केंद्र सरकार ने संसद में कहा है कि राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना के अंतर्गत बुजुर्गों को दी जाने वाली मासिक पेंशन की राशि में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी। इस समय इस योजना के अंतर्गत 60 से 79 साल तक उम्र वालों के लिए 200 रु महीना और 80 वर्ष और उससे अधिक आयु वालों के लिए 500 रु महीना पेंशन दी जाती है।
केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय में कनिष्ठ मंत्री, साध्वी निरंजन ज्योति ने संसद में कहा है कि राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना के अंतर्गत बुजुर्गों को दी जाने वाली मासिक पेंशन की राशि में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी। (द टेलीग्राफ, 22 अगस्त)। इस समय इस योजना के अंतर्गत लाभार्थियों को दी जाने वाली बहुत भारी रकम इस प्रकार है: 60 से 79 साल तक उम्र वालों के लिए 200 रु महीना और 80 वर्ष और उससे अधिक आयु वालों के लिए 500 रु महीना।
यह शर्म से डूब मरने वाली बात है कि केंद्र सरकार बुजुर्ग नागरिकों को इतनी तुच्छ रकम दे रही है। इससे भी बदतर यह है कि इस रकम में भी पिछले अनेक वर्षों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। और तो और इस पेंशन को मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी तक से नहीं जोड़ा गया है। बेशक, राज्य सरकारें भी अपनी ओर इस पेंशन में थोड़ा बहुत इजाफा जरूर करती हैं, फिर भी यह रकम 500 रुपये महीना से ऊपर शायद ही पहुंचती है।
इस तरह, जो बुजुर्ग किसी अन्य संस्थागत पेंशन योजना से कवर नहीं होते हैं, उन्हें हमारे देश में ज्यादा से ज्यादा इतनी ही पेंशन मिलती है। इतना ही नहीं, इस पेंशन की पात्रता रखने वालों में से भी बहुत बड़ी संख्या को तो यह पेंशन भी नहीं मिलती है। 2016-17 में एनएसएपी के अंतर्गत इस पेंशन पर केंद्र सरकार ने कुल करीब 5,900 करोड़ रु का खर्चा किया था। यह सिर्फ 2.46 करोड़ लाभार्थियों के लिए 200 रु प्रतिमाह ही बैठता है।
यह सरकारी पेंशन के पात्रों की कुल संख्या का एक छोटा सा हिस्सा भर है। 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या अनुमानत 12 करोड़ होगी, जो कि मोटे तौर पर देश की कुल आबादी के 10 फीसद के बराबर है। इनमें से ऐसे लोगों का हिस्सा जो किसी भी संस्थागत पेंशन योजना के अंतर्गत नहीं आते हैं, मोटे तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम में लगे लोगों के बराबर माना जा सकता है यानी कुल काम में लगे लोगों का करीब 85 फीसद। उस सूरत में, करीब 10 करोड़ लोगों को सरकार से वृद्धावस्था पेंशन मिल रही होनी चाहिए थी।
कृषि के क्षेत्र में ही, जिसमें देश की कुल श्रम शक्ति का करीब आधा हिस्सा लगा हुआ है, यह संख्या 5 से 6 करोड़ होनी चाहिए। जब हम अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार, असंगठित विनिर्माण तथा लघु सेवाएं आदि में लगे लोगों पर विचार करते हैं, यह स्पष्ट है कि इस पेंशन के वास्तविक लाभार्थियों की संख्या, सरकारी पेंशन जितने लोगों को मिलनी चाहिए, लेकिन ये उसके करीब चौथाई हिस्से केे ही बराबर है। संक्षेप में यह कि सरकारी पेंशन योजना, बिल्कुल एक मजाक है। इसके तहत कुल 200 रु की जरा सी राशि दी जाती है और वह भी जितने लोगों को दी जानी चाहिए, उसके सिर्फ चौथाई हिस्से को।
इसके विपरीत, समाजसेवी संगठन इसकी मांग करते रहे हैं कि पेंशन, न्यूनतम मजदूरी के आधे के करीब होनी चाहिए। बेशक, वैधानिक न्यूनतम मजदूरी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। फिर भी अगर हम कुछ राज्यों में तय की गयी 300 रु की न्यूनतम वैधानिक दिहाड़ी को ही आधार बना लें तो, पेंशन की राशि 4,500 रु प्रतिमाह होनी चाहिए। बहरहाल, वास्तव में अनेक संगठन सामान्यत: चालू कीमतों पर 3,000 रु महीना पेंशन की मांग करते आ रहेे हैं।
