कुछ तो बदल रहा है—- सुभाषिनी सहगल अली

असहिष्णुता जैसी थी, वैसी ही है। अपनी बात कहने और दूसरों की बात अनसुनी कर देने की आदत बनी हुई है। अपने को देशभक्त और आलोचक को देशद्रोही ठहराने की प्रक्रिया ज्यों की त्यों है। प्रदर्शनकारियों से ‘बदला’ लेने की घोषणा अब भी गूंज रही है। विरोध करने वालों को आतंकित करने का रवैया नए रूप धारण कर रहा है। गाली, गोली, लाठी-डंडे सब वही जाने-पहचाने हैं, लेकिन दूसरी तरफ बहुत कुछ बदल रहा है। नए जोश के साथ नए नारे लग रहे हैं। ऐसा कुछ हो रहा है, जो लोगों को एक दूसरे से जोड़ रहा है और अकेले पिटने, अकेले मारे जाने, अकेले घेरे जाने और अकेले मरने का भय दूर कर रहा है। जितना भय दूर हो रहा है, उतना और साथ आ रहे हैं, एक दूसरे के साथ जुड़ रहे हैं। एक दूसरे के लिए आवाज उठाने के लिए तैयार हैं;  एक दूसरे को ‘उनसे’ बचाने के लिए तैयार हैं; एक दूसरे के लिए जान देने के लिए तैयार हैं।कुछ तो बदल रहा है। चुप्पियां टूट रही हैं। स्वर से स्वर मिल रहे हैं। हर भाषा के स्वर आपस में मिल रहे हैं और एक नई भाषा, जो सबके विरोध की भाषा है, बन रही है। एक बदलाव आता दिखाई दे रहा है। उसका चेहरा सिर पर खून से भीगी पट्टी बांधे और फिर भी मुस्कराती एक नवयुवती का चेहरा है। उसका चेहरा हाथ में झंडा लिए गरीब बस्ती में रहने वाली परेशान, लेकिन निडर महिला का चेहरा है। उसका चेहरा वह जाना-पहचाना चेहरा भी है, जो सपनों की दुनिया के पर्दों पर ही अब तक दिखता था।

बदलाव के इस समर का हिस्सा मजदूर भी हैं, किसान भी, दलित भी, अल्पसंख्यक भी, लेकिन इसका चेहरा तो महिला का ही है। ऐसा होना अजूबा है, इसलिए आश्चर्यजनक है, इसलिए प्रेरणादायक है, क्योंकि खतरों को झेलते, जानलेवा हमलों से टकराते, डरावनी धमकियां सुनते, अपने शरीर को कांटों के बीच लहूलुहान करते ये चेहरे संग्राम की अगुआई कर रही हैं। जेएनयू की अध्यक्ष, एसएफआई की आईशी घोष, जो थकती नहीं दीख पड़ती, जिसने सरकार की फीस वृद्धि की उस नीति को, जिससे न जाने कितने आम परिवार के बच्चे और उससे भी अधिक परेशान हाल, दूर-दराज के गांवों और कस्बों से निकले होनहार बच्चे शिक्षा का अधिकार पाने से ही वंचित रहते, मानने से इन्कार किया। उसको मार गिराने के लिए गुंडे विश्वविद्यालय में घुसे, उस ढाई पसली की बच्ची को उन्होंने लहूलुहान कर डाला, अस्पताल में वह भर्ती हुई, उसके सिर पर पंद्रह टांके लगे और दूसरे दिन ही, पट्टी बांधे, मुस्कराती हुई वह फिर मोर्चा संभालने पहुंची। फिर सपनों की दुनिया से, जादुई पर्दों पर दिखने वाली भी इन सबके साथ अपनी आवाज जोड़ने लगी, उनके साथ खड़ी भी हुईं। स्वरा तो हर तरह से, लंबे समय से साथ थी, लेकिन ट्विंकल ने अपने पति से अलग सोच रखने का परिचय देते हुए कहा कि अब तो देश में केवल गाय सुरक्षित हैं, छात्र नहीं। बिना अपने पति के दीपिका अकेले ही जेएनयू गईं। आलिया, तापसी, सोनाक्षी, सोनम-सब अपनी आवाज विरोध की आवाजों के साथ मिला रही हैं। इन सबको मालूम है कि ऐसा करने की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। उनकी फिल्मों का बहिष्कार किया जाएगा, उन्हें भद्दी गलियों से संवारा जाएगा, उनके चरित्र को कीचड़ में घसीटा जाएगा, लेकिन उन्होंने ठान लिया है कि वे विरोध के साथ रहेंगी।

तभी तो कहना पड़ रहा है : यह जो बदलाव का समर छिड़ गया है, इसका चेहरा एक बहादुर महिला का है। इस धरती को हिलाने में महिलाओं का जबर्दस्त योगदान है।  उनको मालूम है कि इससे तमाम जंजीरें टूटेंगी, और जंजीरों में सबसे अधिक वे ही जकड़ी हुई हैं।

सुभाषिनी सहगल अली -माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य।

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