राजस्थानः कोरोना काल के कठिन समय में लोक कलाकारों के साथ मजाक क्यों?

कोरोना संकट से बुरी तरह प्रभावित लोक कलाकारों के लिए राजस्थान सरकार ने जो योजना चलाई है उसके नियम इतने विचित्र हैं कि इसका उद्देश्य ही खत्म कर देते हैं

जोधपुर के विश्व प्रसिद्ध लोक कलाकार सुगनाराम भोपा हताश हैं. ‘सिरकार (सरकार) हमे कैसे-कैसे बेइज्जत करती है? मैं अनपढ़ हूं. रावणहत्था बजाकर अपने बच्चों का पेट भरता हूं. मेरे पास ये झूंपड़ी हैं. सिरकार कह रही है कि लोक कलाकार वीडियो बनाकर भेजे. उनको 2500 रु मिलेंगे. मैं क्या करूं? न तो मेरे पास ऐसा फ़ोन है जो वीडियो बना सके ओर न ही मेरे को चलाने का पता’ वे अपने दर्द को हमसे साझा करते हुए कहते हैं, ‘हम ईमेल की आईडी कैसे बनायें? एक आधार कार्ट तो बना है और कुछ तो है नहीं. ई-मित्र भी बन्द है. क्या करें?’

सुगनाराम कहते हैं कि उनके बुजर्ग रावणहत्था बजाते हुए ही मर गए. इस परंपरा को जैसे-तैसे वे जारी रखे हुए हैं. लेकिन अब ये परंपरा शायद उनके साथ ही समाप्त हो जाएगी. ‘हुकुम! इस रावणहत्थे में रेगिस्तान की आत्मा बस्ती है. वो भी इसके साथ ही मर जाएगी. सिरकार (सरकार) को चाहिए कि सभी लोक कलाकारों को भले ही एक हज़ार रु दे. सीधे उसके खाते में डाल दें. ऐसे बेइज्जत न करे.’

कोरोना संकट से बुरी तरह प्रभावित राजस्थान के लोक कलाकारों के लिए राज्य के कला एवं संस्कृति मंत्रालय ने एक योजना निकाली है – मुख्यमंत्री लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना. राजस्थान सरकार इस योजना का चारों तरफ जोर-शोर से प्रचार कर रही है. इस योजना में कई किंतु-परंतु हैं लेकिन सबसे पहले उसी के बारे में बात कर लेते हैं जिसके बारे में सुगनाराम भोपा हमें ऊपर बता रहे थे. इस योजना के तहत ग्रामीण लोक कलाकारों को 15 से 20 मिनट का वीडियो बनाकर ईमेल के जरिये राजस्थान सरकार को भेजना होगा.

पहली बात तो यह कि गांवों में रहने वाले सुगनाराम जैसे हज़ारों लोक कलाकार 15-20 मिनट का वीडियो बनाएंगे कैसे? योजना में यह साफ-साफ लिखा है कि ‘वीडियो कम से कम इस स्तर का हो कि लोग उसको देखकर उस प्रस्तुति का आनंद लें सकें और उसे मूल्यांकन समिति द्वारा डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अपलोड करने योग्य समझा जाये.’ ऐसा वीडियो बनाना बहुत से लोक कलाकारों के लिए असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर है. यदि किसी की मदद से उन्होंने ऐसा कर भी लिया तो फिर सवाल यह उठता है कि राज्य के गांवों में तो पढ़े-लिखे लोगों के पास ही ईमेल आईडी नहीं हैं. तो फिर उन लोक कलाकारों के पास ईमेल आईडी कैसे होंगी जिनको अपना नाम तक लिखना नहीं आता? यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि राजस्थान के 98 फीसदी लोक कलाकार पढ़े-लिखे नहीं हैं.

चलिये मान लिया कि उनके पास ईमेल आईडी हैं भी तो इतनी बड़ी फ़ाइलों को ई-मेल के जरिये भेजा कैसे जाएगा? अच्छी गुणवत्ता का 15-20 मिनट का वीडियो कम से कम 100 एमबी का तो होगा ही. ईमेल से इतनी बड़ी फ़ाइल कैसे भेजी जा सकती है?