सरकार द्वारा सभी के लिए ऐसी पेंशन मुहैया कराने की दलील इस सिद्धांत पर आधारित है कि किसी भी जनतांत्रिक समाज को अपने बुजुर्गों से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वे अपना सेवाकाल पूरा होने के बाद, अपनी संतानों के ही सहारे जिंदा रहेंगे। इसलिए, ऐसे लोगों की विशाल संख्या के लिए जिन्हें या तो किसी भी संस्थागत पेंशन योजना की सुरक्षा हासिल नहीं है या जिनकी आमदनी इतनी कम है कि उनसे इसकी उम्मीद की ही नहीं जा सकती है कि वे अपने सेवाकाल के दौरान अपनी आय में वृद्धावस्था के लिए कुछ खास बचा सकते हैं, सरकार को पेंशन मुहैया कराने के लिए आवश्यक प्रावधान करने चाहिए।
इस मामले में सरकार की जिम्मेदारी इसलिए बनती है क्योंकि किसी व्यक्ति को काम से मिलने वाली सापेक्ष आय, जोकि देश की मौजूदा आय के वितरण के पैटर्न से बंधी होती है, सामाजिक रूप से निर्धारित होती है। इसलिए, यह सुनिश्चित करना समाज की जिम्मेदारी है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि सब को उपयुक्त तरीके से निर्वाह करने के लिए पर्याप्त पेंशन मिले। और यह जिम्मेदारी सरकार की हो जाती है, जो कि सामाजिक इच्छा की घोषित प्रतिपालक है।
ऐसे हालात में, सरकार का इस समय दी जा रही दयनीय पेंशन राशि में किसी भी बढ़ोतरी से ही इंकार करना, सरकार द्वारा अपने उत्तरदायित्व की बहुत ही निष्ठुर और अक्षम्य अवहेलना है। वास्तव में इसका सामंती, जातिग्रस्त व्यवस्था के मिजाज से ही ज्यादा मेल बैठता है, जहां गरीबों को ‘उनकी औकात में रखने’ के लिए, समुचित जीवन स्तर से वंचित रखा जाता है। जाहिर है कि ये व्यवस्था एक आधुनिक जनतांत्रिक समाज से मेल ही नहीं खाती है, जहां किसी भी नागरिक के पेंशन के अधिकार को स्वीकार किया जाता है।
इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए जरूरी संसाधनों का सवाल,सिद्धांततः अप्रासांगिक ही माना जाना चाहिए। यह ऐसा काम है जिसके लिए संसाधन तो जुटाने ही होंगे। अगर 10 करोड़ लोगों को 3,000 रु महीना पेंशन देनी है, तो इसके लिए साल में 3.6 लाख करोड़ रु की जरूरत होगी। यह मोटे तौर पर भारत की जीडीपी के 1.8 फीसद के बराबर बैठता है। लेकिन, अगर सरकार इस पेंशन पर जीडीपी का 1.8 फीसद खर्च करती है, तो जाहिर है कि यह पेंशन पाने वाले लोग इस राशि को विभिन्न मालों तथा सेवाओं को खरीदने पर खर्च करेंगे और ये राशियां उन मालों व सेवाओं के उत्पादकों के हाथों में आय पैैदा करेंगी।
ये लोग भी इस आय में से एक हिस्सा खर्च करेेंगे और खर्चे के एक के बाद एक चक्रों के जरिए, यह अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त आय पैदा कर रहा होगा। बहुत ही अनुदार अनुमान लगाएं तब भी, जीडीपी का 1.8 फीसद खर्च किए जाने से, जीडीपी के 3.6 फीसद के बराबर अतिरिक्त आय पैदा होगी (दो के गुणांक से) और इस पर केंद्र तथा राज्य, दोनों को मिलाकर, अगर कर-जीडीपी का 15 फीसद का अनुपात लगाकर चलें तो जीडीपी का 0.54 फीसद तो सीधे ही सरकार के हाथों में लौट आएगा। इसलिए, जीडीपी का 1.8 फीसद खर्च करने के लिए भी, सरकार को मोटे तौर पर, इससे 0.54 फीसद कम यानी जीडीपी के 1.26 फीसद के बराबर अतिरिक्त संसाधनों की ही जरूरत होगी।
अगर कोई सरकार ऐसी पेंशन योजना कायम करने के प्रति गंभीर हो, तो इसके लिए इतने साधन जुटाना कोई मुश्किल नहीं होना चाहिए। अगर हम देश की निजी संपदा को ही लें तो कम से कम कर के भी आंकें तब भी यह जीडीपी से चार गुनी जरूर बैठेगी, जोकि हमारे देश में देखने में आते रहे पूंजी-उत्पाद अनुपात से भी मेल खाता है। और अगर हम, आबादी के सबसे धनी 1 फीसद के पास, देश में मौजूद कुल निजी संपदा में से आधे की ही मिल्कियत मानें, जो पुन: बहुत ही अनुदार अनुमान है, तब भी आबादी के इस हिस्से की संपदा ही, देश के जीडीपी से दोगुनी बैठेगी। इस तरह, आबादी के सबसे धनी एक फीसद की संपदा पर सिर्फ 0.63 फीसद संपदा कर लगाना से ही इसके लिए काफी संसाधन मिल जाएंगे कि हमारे देश में एक करीब-करीब सार्वभौम पेंंशन योजना लागू हो, जिससे सिर्फ उन लोगों को ही बाहर रखा जाए, जिन्हें दूसरी संस्थागत पेंशन व्यवस्थाओं का संरक्षण हासिल है।
