
इनमें से पहला शेर तो आसान है, नेहरू लिखते हैं, लेकिन दूसरा ज़रा मुश्किल. जब लोभियों की सौंदर्य उपासना का धंधा चमक रहा हो तो फिर दृष्टिसंपन्न, विवेकवान लोगों को इज्जत कहां!
यह ताज्जुब नहीं कि नेहरू की प्रतिष्ठा आज के सरकारी हलके में नहीं के बराबर है. आज मौक़ा है कि उन्हें हम सब अपनी निगाह से सीधे देखने और समझने की कोशिश करें. सबसे बड़ा अवसर तो कांग्रेस पार्टी को है कि वह भारत की खोज करने वाले नेहरू की नए सिरे से खोज करने का प्रयास करे.
नेहरू की खोज का सबसे अच्छा रास्ता उनकी किताबें हैं – उनकी आत्म कथा, भारत की खोज, विश्व इतिहास की झलकियां और उनके खतों और अलग-अलग मौकों पर लिखे भाषणों और लेखों के संग्रह.
कुछ साल पहले बिहार के एक समाजवादी नेता के पुत्र और खुद को समाजवादी मानने वाले राजनेता ने आत्मस्वीकृति करते हुए लिखा कि उन जैसों की ज़िंदगी नेहरू से नफरत करते हुए निकल गई क्योंकि उन्हें लोहियावादी राजनीति ने यही सिखाया था. अपने जीवन के उत्तरार्ध में नेहरू को जब उन्होंने पढ़ना शुरू किया तो पछतावा हुआ कि इतना वक्त क्यों व्यर्थ किया!
नेहरू एक सार्वजनिक शख्सियत थे. लेकिन उस सार्वजनिकता की भीड़भाड़ में वे अपनी निजता का लोप नहीं होने देना चाहते थे. इसीलिए जेल की सजा का उन्होंने हमेशा स्वागत किया. आखिर यह उन्हें अपने साथ, निपट अकेले रहने का मौक़ा जो देती थी. एक ख़त में तो वे यहां तक लिखते हैं कि मेरा जेल से निकलने का कोई इरादा नहीं है.
जेल से निकलने की छटपटाहट कभी नेहरू में नहीं दिखाई देती. बल्कि उस वक्त के किसी कांग्रेसी में भी नहीं. वे सब धैर्य के साथ अपने हिस्से की सजा भुगतते हैं. लेकिन जेल में रहते हुए वे कुढ़ते नहीं रहते. इसकी शिकायत कि स्वजनों से मुलाकातों या अपने लोगों के पत्रों की इजाजत इतनी कम है, उनके पत्रों में शायद ही हो!
अपने एक जेल के सफ़र में वे बेटी इंदिरा को लिखते हैं कि इस बार जेल में भाषाओं की आश्चर्यजनक विविधता और समृद्धि है! अनेकानेक भारतीय और कई विदेशी भाषाओं के माहिर यहां हैं और यह कितना अच्छा मौक़ा है नई जुबानें सीखने का. फिर वे अपनी बढ़ती उम्र की मजबूरी पर अफ़सोस करते हैं कि वे शायद सिर्फ उर्दू और फारसी की मश्क ही कर सकेंगे. इसके लिए मौलाना आज़ाद जैसा उस्ताद साथ हो तो फिर क्या बात है, लेकिन उनका पांडित्य ज़रा घबरा देने वाला है.
इसी क्रम में वे हर खत में शेर लिखते हैं. उनका चुनाव दिलचस्प है. एक पत्र में वे हाली को उद्धृत करते हैं:
सर्वो कुमरी में यह झगड़ा है वतन किसका है.
कल खजां आके बता देगी चमन किसका है.
फैसला गर्दिशे दौरां ने यह सौ बार किया.
मरवा किसका है, बदख्शां व खतन किसका है. ( ये तीनों नाम जगहों के हैं)
राष्ट्रों की मिल्कियत को लेकर जो विवाद होते हैं, उस प्रसंग में यह शेर कितना प्रासंगिक है! एक दूसरे ख़त में वे अकबर इलाहाबादी का एक शेर लिखते हैं:
तू दिल में आता है, समझ में नहीं आता
मालूम हुआ, तेरी पहचान यही है!
नेहरू लिखते हैं कि यह शायद ईश्वर की सबसे करीबी परिभाषा है.
