डॉक्टर की डायरी: दो क्वारन्टीनों के साथ आधा घंटा

डॉ. राहुल शर्मा  

पिछले ग्यारह दिनों में भोपाल के सभी क्वारन्टीन सेंटर्स में जाना हुआ. क्वारन्टीन किए गए दो सौ से ज़्यादा लोगों की मानसिक स्थिति की जांच, उनको मनोवैज्ञानिक परामर्श देने के साथ ही उनके बीच मनबहलाव के कुछ गतिविधियां भी चलाईं. क्वारन्टीन हुए लोगों और माइग्रेंट्स की मनो-सामाजिक व्यथा सुनना और उनको आश्वस्त करने की प्रक्रिया के दौरान इतनी तरह के तजुर्बे हुए हैं कि उन सबको लिख पाना मुश्किल है.

इसी क्रम में आज दोपहर एक क्वारन्टीन सेंटर जाना हुआ तो देखा कि वहां का माहौल और दिनों के मुक़ाबले बिल्कुल अलग था. एकदम सुनसान. इक्का-दुक्का गार्ड्स ही यहां-वहां बैठे थे. कई बैग ज़रूर बेतरतीब से यहां-वहां पड़े हुए थे. पूछने पर मालूम हुआ कि आज सुबह से अभी दोपहर तक इस सेंटर में क्वारन्टीन किए गए सौ से अधिक लोगों को हड़बड़ी में कहीं और पहुंचा दिया गया है क्योंकि यहां रहने वाले लोगों की जांच रिपोर्ट आज ही आई है और उसमें दो लोगों के कोरोना पॉज़िटिव होने की पुष्टि हुई है. सिर्फ़ वे दोनों लोग ही अंदर है, इसलिए आज आप किसी की मानसिक जांच नहीं कर सकते.

मैंने कहा कि जो दो लोग हैं, अगर वे बात करने की स्थिति में हों तो मैं उनसे बात करना चाहूंगा, जो बहुत ज़रूरी भी है कि उनको सुनना भी ज़रूरी है.

वहां मौजूद एक केयरटेकर और गार्ड्स ने पहले मना किया और फिर मेरे इसरार करने पर केयरटेकर बेमन से मुख्य दरवाज़े पर जड़ा ताला खोल कर उन दोनों लोगों को आवाज़ देकर तुरन्त पलटा और काफ़ी दूर जा कर खड़ा हो गया. देखने से ही वह बहुत डरा हुआ लग रहा था.
मैं वहीं पोर्च में पड़ी टेबल के सामने वाली कुर्सी को सीधा कर के बैठ गया. इतने में अंदर से वे दोनों लोग धीरे-धीरे चलते हुए बाहर आ गए और कुछ दूरी पर सहमे से मुझे देखते हुए खड़े हो गए. मैं भी कुर्सी पर भीतर ही भीतर ठिठक गया और उनको सामने पड़े स्टील के सोफ़े पर बैठने का इशारा किया. देखने में दुबले-पतले वे दोनों 30-35 की उम्र के बीच के लगते थे. अचानक से एक ने पूछा – क्या आप एम्बुलेंस से हमको अस्पताल ले जाने आए हैं? मैंने कहा – नहीं. मैं यहां के ज़िला अस्पताल से आपका हाल जानने आया हूँ. आपके मन की स्थिति जानना चाहता हूँ. आप बताएं कि कहां के रहने वाले हैं?

कुछ देर चुप रहने के बाद एक ने धीमे से बोलना शुरू किया. कर्नाटक से आकर यहां क्वारन्टीन में फंसे हैं, मन की स्थिति क्या बताएं. चालीस दिन से अपने घर से बाहर हैं. सवेरे पॉज़िटिव रिपोर्ट आते ही बाक़ी लोग भी छोड़ भागे. अब न जाने क्या होगा हमारा…इतना बोलते ही उसकी आँखों में आँसू छलक उठे. उसने अपना सिर नीचे कर लिया.

दूसरा वाला थोड़ा नाराज़ लगा. वह कुछ बोलना ही न चाहता था. कभी इधर देखता, कभी उधर. बार-बार उठ कर ज़रा चहलकदमी करता और फिर सोफ़े पर आधा लटक कर बैठता और दो मिनट होते-होते फिर उठ जाता. मैंने बातों के दौरान अपने मोबाइल से उनकी फ़ोटो लेने की इजाज़त मांगी तो वो बिफ़र गया. एक साथ कई सवाल कर डाले….