गौरतलब है कि संपदा कर लगाने का विचार हाल ही में अमरीका में पेश किया गया है, ताकि वहां शासन द्वारा कल्याकारी व्यवस्थाओं को मजबूत किया जा सके। चंद महीने पहले हुए अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में, डेमोक्रेटिक पार्टी की टिकट के उम्मीदवार, बर्नी सेंडर्स तथा एलिजाबेथ वारेन, दोनों ने ही अपने प्रचार के दौरान, उक्त दर से कहीं ज्यादा संपदा कर लगाने का सुझाव दिया था। और अंतत: राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल करने वाले जो बाइडेन भी, जो अमरीकी अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने के लिए सरकारी खर्च के उल्लेखनीय रूप से बड़े कार्यक्रम को छेड़ रहे हैं, वर्तमान से ज्यादा संपदा व कॉर्पोरेट कर लगाने के जरिए, इस प्रस्तावित कार्यक्रम के लिए संसाधन जुटाने की योजना बना रहे हैं।
इसके विपरीत भारत में, संपदा कर को करीब-करीब त्याग ही दिया गया है और यह इसके बावजूद है कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के दौरान, संपदा की असमानता बेतहाशा बढ़ गयी है। वास्तव में यह दुनिया भर में हुआ है और यह पूंजीवादी तथा सोशल डेमोक्रेटिक अर्थशास्त्रियों तक के बीच चिंता का विषय बन गया है कि यह जनतंत्र के चलने के लिए खतरा पैदा करता है।
इसलिए, संपदा कर से संसाधन जुटाकर, एक पेंशन योजना का चलाया जाना, एक तीर से तीन निशाने लगाने का काम करता है। एक तो यह वरिष्ठ नागरिकों के एक सार्वभौम पेंशन के अधिकार को अमल में उतारता है। दूसरे, यह फिलहाल अवरुद्ध विकास तथा संकट की गिरफ्त में पड़ी अर्थव्यवस्था में, नये प्राण फूंकने का काम करता है। तीसरी वह यह सब, संपदा की असमानता को बढ़ाए बिना ही करता है। प्रसंगवश कह दें कि संपदा पर कर लगाने और उसकी प्राप्तियों को खर्च करने से, संपदा असमानता में वास्तव में कमी तो नहीं होती है। लेकिन, इससे संपदा असमानता को और बिगड़ने से बचाया जरूर जा सकता है।
खेद का विषय ये है कि मोदी सरकार, इससे ठीक उल्टी दिशा में चल रही है। उसने न सिर्फ अपनी नाम मात्र की पेंशन में कोई भी बढ़ोतरी करने से इंकार कर दिया है बल्कि संपदा कर लगाना तो दूर रहा, वह तो वास्तव में धनकुबेरों को ज्यादा से ज्यादा खुश करने में ही लगी हुई है। वह ‘मुद्रीकरण’ का गुमराह करने वाला नाम देकर, जनता से जुटाए गए करों के बल पर निर्मित, राष्ट्रीय परिसंपत्तियों के भौतिक दायरे का उपयोग, अपने चहेते धनकुबेरों को मिट्टी के मोल मुहैया करा रही है।
मिसाल के तौर पर रेलवे प्लेटफार्मों तथा सड़कों की बगल की जगहों का इस तरह का मुद्रीकरण, इन परिसंपत्तियों का अधिग्रहण करने वाले पूंजीपतियों को इसकी खुली छूट दे देगा कि इन परिसंपत्तियों का अधिकतम दोहन करें, इन परिसंपत्तियों को चलाने वाले मजदूरों का ज्यादा से ज्यादा शोषण करें और गरीबों को इन परिसंपत्तियों के उपयोग के दायरे से पूरी तरह से बाहर ही कर दें।
सरकार पूंजीपतियों को टैक्स ब्रेक (कर छूटें) भी देने की तैयारी कर रही है, ताकि उन्हें इन परिसंपत्तियों का अधिग्रहण करने के लिए ‘उत्प्रेरित’ किया जा सके। इसे मोदी सरकार के वर्गीय-झुकाव का नंगा प्रदर्शन ही कहा जाएगा कि उसने, गरीब-बुजुर्गों की पेंशन 200 रु की दयनीय राशि से रत्तीभर बढ़ाने से तो साफ इंकार कर दिया है, लेकिन पूंजीपतियों को राष्ट्र की परिसंपत्तियों से जुड़े लाभ ही नहीं पकड़ा रही है बल्कि इसके साथ ही उन्हें कर-छुट्टी भी दे रही है।
सौज- न्यूजक्लिकः अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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