योजना की घोषणा में यह भी कहा गया है कि ‘सभी लोक कलाकरों को योजना के तहत अपनी प्रस्तुति की रिकार्डिंग के समय सोशल डिस्टेंसिंग के साथ ही कोरोना की रोकथाम और बचाव के लिए सरकार द्वारा जारी की गई गाईडलांइस की पूर्ण पालना करनी होगी. इच्छुक लोक कलाकार यथासंभव ऐसी प्रविष्टियों का चयन करे जिसमें एक से अधिक व्यक्ति (लोक कलाकर) उस प्रस्तुति में सम्मिलित ना हों.’ इससे यह पता चलता है कि इस योजना को कितने नासमझ लोगों ने तैयार किया है.

लोक कला में कितनी ही ऐसी परफार्मिंग आर्ट्स है जो 10-12-15-20 लोगों के बगैर सम्भव नहीं हैं. लेकिन कर्फ्यू ओर लॉकडाउन के समय इतने लोग एकत्रित होंगे कैसे! यदि किसी तरह से इकट्ठे हो भी गए तो सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना है. इसके लिए स्टेज को भी पहले से काफी बड़ा बनाना होग. इतनी बड़ी स्टेज बनेगी कैसे?

यानी कि जिन परफार्मिंग कलाओं में लोगों का जमघट बनाना पड़ता है वे तो सीधे-सीधे इस योजना के दायरे से बाहर हो जाती हैं. क्योंकि यदि वे मुख्यमंत्री लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना में हिस्सा लेंगे तो सामाजिक दूरी का उल्लंघन करने के लिए जेल जाएंगे और अगर ऐसा नहीं करेंगे तो खायेंगे क्या!

उदाहरण के लिए जो आदिवासी अपने लोक नृत्य में मगरमच्छ की आकृति बनाते हैं, शेर बनाते हैं, माता को विराजमान दिखाते हैं. वे लोग क्या करेंगे? उनका ये लोक नृत्य तो सदियों से चला आ रहा है. ऐसे ही बेड़िया घुमंतू जाति राई लोक नृत्य करती है. इसमें 10-12 लोग घेरा बनाते है और फिर उसमें नृत्य किया जाता है. घेरा बनाये बिना यह लोक-नृत्य नहीं हो सकता.

‘हमारे नृत्य में 10-15 लोग एक-दूसरे के पास रहकर नृत्य करते हैं. हम ये दूर-दूर रहकर कैसे करें? हमें क्यों इससे बाहर किया गया? सरकार कॉलबेलियों का नाम लेकर अपने कला केंद्र चलाती हैं. हर पर्यटन केंद्रों के बाहर हमारे नृत्यों की तस्वीर छापती है और हमें ही इससे बाहर निकाल दिया’ डूंगरपुर के जोरानाथ कॉलबेलिया इस योजना पर सवाल खड़े करते हुए कहते हैं, ‘सरकार के जितने भवनों पर हमारे नृत्य की तस्वीर लगाई है, उसको हटाया जाए. हमारा नाम बेचकर हमें ही कला केंद्रों से बाहर निकाल दिया. हमारे कितने कालबेलिये बाहर देशों में नृत्य करने जा चुके हैं? क्या सरकार के पास हमारा रेकॉर्ड नहीं हैं? तो सरकार सीधे सहायता क्यों नहीं देती?’

‘मुख्यमंत्री लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना’ के दस्तावेज के मुताबिक ‘यह योजना राजस्थान के उन कलाकारों के लिए है जो ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं और अपनी आजीविका हेतु पूर्ण रूप से लोक कला के प्रदर्शन पर निर्भर हैं. आधार कार्ड में दर्ज पता ग्रामीण क्षेत्र तय करने का आधार होगा.’ यहां सवाल यह उठता है कि लोक कलाकार कोई भूगोल तो हैं नहीं, वे तो इंसान हैं तो यह डिवाइड कैसे होगा? लोक कलाकारों को शहरी और ग्रामीण में कैसे बांटा जाएगा?

अकेले जयपुर की बात करें तो यहां 10 हज़ार से ज्यादा लोक कलाकार होटल और टूरिस्ट स्थानों पर अपनी कला दिखाकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं? इन लोगों के पास यहीं का आधार कार्ड है. लेकिन अभी होटल और कला केंद्र बंद हैं. तो इन कलाकारों को मुख्यमंत्री लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना का लाभ क्यों नहीं मिलना चाहिए? जयपुर की कठपुतली कॉलोनी में हज़ारों लोक कलाकार नरक से बदतर जीवन जी रहे हैं. उनको इस योजना से कैसे हटाया जा सकता है? और यह समस्या केवल जयपुर की भी नहीं है. जैसलमेर, जोधपुर इत्यादि सभी शहरी क्षेत्र इससे बाहर हैं. यहां तक कि दौसा जिले में आने वाला बांदीकुई जैसा क्षेत्र भी इस योजना के लिहाज से एक शहरी क्षेत्र है.

