स्मार्ट सिटी योजना से कोविड-19 का कोई हल क्यों नहीं होगा?

सीन राय-रोचे  अनुवाद- महेश कुमार

हालांकि स्मार्ट सिटी मिशन को महामारी के एक महत्वपूर्ण जवाब के रूप में पेश किया जा रहा है, लेकिन असली मुद्दा कुछ ओर है।

भारत के महत्वाकांक्षी स्मार्ट सिटी मिशन (SCM) की घोषणा हुए पांच साल बीत चुके हैं। इस मामले में यह कहना सही होगा कि इसमें अभी तक कोई खास प्रगति नहीं हुई है। वर्तमान में, तय किए गए, आधे से भी कम शहरों में काम शुरू हुआ हैं जबकि अन्य शहरों में तो अभी परियोजना का काम शुरू भी नहीं हुआ है। लेकिन, दिलचस्प बात यह है कि कोविड-19 और भारतीय शहरीवाद की समस्या ने उन्हें नए सिरे से प्रेरणा, समर्थन और औचित्य दे रही है।

इस मिशन के समर्थकों के बीच यह विचार कि स्मार्ट सिटी ही कोविड का मुकाबला कर सकते हैं, ने एक मज़बूत पकड़ बना ली है। यहां तक कि पिछले हफ्ते, #CitiesFightCorona और #TransformingIndia को आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय, स्मार्ट सिटी मिशन (एससीएम) और कई नगर निगम अधिकारियों ने ट्विटर पर ट्रेंड कराया था। अनगिनत लेखों में इस बात का भी तर्क दिया गया है कि इस संकट का रास्ता भारत की स्मार्ट सिटी के माध्यम से निकलता है। इसलिए, इससे पहले कि हम यह पता लगाएं कि यह संकट वास्तव में स्मार्ट सिटी मिशन (एससीएम) को कैसे पुनर्जीवित कर सकता है, यहाँ यह सोचना बेहद जरूरी है कि हम इस समझ तक पहुंचे क्यों हैं।

2015 में मोदी ने स्मार्ट सिटी मिशन को लॉन्च किया था, स्मार्ट सिटी मिशन एक राष्ट्रव्यापी शहर निर्माण और उन्नयन का कार्यक्रम है। इस मिशन का काम, 100 स्मार्ट शहरों को अपग्रेड करेगा, रेट्रोफिटिंग करना या उनका निर्माण शून्य से करना है। यदि इसे मौजूदा शहरों में लागू किया जाता है, तो यह एक क्षेत्र-आधारित विकास (ABD) या फिर पैन-सिटी दृष्टिकोण से काम करेगा। एबीडी फंडिंग का लगभग 80 प्रतिशत मुहैया कराता है और शहरों के भीतर जिलों या समुदायों पर ध्यान केंद्रित करता है। हालांकि, इस योजना की संपन्न क्षेत्रों और आबादी को लक्षित करने की काफी आलोचना हुई है – फिर भी एबीडी परियोजनाओं से संबंधित के कुछ अनुमान बताते हैं कि वे शहरी आबादी के केवल 4 प्रतिशत लोगों को लाभान्वित कर पाएंगे और केवल 3 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों को कवर करते हैं।

दूसरी ओर, पैन सिटी यानि पूरे शहर के बारे में व्यापक परियोजनाएँ हैं। हालाँकि, इस योजना में अधिकांश हिस्सा निगरानी और नियंत्रण (सीसीटीवी, चेहरे की पहचान, सुरक्षा प्रणाली आदि) पर सिमट जाता हैं, जबकि योजना के तहत शहर में स्वच्छता, बुनियादी ढांचे का निर्माण या पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए, 2019 की में सुरक्षा पर तैयार स्मार्ट सिटीज़ इंडिया रिपोर्ट में बताया गया है कि पर्यावरण और आपातकालीन प्रतिक्रिया में निगरानी पर 2,000 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है, जबकि पर्यावरण निगरानी के लिए मात्र 500 करोड़ रुपए से भी कम का आवंटन हैं। (ग्राफ गौर फरमाए)।

