मौलिक अधिकार लगाते हैं राज्य की शक्तियों पर अंकुश-फैज़ान मुस्तफा

फैज़ान मुस्तफा

किसी भी देश का संविधान, नागरिकों और राज्य के बीच एक पवित्र बंधन है। इसके साथ ही वह एक संविदा भी है। संविधान की संकल्पना हॉब्स, लॉक और रूसो द्वारा दिए गए “सामाजिक संविदा” के सिद्धांत के आधार पर मूर्त रूप ले पाई। उनके अनुसार, राज्य की उत्पत्ति इसलिए हुई कि जो प्राकृतिक व्यवस्था थी, उसमें इंसान एक स्वार्थी, पाशविक, बुरा और तंग नजरिए वाला था। ऐसे में उसके जीवन और संपत्ति को खतरा था। इन परिस्थितियों में उनके बीच जो सबसे अच्छा व्यक्ति था, उससे लोगों ने कहा कि आप हमारे राजा बन जाओ और हमारे अधिकारों की रक्षा करो। यानी राज्य की जो उत्पत्ति हुई है, वह इसलिए हुई कि वह लोगों के जीवन और संपत्ति के अधिकार की रक्षा करे।

इसके बाद सवाल यह उठा कि राज्य के पास असीमित शक्तियां हो गई हैं, क्योंकि राज्य को कानून बनाने का अधिकार मिल गया, उसे किसी भी देश के खिलाफ जंग छेड़ने का भी अधिकार मिल गया। ऐसे में उसे कैसे नियंत्रित किया जाए, यह सवाल उठने लगे। इसलिए राज्य को अपनी सीमाओं में बांधे रखने के लिए संविधान बनाया गया। संविधान का पालन करने की मूलभूत जिम्मेदारी राज्य की होती है। संविधान राज्य की शक्तियों को मौलिक अधिकारों के जरिए नियंत्रित करता है। ऐसे में जो भी मौलिक अधिकार हैं, वह राज्य की शक्तियों पर अंकुश लगाते हैं। सभी मौलिक अधिकार मानवाधिकार हैं। लेकिन भारत में सभी मानवाधिकार मौलिक अधिकार नहीं बन पाए।

कुछ ही मानवाधिकारों को संविधान ने मौलिक अधिकार का दर्जा दिया है। बाकी बचे मौलिक अधिकारों को संविधान के अध्याय-4 के तहत नीति-निर्देशक तत्वों में सम्मिलित कर दिया गया है। मौलिक अधिकार अध्याय-3 में दिए गए हैं। मौलिक अधिकार का यह अध्याय संविधान की आत्मा है। वास्तव में संविधान किसी भी व्यक्ति को मौलिक अधिकार नहीं देता है, बल्कि उन अधिकारों के साथ हर इंसान इस दुनिया में जन्म लेता है।  हमें यह समझना चाहिए कि संविधान केवल मौलिक अधिकारों पर मुहर लगाता है। बाल गंगाधर तिलक ने जब 1905 में कहा था कि “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे मैं लेकर रहूंगा”  उस वक्त कोई संविधान नहीं था। बाद में दुनिया के संविधानों और मानवाधिकारों में आत्म-निर्णय के अधिकार को जगह दी गई। यह जानना भी बेहद जरूरी है कि मौलिक अधिकार राज्य द्वारा अपने नागरिकों को दिया गया कोई उपहार या दान नहीं है, बल्कि यह वह अधिकार है, जिनके साथ हर इंसान इस संसार  में आता है।

संविधान और मौलिक अधिकार

भारतीय संविधान में जो मौलिक अधिकार हैं वह अनुच्छेद 13 से शुरू होकर अनुच्छेद 32 तक जाते हैं। अनुच्छेद 32 यह बताता है कि मौलिक अधिकारों को किस तरह से लागू किया जाएगा, इसके लिए वह दिशा-निर्देश देता है। इसी खासियत के कारण डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को “संविधान की आत्मा” कहा है। अनुच्छेद 32 यह अधिकार देता है कि देश का कोई भी नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है। अपील करने के मिले इस अधिकार से, यह समझा जा सकता है कि संविधान की नजर में मौलिक अधिकार का कितना महत्व है। अहम बात यह है कि मौलिक अधिकारों के हनन के लिए नीचे की अदालतों में जाने की आवश्यकता भी नहीं है। कोई भी व्यक्ति सीधे सुप्रीम कोर्ट जा सकता है।