कविता से उनका लगाव और काव्यात्मकता के प्रति उनकी सावधान दृष्टि का पता चलता है जब वे अरविंद के काव्य ग्रन्थ के बारे में लिखते हैं. वे उनके पांडित्य, भाषा ज्ञान की प्रशंसा करते हैं लेकिन साथ ही यह भी लिखते हैं कि अरविंद के ग्रन्थ में बीच-बीच में एकाध पंक्ति में कविता चमक उठती है. भाषा को लेकर नेहरू ज़रा नकचढ़े माने जाते रहे हैं. लेकिन वे कोई अंग्रेज़ी के कैदी नहीं जैसा अक्सर बताने की कोशिश की जाती रही है.
नेहरू मथुरा के सफ़र के बारे में इंदिरा को बताते हुए अंग्रेजों के बनाए नाम मुत्थ्रा की लानत-मलानत करते हैं. मथुरा की यात्रा में ही उन्हें ब्रज न जानने का अफ़सोस भी होता है. उत्तर प्रदेश के गांवों में घूमते हुए वे किसान की सहज प्रज्ञा से चकित हो उठते हैं, लिखते हैं कि वे अपनी बात समझाने के लिए तुलसी या किसी और कवि की पंक्ति तुरत उद्धृत कर सकते हैं.
ऐसी ही एक यात्रा में एक खेत में कुएं पर नहाने जब नेहरू और उनके साथी कांग्रेसी पहुंचे तो उसके मालिक ने कहा कि पहला मोट तो कन्हैयाजी के लिए ही होगा, उसका इस्तेमाल हम आप अपने लिए नहीं कर सकते! (कन्हैया! – आह, कितना प्यारा नाम है, नेहरू लिखते हैं) वैसे तो पांच मोट कन्हैया और अन्य देवताओं के लिए है लेकिन पहला तो कन्हैयाजी को अर्पित किया ही जाएगा! इस पर कांग्रेसी बंधुओं को कोई ऐतराज नहीं है, यह देखकर उस किसान ने संतोष व्यक्त किया कि अब कांग्रेसियों और किसानों में सुमति दीख रही है – जहं सुमति तंह सम्पत्ति नाना.
नेहरू को सुमति की यह लोक अवधारणा बहुत पसंद आई.
भाषा के ऐसे सौंदर्य के प्रति नेहरू के लगाव का कुछ संबंध उनकी जनतांत्रिकता से भी है. यह परिष्कृत जनतांत्रिकता है. नेहरू को सड़क, पगडंडियों और खेतों की धूल से परहेज नहीं लेकिन वे तुच्छ, फूहड़ और सड़कछाप से सख्त नफरत करते हैं. ये अवगुण कोई निरक्षरों के नहीं, अक्सर शिक्षित और धनवान इस अपरिष्कार के संरक्षक और वाहक होते है. ताज्जुब नहीं कि नेहरू शहरी पार्टियों और जलसों से घबराते थे और उनसे बेहतर किसानों की संगत को मानते थे. किसानों के धरती से लगाव के कारण उनमें स्थिरता, जीवंतता और सच्चाई दिखाई देती थी जो शहरी बनावट में न थी.
नेहरू को मौक़ा मिलता तो वे शायद सारी भीड़ छोड़कर एकांत चुन लेते. वह उन्हें मयस्सर न था. चाहत उसकी बनी रही. अहमदनगर किले की जेल से ही एक दूसरे ख़त में उन्होंने इंदिरा के लिए एक शेर चुना:
है आदमी बजाए खुद एक महशरे खयाल
हम अंजुमन समझते हैं खलवत ही क्यों न हो.
इस शेर की उन्हें एक और बार याद आई, जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र उन्हें एक सभा के लिए बुलाने आए. नेहरू ने उनसे कहा कि: मेरे भीतर जो सभा (अंजुमन) चल रही है, उसका मैं क्या करूं!
आश्चर्य नहीं कि नेहरू ज़्यादातर लोगों को समझ में नहीं आए और न अब भी आते हैं! जो आसानी से समझा न जाए, वह या तो देवता बना दिया जाता है या उसे सजा दी जाती है! आसानी के इस जमाने में अगर नेहरू को ठिकाने लगाने की जुगत लगाई जा रही हो तो यह वक्त के स्वभाव के अनुरूप ही है.
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्याग्रह