“स्मार्ट सिटी का दर्जा” हासिल करने के लिए आपको प्रतियोगिता में शामिल होना होगा। इसमें केंद्र की तरफ से एक समन्वित राष्ट्रीय शहरी नीति की कमी स्पष्ट रूप से झलकती है जिसके चलते विभिन्न शहरों को निवेश और समर्थन के लिए एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी। जीतने वाले 100 शहरों, जिनमें 10 करोड़ लोगों के लिए अनुमानित घर हैं, को क्रमबद्ध तरीके से सबसे अच्छे से बुरे के रूप में प्रस्तुत किया हैं। स्मार्ट सिटी मिशन परियोजनाओं के लिए कुल वित्त पोषण 30 अरब डॉलर के आसपास है और केंद्र ने लगभग प्रति वर्ष प्रति शहर को 100 करोड़ रुपए देने का वादा किया है, हालांकि कई पर्यवेक्षकों का कहना है कि सुझाए गए परिवर्तनों को लागू करने के लिए यह पैसा बहुत कम है।

इसलिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी इस तरह की परियोजनाओं के वित्तपोषण का एक प्रमुख साधन है और इस प्रकार नगरपालिकाएं निजी निवेश को लाभदायक अवसरों के मौके बनाकर पेश कर रही है।

कोविड-19 तथा स्मार्ट सिटी मिशन 

पांच साल से चूक रहे लक्ष्यों, व्यापक आलोचनाओं और लड़खड़ाहट के बाद, स्मार्ट सिटी मिशन में कोविड-19 ने फिर से कैसे नई जान फूंक दी इसे देखना जरूरी है? उल्लेखनीय रूप से, एससीएम मिशन निदेशक, कुणाल कुमार, और सह-लेखक जयदीप गुप्ते जो इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट स्टडीज के एक स्कॉलर हैं, ने अपने एक लेख में कहा कि “कोविड-19 के विरुद्ध भारत का जवाब अब उसके स्मार्ट शहरों पर सफल निवेश पर निर्भर करता है।”

कुमार के मुताबिक, अन्य चीजों के अलावा “कोविड-19 प्रसार को धीमा करना, भारत की डेटा की आधारभूत संरचना पर भारी निर्भरता है- महत्वपूर्ण निर्णय लेने और स्मार्ट सिटीज़ मिशन के लिए रियल टाइम डेटा रीडिंग जरूरी है।” उनके हित में यह बात अप्रैल में तय हो गई कि भारत में कई शहरों के प्राधिकरण महामारी से लड़ने के लिए नवीन तकनीकी प्रतिक्रियाओं का इस्तेमाल करने लगे थे, इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कि प्रौद्योगिकी का ठीक से इस्तेमाल न होना मुख्य रूप से भारत में एक शहरी संकट बताया है।

आगरा को अक्सर एक उदाहरण के रूप में रखा जाता है। इस शहर का प्रशासन उन टेक कंपनियों के साथ काम कर रहा है, जिन्होंने काफी मूल्यवान सेवाएं प्रदान की हैं जो कोविड-19 मामलों को ट्रैक कर सकते हैं और संपर्क, हॉटस्पॉट और स्थानीयकृत रुझानों की पहचान करने के लिए ऐप विकसित कर सकते हैं या किए हैं। स्मार्ट सिटी सेवाओं पर काम करने वाली और आगरा में अधिकारियों की मदद करने वाली मुंबई की टेक कंपनी गैया (GAIA) की निदेशक अमृता चौधरी ने समझाया कि इस “प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने वाले नागरिक खुद का मूल्यांकन खुद ही कर सकते हैं और फिर इस जानकारी को शहर के अधिकारियों को भेज दी जाती है। इसके बाद, फिर पिनकोड के हिसाब से मैपिंग की जाती है, जहां मध्यम और उच्च जोखिम वाले लोगों या मामलों की पहचान की जाती है। ”