हिंदुस्तान के इतिहास में आज तक यह नहीं हुआ है कि किसी योजना की न तो कोई शुरुआत की तारीख हो और न ही उसके अंतिम दिन का पता हो. ऐसी यह पहली अनूठी योजना है जिसके बारे में यही पता नहीं है कि यह कब तक चलेगी और इसके लिए कब तक अप्लाई कर सकते हैं? हालांकि इस मामले में तर्क यह दिया जा सकता है कि यह कलाकारों के हित में है. लेकिन इस योजना के बारे में और भी तमाम बातें हैं जो स्पष्ट नहीं हैं. जैसे कि इसमें कितनी तरह की आर्ट्स को शामिल किया गया है? कौन से वाद्य यंत्र इसके तहत आयेंगे? निवाई के मदारी इब्राहिम कहते हैं, ‘हमारे बुजर्ग डुगडुगी बजाकर मजमा लगाकर बन्दर-भालू का खेल तमाशा करते थे. सरकार ने बन्दर-भालू तो छीन लिए. उनकी जगह जमूरों का खेल दिखाने लगे तो उन पर भी रोक लगा दी. तो क्या अब केवल डुगडुगी को इसमें शामिल किया जायेगा? जब हम वहां फ़ोन करते हैं तो कोई जवाब मिलता ही नहीं हैं.’

अब आते हैं इस योजना के ज्यूरी मंडल पर. सामान्यतः किसी को भी यह लगेगा कि इसकी ज्यूरी में लोक कला के बड़े जानकार होंगे. चर्चित लोग होंगे. कुछ लोक कलाकार होंगे. लेकिन ऐसा है नहीं. राजस्थान सरकार के मुताबिक ‘इस योजना हेतु रवींद्र मंच, जयपुर को नोडल एजेंसी नामित किया गया है.’ इस संस्था की स्थिति पहले से ही बदहाल है. और इसकी कृपा से ‘मुख्यमंत्री लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना’ की ज्यूरी में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो लोक कला से जुड़ा हुआ हो. इसके सभी सदस्य सिर्फ प्रशासन से जुड़े लोग ही हैं.

यह क्या बतलाता है? यह बताता है कि हमारे लोक कलाकार कैसे भिखमंगे बने हुए हैं, हमारी लोक कलाएं आखिर क्यों विलुप्त हुई हैं, और लोक वाद्य क्यों डूबे?

‘ये हमारे साथ कितना भद्दा मजाक है? हमें जज करने वालों की काबिलियत क्या है? जो बहुरुपिया पिछले 50 वर्षों से रूप बना रहा है. उसके मेकअप ओर गेटअप को ये लोग तय करेंगे. मेरे चेहरे के उतार-चढ़ाव. मेरे किरदार के अनुसार मेरे चेहरे की झुर्रियों की गहराई बदल जाती है. क्या ये लोग इसे समझ पायेंगे?’ बहुरुपिया सिकंदर अब्बास कहते हैं, ‘क्या इनमें से किसी एक को भी रावणहत्थे के बारे में जानकारी है? क्या इनको ये पता है कि रावणहत्था की कितनी शैली हैं? उसके साथ क्या गाया जाता है? उसके क्या मायने हैं? तो फिर ये लोग भोपा के रावनहत्थे को कैसे जज करेंगे?’

जैसलमेर के मरु संग्रहालय के निदेशक नंद किशोर शर्मा को लोक कला को संरक्षित करने के उनके प्रयासों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. उन्हें लोक कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा, एपीजे अब्दुल कलाम, तमाम प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सम्मानित कर चुके है.

‘ये हमारी सामूहिक स्मृतियों के साथ मज़ाक है? राजस्थान के पास एक से बढ़कर एक लोक कला को जानने के पारखी मौजूद हैं. फिर ये तमाशा क्यों?’ सिकंदर अब्बास की बातों से इत्तेफाक रखते हुए नंद किशोर शर्मा कहते हैं, ‘जिनको लोक कला के बारे में एबीसीडी भी नहीं पता. वे उन लोगों के हुनर को तय करेंगे जो पिछले 50 वर्षों से उसे जी रहे हैं. जिनकी रगों में कला दौड़ती है. जिनके सांसों में कला की महक बसती है. जिनकी आवाज में कला गूंजती है, क्या ये लोग उनको जज कर पायेंगे?’