भारत के संविधान में पहला मौलिक अधिकार समानता का अधिकार है। समानता के अधिकार में दो अभिव्यक्तियां इस्तेमाल की गई हैं। पहला हिस्सा यह है कि कानून के सामने सभी समान हैं। यह अधिकार इंग्लैंड के उस सिद्धांत से आया है, जिसमें कहा गया है कि “कानून का राज होगा।” दूसरी अहम अभिव्यक्ति यह है कि सभी को समान रूप से कानून का संरक्षण मिलेगा। इसे संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के 14वें संशोधन से लिया गया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी के लिए एक ही कानून होगा। यह अनुच्छेद कहता है कि “समान लोगों के लिए समान कानून” होगा। यानी एक वर्गीकरण संभव है। इसी आधार पर भारत सरकार कह रही है कि नया नागरिकता अधिनियम, अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है। इसी वर्गीकरण के आधार पर सरकार बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों को भारत आने पर नागरिकता दे सकती है। दूसरी तरफ इस कानून के विरोध में जो लोग हैं, उनका तर्क यह है कि भारत के संविधान का मूलभूत ढांचा धर्मनिरपेक्षता, न्याय, समानता पर आधारित है, इसीलिए किसी के साथ धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है।सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-14 पर एक बड़ा ऐतिहासिक फैसला 1973 में ई.पी.रोयप्पा केस में दिया था। फैसले में कहा गया कि यही जरूरी नहीं है कि कोई कानून पूरे तर्कों के आधार पर बनाया गया है। यानी उसमें जो चीजें शामिल की गईं और जो चीजें छोड़ दी गईं, उनमें बहुत साफ और स्पष्ट अंतर होना जरूरी है। दूसरी अहम बात यह है कि कानून में अंतर करने का कोई खास  तार्किक लक्ष्य होना चाहिए और यह अंतर एकदम न्यायसंगत और तर्कसंगत होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में यह भी कहा कि इन गुणों के साथ कानून को किसी भी हालत में मनमाना नहीं होना चाहिए।

नया कानून कितना संवैधानिक

अब नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों का कहना है कि कानून में छह धर्मों के मानने वालों को शामिल किया गया और यहूदी और इस्लाम धर्म के मानने वालों को शामिल नहीं किया गया, यह एक मनमानी बात है। दूसरी बात वे यह कह रहे हैं कि इन्हीं तीन देशों में और बहुत-से लोग धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हैं। जैसे पाकिस्तान में अहमदिया और शिया, अफगानिस्तान में हजारा हैं। उनको नए कानून का लाभ क्यों नहीं दिया जा रहा है। तीसरी दलील उनकी यह है कि केवल इन्हीं तीन देशों में धार्मिक उत्पीड़न नहीं हो रहा है। बल्कि श्रीलंका में तमिल लोगों के साथ उत्पीड़न हो रहा है। जैसे, वहां का राष्ट्र गान तमिल भाषा में भी गाया जाता था, लेकिन अब उसमें यह प्रावधान आ रहा है कि वह तमिल में नहीं गाया जाएगा। इसी तरह कई लाख तमिल हिंदू शरणार्थी हैं। उन्हें नागरिकता देने से क्यों वंचित किया जा रहा है? इसी तरह भूटान में ईसाइयों को गिरजाघर में जाकर प्रार्थना करने का अधिकार नहीं है।

उनको भारत में आकर प्रार्थना करनी पड़ती है। ऐसे में उनको क्यों शामिल नहीं कर रहे है?  म्यांमार में जहां रोहिंग्या के साथ एक तरह से नरसंहार हो रहा है, वे भारत में आए हुए हैं, उनको निकालने के लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट तक गई है। यह भी एक मनमाना रवैया है। यानी जिसको आप चाह रहे हैं, उसे नागरिकता दे रहे हैं और जिसे नहीं चाह रहे हैं उसे नहीं दे रहे हैं। इसलिए यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।

सुप्रीम कोर्ट ने किया विस्तार

अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात करते हैं। मनमाने ढंग से लागू किए गए किसी फैसले से जो सुरक्षा मिलनी चाहिए, वह भले ही संविधान में न लिखी हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इसे माना है। रोयप्पा मामले की तरह 1979  में रमन्ना दयाराम शेट्टी और द इंटरनेशनल एयरपोर्ट अथॉरिटी के मामले में कोर्ट ने अहम फैसला दिया था। उस वक्त एयरहोस्टेस के लिए यह नियम था कि किसी भी एयरहोस्टेस के पास नौकरी मिलने के बाद कुछ वर्षों तक विवाह करने का अधिकार नहीं होगा और विवाह के बाद उसे कुछ वर्षों तक बच्चा पैदा करने का अधिकार नहीं होगा। जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में आया तो उसने कहा कि मां बनने का अधिकार औरत से नहीं छीना जा सकता है। अभी दो साल पहले तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए अवैध माना कि मुस्लिम पति मनमाने तरीके से अपनी पत्नी को तलाक दे सकता था।

