1- औरतें ही पानी ला रहीं हैं
कतार की कतार
उनके छोटे छोटे बच्चे भी साथ हैं
मर्द कहां हैं!
मर्द खेत में भी नहीं हैं
जहां देखो औरतें खेत में
खलिहान में
मजूरी करती हुई
औरतें सिर पर मटका लिए
घड़ा लिए
बाल्टी, डब्बा लिए
कुओं पर, नदी पर, हैण्डपंपों पर,
ट्यूबवेल पर
औरतें हैं सिर्फ औरतें
मर्द हैं कहां
वे सब इस वक्त चौपाल पर हैं
बहुत व्यस्त, बेहद मसरुफ़
बहस कर रहे हैं
देश दुनिया की
धर्म मजहब की
चुनाव की क्रिकेट की
चौपाल पर बीड़ी सिगरेट पीते हुए
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए
साझा करते हुए
पत्ते खेल रहे हैं सारे मर्द
औरतें सब कुछ काम कर रहीं हैं
वे पानी ला रहीं हैं
खाना बनाने को, कपड़े धोने को,
नहाने को और
तमाम दीगर कामों के लिए
मर्द सारे के सारे
बैठे हैं चौपाल पर
उनका पानी कहां गया
औरतें अगर वो ला सकें
तो बेहतर होगा.
2- आड़ा समय
यह समय कैसा समय है कि
सत्य,अहिंसा, ईमानदारी, सहिष्णुता, करुणा
जैसे गुणों की किसी को जरूरत ही नहीं रही
बल्कि ये आपके जीने में आड़े आ सकते हैं
यह कैसा समय है कि
विश्वास, भरोसा,दिलासा दिलाना
खतम हुआ
बल्कि ये दिलाना या देना
आपके होने के आड़े आ सकता है
यह कैसा समय है कि
विरोध, असहमति, बहस मुबाहिस की जगह बची ही नहीं
बल्कि ऊपर लिखे शब्दों को
शब्दकोष में आड़ा कर दीजिए
अब आड़ा समय यूं ही नहीं आता
बता कर
आप सब शरीफ लोग पता नहीं किस मुगालते में जी रहे हैं
अब जरा आड़े होइये और
अनुशासित कतार में
सुसज्जित गणवेश में
आती कतार को जगह दीजिए
जो सारे आड़ों टेढ़ों को
सीधा कर देगी
3- बाज़ार से गुजरा हूँ
ये नया बाज़ार है हुजूर
जहाँ से गुजरने पर
आप भूल जाएंगे कि आप खरीददार हैं
या बेचनेवाले या बिकने वाले
आप तमाशबीन भी नहीं रह सकते
इस चकाचौंध में कि जब बिक रहे हों
राजे महाराजे महल दुमहले अट्टालिकाएं
घर बदल रहे हों दूकानों में
खेत उगल रहे हों कार
जंगल से निकल रहा हो
बड़ा बड़ा व्यौपार
तो आपकी क्या बिसात अकबर ओ चचा ग़ालिब
आप तो बस बाज़ार से
गुजर जाइये
और कबीर की मानिंद
घर फेंक तमाशा देखिए
तुलसी की तरह
मसीद में सोइये।
4-. सुबह सुबह
सुबह सुबह आज सड़क पर
दो लड़कियों की हंसी
धूप के मानिंद पसरी थी
उनकी खिलखिलाहट ने
उस अंधेरे को
उजाले में बदल दिया था
जो फैल जाता पूरे उस माहौल में
यदि वे दो लड़कियां
जोर से हंस ना देतीं
5– *बाजार*
ये जो हर हफ्ते, हफ्ते दर हफ्ते
लगने वाला बाजार है
लाड़कुई में या पाटतलाई में या कठ्ठीवाड़ा में
या मेघनगर में या रंगपुरा में कि कल्याणपुरा हो
कि तलाई में कि सुजापुरा हो
कि हो नसरुल्लागंज या रेहटी हो
आते हैं जिसमें आदिवासी
ठठ के ठठ सजबज कर
नाचते गाते
उनके लिए नहीं है
महज बाजार यह
यह है मेलजोल और एक दिन
जंगल से बाहर निकलने
की जगह
कर लेते हैं सौदा सुलुफ
इसी दिन छुट्टी भी होती है काम से
घर की औरतें, लड़कियां,
बच्चे, मरद सब होते हैं
इस बाजार में
दूरदराज के जंगलों से
पहाड़ों को लांघते हुए
आते हैं वे हर सप्ताह
इन बाजारों में
जंगल की महक लेकर
और ढेर सा सामान लेकर
तेन्दू,महुआ,चारौली,महुआ,
मोटे अनाज, मूगफली,
मुर्गी, बकरी, मिट्टी के बरतन
और भी बहुत कुछ लाते हैं
वे इस दोहरे,दोमुंहे
लूट के बाजार में
उनका माल बिकता सस्ते में
बहुत ही सस्ते में एक चौथाई कीमत पर
और जो सामान खरीदते हैं
वो अपनी जरूरत का
कपड़ा, जूते, खिलौने,तेल, नमक,
मसाले, कुछ अनाज वगैरा
ये सब महंगा होता है
बहुत ही महंगा
ऐसा तो न कभी हुआ
न होता है
और न होगा
कि कोई भी आदिवासी कभी भी
कहीं से भी पैसे वापस लेकर लौटा हो
उसकी नंगाझोरी कर देता बाजार
और वो दुतरफा, दोहरा लुट कर बाजार से लौटता है फिर
पहाड़ों को लांघकर जंगलों में
जो उन्हें सहेजता है
और वे अगले सप्ताह फिर
ठठ के ठठ, सजबज कर
आ जाते हैं बाजार में।
अमिताभ मिश्र- जन्म 2 अगस्त। कवि कथाकार । ताज तम्बूरा, कुछ कम कविता ( कविता संग्रह)। डुंगरी डुंगरी , सितौलिया (कहानी संग्रह ) और पत्ता टूटा डाल से उपन्यास। देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविता कहानी प्रकाशित ।
संपर्क- 9425375311
अच्छी कविताएं।
शोषित जीवों का यथार्थ। गंभीर सवाल उठाती कविताएं, दिलासा देती है।
समाज और समय को बयां करती कविताएँ