नंद किशोर शर्मा आगे कहते हैं. ‘यह समय कलाकारों को प्रोत्साहन देने का है या उनके बीच कंपटीशन करवाने का? जो कलाकार नहीं जीत पाएगा, वह लॉकडाउन में क्या करेगा? यदि कंपटीशन करवा रहे हो तो आप यह क्यों बोल रहे हैं कि हम दुख की घड़ी में कलाकार की मदद कर रहे हैं. आप उन वीडियो को अपने पेज पर अपलोड कर रहे हैं उससे जो रेवेन्यू आएगा वो किसके पास जाएगा? उस पैसे को कलाकारों में आप कैसे डिस्ट्रीब्यूट करेंगे?’

नंद किशोर शर्मा के मुताबिक पिछले काफी समय से राजस्थान की सरकारें और अधिकारी लोक कलाकारों को अपने मतलब के लिए दुहने में लगे हुए हैं. इसी साल फरवरी में जैसलमेर में आयोजित किये गये मरु महोत्सव का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘क्या तमाशा हुआ यहां? गिनीज बुक में नाम दर्ज करवाने के लिए 871 लोक कलाकारों को एकत्रित करके उनका सामूहिक गीत बजवाया. ये हमारी सदियों की परम्परा के साथ खेल था. लोक कलाएं क्या होती हैं, लोक से उनका क्या नाता होता है, लोक से उनके नाते को मजबूत कैसे बनाया जाए, अन्य लोगों को इससे कैसे जोड़ें, इन सबके बारे में प्रयास करने के बजाय वे इनको तेल-साबुन की तरह बेचने में लगे हैं.’

जवाहर कला केंद्र के एक कर्मचारी भी इस मामले में अपना नाम न छापने की शर्त पर बतलाते हैं कि जिन लोक कलाकारों के वीडियो को यूट्यूब पर अपलोड किया जा रहा है वह वहीं रहेगा चाहे वह लोक कलाकार मुख्यमंत्री ‘लोक कलाकार प्रोत्साहन योजना’ में चयनित हो या न हो.

इसके अलावा ऐसा भी देखने को मिल रहा है कि अब कई संस्थाएं भी इस शर्त पर लोक कलाकारों का वीडियो बनाकर भेज रही हैं कि 50 फीसदी हिस्सा उस संस्था का होगा.

कलाकारों को मदद देने के मामले में मनमानी का एक उदाहरण राजस्थान के बाड़मेर ज़िले में भी देखने को मिलता है. यहां पर प्रशासन द्वारा ऐसे लोक कलाकारों की सूची जारी की गई है जिन्हें तत्काल लाभ देना है. सवाल यह है यह सूची आई कहां से? यहां के हर गांव में 30-40 लोक कलाकार होते हैं. लेकिन यह सूची करीब 100 लोगों की ही है. इतने लोगों की सूची को किसने तैयार किया? यह किस तरह का न्याय है?

राजस्थान का कठपुतली नृत्य | अश्वनी कबीर

कुछ लोक कलाकारों के मुताबिक कई अधिकारी लोक कलाकारों को अपने व्यक्तिगत इवेंट में बुलाते हैं और उन्ही को विभिन्न सरकारी योजनाओं के लाभ दिये जाते हैं. ये लोग संदेह जताते हैं कि बाढ़मेर जैसे कलाकार के चयन के मामलों में शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा.

बड़े सवाल

जो राजस्थान पूरे हिंदुस्तान से लेकर विश्व में अपनी कला, संस्कृति और ऐतिहासिक धरोहर के लिए जाना जाता है. क्या उस राजस्थान सरकार के पास अपने लोक कलाकारों की कोई सूची नहीं हैं?

क्या यहां विराजमान अधिकारियों को यह पता है कि राजस्थान में कितने तरह के वाद्य यंत्र होते हैं? उन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले लोग किस समुदाय से आते हैं? वे लोग कहां रहते हैं? उनका क्या जीवन है? कितनी तरह की लोक कलाएं हर दिन मरने की ओर बढ़ रही हैं?