हालांकि, इस तरह के अनुप्रयोगों ने आगरा जैसे शहरों में कोविड-19 के प्रसार को ट्रैक करने में मदद की हो सकती है, लेकिन साथ ही उन्होंने भारत में अपर्याप्त स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे की अंतर्निहित समस्या का समाधान करने में बहुत कम मदद की है। इंडियन एक्सप्रेस के एक विश्लेषण में कहा गया है कि स्मार्ट सिटी मिशन में 5,861 परियोजनाओं में से केवल 69 स्वास्थ्य सुविधाओं और क्षमता निर्माण पर केंद्रित हैं। और, स्मार्ट सिटी फंडिंग में 2,00,000 करोड़ रुपए में से, केवल 1 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवा देखभाल पर आवंटित किया गया है। दिल्ली को देखों जहां माहामारी से निबटने के लिए क्षमता की कमी के कारण 25 लक्जरी होटल को अस्पतालों में बदला जा रहे हैं, इसलिए स्मार्ट सिटी के तर्क में स्वास्थ्य या स्वच्छता बुनियादी ढांचे के ऊपर विशेषाधिकारों वाली तकनीकी संरचना को बढ़ावा देना त्रुटिपूर्ण कदम दिखाई देता है।

ऐसा लगता है मानो स्मार्ट सिटी मिशन के दृष्टिकोण में तकनीक की क्षमता को लेकर अंध-विश्वास का बोलबाला है। यह बात सब बहुत अच्छी तरह से जानते है कि “45 शहरों में स्मार्ट सिटी मिशन के तहत ऑपरेशनल इंटीग्रेटेड कमांड एंड कंट्रोल सेंटर (ICCC)  सुविधा हैं,” जैसा कि कुमार ने हमें याद दिलाया, लेकिन उन शहरों में कितने अस्पताल बेड और वेंटिलेटर हैं? – सीडीडीईपी (CDDEP) ने पाया कि भारत में 130 करोड़ की आबादी के लिए 19 लाख अस्पताल के बेड, 95,000 सघन चिकित्सा (ICU) बेड और 48,000 वेंटिलेटर हैं जो असमान रूप से वितरित हैं।

कोविड-19 से पहले स्मार्ट सिटी मिशन आर्थिक रूप से आकर्षक, उच्च तकनीक वाले व्यवसायिक शहर बनाने के बारे में था, जो मौजूदा भारतीय शहरों के साथ कुछ प्रमुख बुनियादी मुद्दों से दूर हो जाता है और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे के बारे में बहुत ज्यादा परवाह नहीं करता है। कुछ के विचारों के विपरीत, कोविड-19 का उपयोग स्वास्थ्य के अपर्याप्त बुनियादी ढांचे को उजागर करने के लिए किया जाना चाहिए और शहरी मुद्दों को संबोधित करने में प्रौद्योगिकी की प्रमुखता को आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।

ऐसे संकेत हैं कि कुछ परिवर्तन तो हो रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य सेवा प्रावधान में व्यापक पैमाने पर बदलावों को समायोजित करने में असमर्थ स्मार्ट सिटी मिशन में आर्थिक तर्क अंतर्निहित है, इसकी उम्मीद बहुत ही कम है कि यह मिशन बहुमत जनता तक अधिक पहुंच और उनकी स्वाथ्य देखभाल की गुणवत्ता के परिणाम में बदलेगा। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स के डायरेक्टर हितेश वैद्य ने कहा, “शहरों को वह स्मार्टनेस चाहिए जो वे चाहते हैं” और उसमें स्वास्थ्य प्रमुख मुद्दों में नहीं आता है।  इसका प्रमुख फोकस शहर को आर्थिक रूप से जीवंत बनाना था, लेकिन अब कोविड-19 के हमले ने बता दिया है कि आप केवल तभी तरक्की का आर्थिक इंजन बन सकते हैं जब आपके लोग स्वस्थ होंगे।”

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जिनकी रुचि शहर में भूगोल, आवास और वास्तुकला कैसे सामाजिक संबंधों को सुधारने में काम कर सकते है में है। उन्होंने भारतीय संदर्भ में मलिन बस्तियों, स्मार्ट शहरों और पारंपरिक डिजाइन पर काफ़ी लिखा है। सौज- न्यूजक्लिक-

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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