इसके अलावा पिछले 70 साल में सुप्रीम कोर्ट ने जो सबसे बड़ा काम किया है, वह अनुच्छेद 21 में किया है। जब नया-नया संविधान बना था तो तमिलनाडु में कम्युनिस्ट नेता ए.के.गोपालन को अपराध निरोधक कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। उनकी इस गिरफ्तारी को जब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो उसने कहा कि “अनुच्छेद 21 के तहत सरकार को यह अधिकार है कि वह किसी भी नागरिक की स्वतंत्रता को छीन सकती है, अगर उसके लिए कोई कानून बना दिया गया है। एक अपराध निरोधक कानून बना हुआ है, उसके तहत गोपालन को गिरफ्तार किया गया, इसलिए हम इसमें कुछ नहीं कर सकते।” उस फैसले में न्यायाधीश फजल अली ने बहुमत के फैसले से अलग राय रखी थी। इसी तरह जब जनता सरकार 1978 में आई। उस वक्त मेनका गांधी एक सूर्या नाम की पत्रिका चलाती थीं। उनका पासपोर्ट, पासपोर्ट एक्ट के तहत जब्त कर लिया गया, तो वे सुप्रीम कोर्ट गईं। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने मेनका गांधी बनाम भारत गणराज्य पर एक ऐतिहासिक फैसला दिया। उसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत जो लोगों को स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है, वह सिर्फ एक कानून बनाने से नहीं छीना जा सकता है। बल्कि न्यायालय यह देखेगा कि क्या वह कानून न्याय देता है, उससे कोई भेदभाव नहीं होता है, वह तार्किक है और वह मनमाने तरीके से तो नहीं लागू किया गया है। असल में अनुच्छेद 21 को ड्रॉफ्ट करते समय, संविधान संभा ने उसमें “तय प्रक्रिया” शब्द को हटा दिया था और “कानून द्वारा लाई गई प्रक्रिया” को शामिल कर लिया था। उसे सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के जरिए वापस संविधान में शामिल कर दिया।

इमरजेंसी की उलटबांसी

इसके बाद इमरजेंसी में कुछ गलत फैसले सुप्रीम कोर्ट ने कर दिए थे, जिसमें एडीएम जबलपुर का मामला भी शामिल है। इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने अनुच्छेद 21 को राष्ट्रपति की अधिसूचना से निलंबित कर दिया था। इस फैसले के बाद काफी लोग इमरजेंसी में अपराध निरोधक कानून के तहत बंदी बनाए गए थे, उन लोगों ने विभिन्न हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दायर की। तब देश के नौ हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अनुच्छेद 21 को निलंबित किए जाने के बावजूद स्वतंत्रता का अधिकार और अदालत में गैर-कानूनी गिरफ्तारी के खिलाफ जाने का अधिकार समाप्त नहीं होता है, क्योंकि अनुच्छेद-21 ही केवल व्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देने का माध्यम नहीं है। इसके बाद हाईकोर्टों के अपने खिलाफ दिए गए फैसले पर इंदिरा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 4-1 से एक फैसला दिया। उसमें यह कहा गया कि अगर किसी व्यक्ति को इमरजेंसी के दौरान गिरफ्तार किया जाता है तो उसे अदालत जाने का भी अधिकार नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुच्छेद-21 निलंबित है। सिर्फ एक न्यायाधीश एच.आर. खन्ना ने फैसले के खिलाफ अपनी राय रखी। बाद में न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने संपादकीय में लिखा कि भारत में अगर कभी भी स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी बनाई जाएगी तो वह न्यायाधीश खन्ना की होगी।