पिछले 15 वर्ष से राजस्थान की लोक संस्कृति को संरक्षित करने में लगे प्रख्यात संस्कतिकर्मी श्री अशोक टॉक कहते हैं कि राजस्थान सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग ने अपने पुरखों के ज्ञान को तो पहले ही लात मार दी थी. वे बताते हैं कि राज्य में पहले एक म्यूज़ियम हुआ करता था. जिसके आधे सामान को गायब कर दिया गया और यह कह दिया गया कि उसे दीमक खा गई. कुछ सामान को बड़े म्यूजियम में भेज दिया गया. कुछ सामान को कबाड़ के कमरे में डाल दिया. वे पूछते हैं कि जब उस सदियों के सीखे ज्ञान के साथ यह सब करोगे तो कला और कलाकार कैसे जिंदा रहेंगे?

प्रख्यात संस्कृति कर्मी राजीव सेठी कहते हैं, ‘आप लोक कला को बचाने की बात करते हैं और लोक कलाकारों को भूखा मार रहे हैं. लोक कला तो उस लोक से ओर उस लोक के कलाकारों के जीवन में बसी है. जब कलाकार ही नहीं बचेगा तो लोक कला कहां से बचेगी?’

कला केंद्र का काम क्या होता है?

राजीव सेठी कहते हैं कि हमें यह अच्छे से समझ लेना चाहिए कि कला केंद्र कोई तेल-साबुन बेचने का अड्डा नहीं है. न ही लाभ कमाने की कोई दुकान. कला केंद्र वह स्थान है जहां पर कला संरक्षित होती है, पैदा होती है. जहां विचार पैदा होते हैं, पलते हैं, बढ़ते हैं और फिर प्रेरणा बनकर और नये विचारों को जन्म देते हैं. कला केंद्र वह स्थान है जो कलाकार को दुख की घड़ी में संभालता है, उसको संबल देता है.

जब इन सवालों को लेकर कला संस्कृति विभाग की प्रिंसिपल सचिव श्रीमती श्रेया गुहा से बात करना चाहा तो न उन्होंने मैसेज का जवाब दिया और न ही बार-बार फ़ोन करने के बावजूद फोन उठाया. रवीन्द्र मंच की एडीजी शिप्रा शर्मा को भी फ़ोन किया गया किन्तु उन्होंने समयाभाव की बात कहकर बात करने से मना कर दिया.

राजस्थान समग्र सेवा संग से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता अनिल गोस्वामी कहते हैं यह अजीब विडम्बना है. जब कला मर रही होती है तब कोई बात नहीं करता. जब कला मर जाती है तब उसे डाइंग आर्ट्स के नाम से जाना जाता है और उसे बचाने के लिए बड़े टेंडर जारी होते हैं. यह समय तो इन डाइंग आर्ट्स को सहेजने का था.

‘ज्यादातर ऐसे लोगों को पदों पर क्यों बिठाया हुआ है जिन्हें कलाओं की न तो समझ है न उनसे कोई लेना-देना? क्या हमारे पास लोक कला को जानने वाले लोग नहीं हैं? क्या हमारी ये सामूहिक स्मृतियां कुछ नासमझ और भृष्ट लोगों की भेंट चढ़ जायेंगी?’ अनिल कहते हैं कि ‘राजस्थान की आत्मा उसके लोक कलाकार ही हैं. ये लोग तो सितार के तारों की तरह हैं. यदि एक भी तार की पकड़ ढीली हुई तो सितार बेसुरा हो जाता है. ये लोग इस समाज रूपी सितार के तार हैं. जब यही ढीले पड़ जाएंगे तो समाज बिखर जायेगा.’

तुरंत क्या हो सकता है?

इसका बहुत सीधा सा समाधान है. राजस्थान के संस्कृति विभाग में काम कर चुके एक रिटायर्ड अधिकारी कहते हैं कि ‘इसके लिए अलग से बजट भी खर्च नहीं करना. जो बजट जवाहर कला केंद्र, ललित कला अकादमी और रवीन्द्र मंच का है. वह इन कलाकारों के लिए ही है भले इन पर खर्च नहीं होता हो. इस पैसे को लोक कलाकारों में वैसे ही बांट दीजिये जैसे महिलाओं के खाते में 500- 500 रु डाले हैं.

सौज-सत्याग्रह की रिपोर्ट-

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