क्यों लेनी है तस्वीर…क्या करेंगे…. कहां-कहां लगाएंगे… मैंने उसको समझाया-मनाया तब कहीं जाकर वह शांत हुआ. फिर धीरे से बोलने लगा, “मुझे मेरा नहीं, मेरी माँ और छोटे भाई का डर लगता है, आजकल सोशल मीडिया पर और न जाने कैसे कहां-कहां तस्वीरें काट-छांट के लगती हैं. मैंने मां और भाई को नहीं बताया है कि मैं पॉज़िटिव हो गया हूँ. मेरी माँ मर जाएगी सुन कर. मैं नहीं चाहता कि मेरी तस्वीर यहां-वहां सोशल मीडिया पर घूमते-घूमते मेरे भाई और मां की आंखों के सामने पहुंच जाए. मैं अकेला हूँ. यहां अकेला ही इस बीमारी से लड़ूंगा. ठीक हुआ तो माँ और भाई का वर्ना…. ” कह कर उसने ऊपर इशारा कर दिया.

मैं आधा घंटा उनके साथ रहा और हम लोग बतियाते रहे. इस बीच उनको अस्पताल ले जाने के लिए एम्बुलेंस आ गई. वे धीमे-धीमे क़दमों से अपने प्लास्टिक के झोले में न जाने क्या कुछ अबेरे एम्बुलेंस में जा बैठे.

एक सूनी आंखों से चुपचाप मेरी ओर देखता रहा. दूसरे ने दरवाज़ा थोड़ा खोल कर कहा, “अब तो आपके पास हमारे मोबाईल नम्बर हैं. हमको अस्पताल में कभी-कभी फ़ोन कर लेना… हम बहुत अकेले हैं.”

मैं अपने अस्पताल वापस आने के लिए गाड़ी मैं बैठ गया… गाड़ी चल दी. पहनी हुई पीपीई किट और दिनों की अपेक्षा ज़्यादा बेचैन कर रही थी… भोपाल की ख़ूबसूरती भी आज पहले से कम थी और मन और भी बुझा बुझा सा हो चला.

कैसी महामारी है, जिसने पहले से ही पनप रहीं सामाजिक दूरियों की खाई को और भी चौड़ा कर दिया. इसने लोगों को अकेला, एक-दूसरे के प्रति और भी आशंकित और असुरक्षित किया है. इससे हमारा सामूहिक अवचेतन जिस तरह बेचैन हुआ है, उस तरह शायद पहले कभी न था.

एक दूसरे के हाल-चाल पूछते रहें. दोस्तों और जिनको कोई नहीं पूछता उनकी ख़ैर-ख़बर सबसे ज़्यादा लें.

इन दिनों नज़ीर अकबराबादी रह रह कर याद आते रहते हैं….
“यां आदमी पे जान को वारे हैं आदमी.
और आदमी पे तेग़ को मारे है आदमी॥
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी.
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी॥
और सुन के दौड़ता है सो है वह भी आदमी…”  

( सौ. संवादन्यूज़)

3 thoughts on “डॉक्टर की डायरी: दो क्वारन्टीनों के साथ आधा घंटा

  1. ये जरूरी काम भी है, और जरूरी जानकारी भी। डर तो है ही, कब बन्द रहेंगे। खुलेंगे तो न जाने कब पॉजिटिव हो जाएं, कब आइसोलेशन में जाना पड़े, कब हॉस्पिटल… और वहाँ से कहाँ….. सभी के दिमाग में ये चल रहा है

  2. ज़रूरी है एक दूसरे से जुड़े रहना, जिस मनः स्थिति से सब गुज़र रहे हैं,उसमें आपसी जुड़ाव ही संबल है।डॉक्टर की डायरी का लिखा जाना और पढ़ा जाना इस वक़्त की ज़रूरत है।

  3. ज़रूरी है एक दूसरे से जुड़े रहना, जिस मनः स्थिति से सब गुज़र रहे हैं,उसमें आपसी जुड़ाव ही संबल है।डॉक्टर की डायरी का लिखा जाना और पढ़ा जाना इस वक़्त की ज़रूरत है।

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