जनहित याचिका की पहल

इमरजेंसी खत्म हुई तो उस समय न्याय प्रणाली साख के संकट से गुजर रही थी। समाज में न्यायाधीशों की विश्वसनीयता कम हो गई थी। इसलिए उस सम्मान को दोबारा पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका की व्यवस्था शुरू की। जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट याचिकाकर्ता से यह नहीं पूछता कि उसके किस अधिकार का हनन हुआ है, बल्कि वह पूछता है कि किसके अधिकार का हनन हुआ है। इस कदम के बाद लोगों ने यह लिखा कि अब सुप्रीम कोर्ट भारत के नागरिकों के दुख-दर्द को गंभीरता से लेने लगा है। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 की बहुत व्यापक व्याख्या भी कर डाली। यानी अनुच्छेद-21 में उसने 20-21 अतिरिक्त अधिकार भी जोड़ दिए। जैसे, उसने कहा कि अनुच्छेद-21 में रोजगार का अधिकार, अच्छी हवा पाने का अधिकार, अच्छा वातावरण पाने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, न्यायिक मामलों के जल्द निस्तारण का अधिकार भी शामिल है। यही नहीं, उसने यह भी कहा कि किसी को हथकड़ी लगाने का तभी अधिकार है, जब पुलिस को यह लगे कि अ‌भियुक्त के भागने का डर है। इसी तरह बिहार के भागलपुर से सुप्रीम कोर्ट को किसी ने एक पत्र लिखा कि वहां जेलों में कैदियों के आंखों में सुइंयां चुभो कर उनको अंधा बना दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर फौरन संज्ञान लेते हुए कैदियों को फौरन दिल्ली के एम्स लाकर इलाज कराने और उन्हें हर्जाना देने का आदेश दिया। इसी तरह अवैध गिरफ्तारी के मामले में भीम सिंह और रोबाल शाह के केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसले सुनाए। अनुच्छेद-32 के तहत कभी मुआवजा नहीं दिया जाता था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसकी भी व्यवस्था की।

कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों को व्यापक बनाने के लिए दो तरीके बनाए। एक, अनुच्छेद-12 में जहां राज्य को परिभाषित किया गया है, उसकी परिभाषा को व्यापक कर दिया। अनुच्छेद-12 उसमें जो शब्द दूसरी अथॉरिटी आया है, उस शब्द की परिभाषा को बहुत व्यापक कर दिया, क्योंकि मौलिक अधिकार राज्य के विरुद्ध है, ऐसे में परिभाषा सीमित कर दी जाएगी तो मौलिक अधिकार भी सीमित हो जाएंगे। दूसरे सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-21 की बहुत व्यापक व्याख्या की। इस तरह भारत में अधिकारों की क्रांति लाने का काम सुप्रीम कोर्ट ने कर दिया। यह परिभाषा कितनी व्यापक हो गई, इसे रतलाम म्युनिसिपलिटी के मामले में समझा जा सकता है। जहां रतलाम में पैसे नहीं होने का हवाला देकर म्युनिसिपल बोर्ड ने नालियां साफ करने से इनकार कर दिया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह कोई दलील नहीं है, पैसा हो या नहीं हो आपको नालियां साफ करनी होंगी। लोगों के पास अनुच्छेद-21 के तहत अधिकार है कि लोगों को नालियां साफ मिलें। इसी तरह देहरादून में चूना पत्थर की कटाई की वजह से काफी प्रदूषण हो रहा था, तो आरएलईके के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह भी अनुच्छेद-21 का उल्लंघन है, क्योंकि शुद्ध वातावरण मिलना मौलिक अधिकार है। साफ है कि सुप्रीम कोर्ट की नजर में मौलिक अधिकारों का कितना महत्व है।

धार्मिक स्वतंत्रता

इसी तरह अनुच्छेद-25 में सुप्रीम कोर्ट ने धर्म की स्वतंत्रता पर अकुंश भी लगाया। कोर्ट ने इस अधिकार को इसलिए व्यापक नहीं किया, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट विभिन्न धर्मों की कुरीतियों को संरक्षण देना नहीं चाहता था। इसीलिए जब यह मामला आया कि हिंदू मंदिरों में अछूतों को जाने की इजाजत मिले तो सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म की परंपरा नहीं है। धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक नई संकल्पना निकाली, जिसमें वह खुद एक धार्मिक संस्था बन गया, जिसमें वह तय करता है कि किसी धर्म की मूल भावना क्या है।

