बर्लिन दीवार गिराने के 30 साल बाद- इनेस पोल

जिस किसी ने भी सोचा था कि बर्लिन की दीवार और सलाखों के पहरे हटाने से सीमाएं हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी, वह गलत साबित हुआ है. दीवार गिरने के 30 साल बाद, आज हमें उसका उल्टा दिखाया जा रहा है और सीमा की दीवारें वापसी कर रही हैं.

सिर्फ अमेरिका-मेक्सिको की सीमा पर ही नहीं, बल्कि इस्राएलियों और फलस्तीनियों और दोनों कोरियाई देशों के बीच दीवारें हैं. यूरोपीय संघ में भी सीमा की दीवारें वापसी कर रही हैं. कई जगहों पर बाड़ लगाई जा रही हैं और सीमा चौकियां स्थापित की जा रही हैं. इन सब बातों के बीच जर्मनी आकर्षक दिखता है.

ग्लासनोस्ट और पेरेस्ट्रोइका के साथ साथ पोलैंड और हंगरी के लोगों से प्रेरित होकर पूर्वी जर्मनों ने पूरी तरह एक शांतिपूर्ण क्रांति के जरिए उस दीवार को गिरा दिया जिसने जर्मनी को पूर्व और पश्चिम में बांट दिया था. एक भी गोली नहीं दागी गई. इस घटना से पहले नाटकीयता के भरे दिनों में भी कोई घायल नहीं हुआ और ना ही 9 नवंबर 1989 की रात को कुछ हुआ.

इसके लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय के भरोसे और खासकर अमेरिका और गोर्बाचोफ के सोवियत संघ का शुक्रिया अदा करना होगा. हालांकि फ्रांस और ब्रिटेन को शुरू में कुछ चिंताएं थी. लेकिन बर्लिन की दीवार गिरने के 11 महीने बाद जर्मनी का एकीकरण हो गया. इसने एक कल्याणकारी व्यवस्था, एक संयुक्त इंफ्रास्ट्रक्चर नेटवर्क और उस सब की बुनियाद रखी जो दो अलग-अलग व्यवस्थाओं को अब एक साथ चलाने के लिए चाहिए था.

जर्मनी में जो कुछ हासिल किया गया, उसे लेकर कुछ लोग गर्वित और यहां तक कि खुश भी दिखते हैं. वहीं, अपने आप से जर्मनी के संघर्ष ने एक राजनीतिक उथल पुथल को जन्म दिया है जिसकी वजह से बीते तीन दशक में बनी राजनीतिक व्यवस्था डगमगा रही है. विशेषकर पूर्वी राज्यों में खासी मजबूत हो चुकी दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) पार्टी उन बुनियादी मूल्यों पर सवाल उठा रही है जिन पर एकीकृत जर्मनी टिका है. वह यूरोप के विचार और आप्रवासियों को लेकर जर्मनी के नजरिए पर संदेह करती है. वह दुनिया और मानवता को लेकर एक नस्लवादी और राष्ट्रवादी नजरिया रखती है. जर्मनी की दो बड़ी पार्टियां जनाधार खो रही हैं और सरकार बनाने के लिए गठबंधन बनाना मुश्किल होता जा रहा है. अभी तो ऐसा लगता है कि जर्मनी की जिस स्थिरता और होनहार प्रवृत्ति की तारीफ होती थी, वह कहीं खो गई है.

बेशक जर्मनी में धुर दक्षिणपंथी पॉपुलिस्टों का उभार नई बात नहीं है. लेकिन यहां कुछ ऐसी बातें हैं जो एक विभाजित देश के तौर पर जर्मनी के इतिहास से जुड़ी हैं.

वैश्वीकृत दुनिया की अनिश्चितत्ता और बड़ी चुनौतियों को देखते हुए जर्मनी को अपनी शांतिपूर्ण क्रांति के 30 साल बाद अपने आप से पूछना होगा कि वह कैसा देश बनना चाहता है. एक ऐसा देश, जहां यहूदी पूजा के लिए जब सिनागॉग पर जमा हों तो वे अपनी सुरक्षा को लेकर हमेशा भयभीत रहें? एक ऐसा देश, जहां दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी विचारधारा और लोगों को बांटने वाली राजनीति के खिलाफ खड़े होने वाले राजनेताओं को अपनी जान का डर सताए? एक ऐसा देश, जहां लोगों की जड़ों और उनकी त्वचा के रंग के आधार पर तय किया जाए कि वे इस देश के हैं या नहीं.

मैं उम्मीद करती हूं कि जश्न के इस माहौल में हम इस बारे में सोचेंगे कि अगले 30 साल में हमारा देश कैसा दिखेगा. उसे साहसी होना होगा. उसे संविधान के मूल्यों में विश्वास दिखाना होगा. इस वक्त संविधान में लिखी बहुत सी बातों पर संदेह दिखाया जा रहा है. आज हम अतीत के साहस का जश्न मना रहे हैं. उम्मीद है कि इसी से हम एक अच्छे, आजाद और न्यायपूर्ण भविष्य की लड़ाई लड़ने का साहस भी जुटा सकेंगे.

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