अभी हाल ही में आए सबरीमला मामले में नौ न्यायाधीशों की खंडपीठ यह देखेगी कि भगवान अयप्पा के मंदिर में 10-50 साल की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश देने की अनुमित होनी चाहिए या नहीं। भगवान अयप्पा को मानने वाले का कहना है कि भगवान ब्रह्मचारी हैं, इसलिए इस उम्र की महिलाओं को प्रवेश नहीं मिलना चाहिए। इसी तरह अनुच्छेद-30, जिसमें अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकार मिला हुआ है। उसकी भी सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक व्याख्या की है। इसके तहत अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार होगा। उसमें जो सबसे महत्वपूर्ण शब्द “चयन के अनुसार” है। अल्पसंख्यक चाहे धार्मिक हों या भाषाई हों, उनको अधिकार होगा कि वे अपनी इच्छा के अनुसार अपने शिक्षण संस्थान को स्थापित और प्रशासित कर सकें। सुप्रीम कोर्ट ने 1957 के केरल मामले पर अपने फैसले में सबसे महत्वपूर्ण बात “चयन के अनुसार” पर ही जोर दिया  है। उसने यह भी कहा कि अल्पसंख्यकों के पास अधिकार है कि वे इसे जितना चाहें व्यापक बना लें। उसी आधार पर अधिकार भी तय होंगे। इसमें कुछ गलत फैसले भी आए। जैसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर सुप्रीम कोर्ट का 1968 में एक गलत फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों वाली खंडपीठ अब इस पर दोबारा सुनवाई करेगी। उसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कह दिया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना सर सैयद अहमद खां और मुसलमानों ने नहीं की, बल्कि उसकी स्थापना संसद ने की थी, इसलिए वह अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका

पिछले चंद दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीर और दूसरे मामलात में वह तत्परता नहीं दिखलाई, जैसी 80 और 90 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने दिखाई थी। इसकी वजह से बहुत से लोगों को लग रहा है कि शायद सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर इमरजेंसी के जमाने की तरफ जा रहा है। मुझे विश्वास है कि ऐसा नहीं है। अगर ऐसा है तो यह देश के लिए अच्छा नहीं होगा। अभी 10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट को अभिव्यक्ति का अधिकार मानकर एक बहुत अच्छी पहल की है। ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट पर जो इल्जामों का साया मंडरा रहा है, उससे बचने और उन्हें गलत साबित करने की कोशिश उसने की है। सुप्रीम कोर्ट को संविधान ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों का रक्षक माना है, तो सुप्रीम कोर्ट को हमेशा यह कोशिश करनी चाहिए कि देश में बहुलतावाद बना रहे, क्योंकि संसद में जिसके पास बहुमत है, तो वह जो चाहे वह करेगा। यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है कि बहुमत वाली सरकार बहुसंख्यकवाद नहीं करने पाए। साथ ही सरकार कोई मनमानी न करे और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन न करने पाए और संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध भी न जाए।

अधिकार बनाम दायित्व

कभी-कभी यह भी होता है कि जो सरकारें मनमाने फैसले की तरफ ज्यादा जाती हैं, वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों से ज्यादा उनके कर्तव्यों की बातें करने लगती हैं। जब संविधान 1950 में लागू हुआ, तो उसमें नागरिकों के कर्तव्यों को नहीं बताया गया था। इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के जरिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय-4 ए को शामिल किया। इसके लिए अनुच्छेद 51-ए जोड़ा गया। लेकिन इंदिरा गांधी ने भी यह नहीं कहा था कि जो अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा, उसे अपना मौलिक अधिकार नहीं मिलेगा।

एक बात और स्पष्ट है कि मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्यों में चोली दामन का साथ संविधान नहीं मानता है। यानी जब तक आप कर्तव्य नहीं करेंगे तो अधिकार भी नहीं मिलेगा। इसे संविधान में स्वीकार नहीं किया गया है। भारतीय संस्कृति में भले ही कर्तव्यों को महत्ता दी गई है लेकिन संविधान अधिकारों के मुकाबले कर्तव्यों को महत्व नहीं देता है। पर यद‌ि देश को आगे जाना है तो हमें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, अधिकारों की मांग करनी चाहिए।

मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए जो फैसले दिए हैं, वह पूरे विश्व में बहुत इज्जत से देखे जाते हैं। यूरोप के मानवाधिकार न्यायालयों में, पाकिस्तान और बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट में भारत के फैसलों को नजीर मानकर कई अहम फैसले दिए गए हैं। बांग्लादेश में जब सैनिक तानाशाह जियाउररहमान ने इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित किया, उस वक्त वहां की सुप्रीम कोर्ट ने भारत के सुप्रीम कोर्ट के केशवानंद भारती के फैसले को आधार मानते हुए जियाउररहमान के फैसले को निरस्त कर दिया था।

(लेखक संविधान विशेषज्ञ और एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर हैं)

– साभार-

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