‘मुझे लगता है कि जैसे-जैसे मैं अभिनय जैसी गूढ़ कला को समझता जाऊंगा, मेरी कद्र कम होती जाएगी’- संजीव कुमार

जाने-माने अभिनेता संजीव कुमार ने यह लेख 60 के दशक में फिल्मफेयर पत्रिका के लिए लिखा था

अकबर बादशाह कब हुए और गर्मियों में आगरा का तापमान कितना रहता है, इन दो सवालों बीच सिवा इसके क्या फर्क है कि दोनों मास्टर जी का खौफ पैदा करते हैं, मुझे आज तक ठीक से नहीं मालूम. ठीक इसी तरह मुझे यह भी मालूम नहीं कि किसी फिल्म में हीरो की भूमिका के बीच मूल भेदभाव क्या होता है. मैं पढ़ने में बहुत तेज होता, प्रथम श्रेणी में पास हुआ करता तो आज प्रोफेसर, वकील, इंजीनियर या डॉक्टर हो जाता. मेरे शौक ने मुझे अभिनेता बना दिया. आज मेरे पास बहुत सी फिल्में हैं, बहुत सा काम है. लोग इसे मेरी सफलता मानते हैं. मुझे बधाई देते हैं. मैं मन ही मन संकोच अनुभव करता हूं.

मैंने इतिहास को भूगोल में और साइंस को संस्कृत में न मिलाया होता, मन लगाकर पढ़ा होता तो हर बरस पास होने का गर्व होता. यहां मैं पास हुआ तो इस तरह कि पांचवीं की बेसिक परीक्षा और बीए के यूनिवर्सिटी वाले इम्तहान में बैठने को साथ-साथ पढ़ा और एक ही पढ़ाई से दोनों पास कर गया.

मैं फिल्मों में आया था तो एक्स्ट्रा बनाया गया जिसे भीड़ में खड़े रह कर अभिनय का अपना शौक पूरा करना पड़ता है. अब इसे किस्मत ही कहना चाहिए कि उस भीड़ से उठ कर मुझे कुछ छोटी-छोटी भूमिकाएं करने का मौका मिला. यहां मेरी हालत उन क्लासों जैसी थी जिनमें हिस्ट्री और ज्योग्राफी, अर्थशास्त्र और समाजशात्र सभी कुछ पढ़ाया जाता है और जिनमें मास्टर जी कुछ सवाल पूछकर चपत या छड़ी रसीद कर सकते हैं. पढ़ाई के समय में कुछ भी बता नहीं पाता था, पर यहां मैं आसानी से छोड़ने वाला नहीं था क्योंकि यह काम मेरे शौक का था. इसमें मेरी तबियत अनायास ही लगती थी. इसलिए फिर मुझे कुछ और बड़ी भूमिकाएं मिलने लगीं. जब पांच-सात फिल्मों में छोटा काम था तब तीन-चार फिल्में अपेक्षाकृत बड़े काम की भी मेरे पास थीं. यानी मैं छोटे-बड़े दोनों तरह के काम के लिए एक साथ ही अनुबंधित किया जा रहा था.

कोई काम छोटा नहीं होता

एक बात, जिसका मैंने शुरू से ध्यान रखा, वह थी कि किसी तरह के काम को छोटा समझ कर इनकार न करो, काम न करके नाम बढ़ेगा यह तर्क मेरी समझ में नहीं आ सका. इसकी वजह यह भी हो सकती है कि और बहुत से लोगों की तरह मुझे शुरू में ही बड़ा काम पाने का सौभाग्य नहीं मिल सका. मैं छोटे रोलों के लिए ही चुना गया. मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं थी. मगर मुझे हैरत तब से होने लगी जब मुझे बड़ी फिल्में मिलने लगीं. अर्थात उसी स्तर का अभिनय में छोटी भूमिका में भी कर रहा था, बड़ी में भी. तब इस बात की कसौटी क्या है कि कौन अच्छा अभिनेता है, कौन नहीं? यहीं से मेरे मन में यह सवाल उठने लगा कि चरित्र कलाकार की भूमिका और नायक की भूमिका के बीच क्या मूल भेद है? अगर सचमुच कोई भेद है तो विदेशों में प्रसिद्ध अभिनेता एक फिल्म में नायक, दूसरी में खलनायक और तीसरी में कोई चरित्र अभिनेता बने कैसे दिखाई देते हैं? और अगर नहीं है तो नायक की जगह चरित्र प्रधान फिल्में हमारे यहां क्यों नहीं बनती?

यह सवाल मैंने अपने यहां अनेक लोगों के सामने अनेक ढंग से रखा पर कोई निश्चित उत्तर मुझे कहीं से नहीं मिल सका. मैंने सोचा है कि विदेश में जहां ऐसा होता है वहां की रुचि, वहां की परिस्थितियों का अध्ययन करके कोई नतीजा निकालने की कोशिश करूंगा. लोगबागों से जब मैं यह कहता हूं कि अमरीका में मुझे हॉलीवुड के अलावा और कुछ देखने की चाह नहीं है, और इंग्लैंड में मेरे लिए सिर्फ एक आकर्षण है स्टेज तो उन्हें मेरी बातें दिखावा लगती हैं. फिल्मों के आने के पहले मैं नाटकों में काम करता रहा. जो लेशमात्र अभिनय मैं सीख पाया वह यहीं से. उस समय मेरी इच्छा यह रही है कि दुनिया का श्रेष्ठ नाटक देखूं, रंगमंच के मशहूर कलाकारों से मिलूं. इसलिए किसी फिल्म की सिलवर जुबली की खबर से मुझे उतनी प्रसन्नता नहीं हुई जितनी किसी ड्रामे के सौ बार खेले जाने की खबर से होती है.

कोई भी यह पूछ सकता है कि इतनी फिल्में मैं स्वीकार क्यों करता हूं, जो मुझे ज्यादा व्यस्त कर देती हैं. सामान्य आदमी के मुकाबले कलाकारों की, सिर्फ फिल्मों में काम करने वाले कलाकारों की हालत एकदम उलटी है. पढ़-लिखकर मैं प्रोफेसर बना होता तो आगे बढ़कर यूनिवर्सिटी का बड़ा पद पाता. मेरे नाम का दूसरों पर प्रभाव पड़ता. डॉक्टर होता तो गंभीर रोगी मेरे हाथों अच्छे होते. वकालत में उलझे हुए केस मैं सुलझाने में माहिर होता जाता. अब ज्यों-ज्यों मैं अभिनय जैसी गूढ़ कला को समझता जाऊंगा मेरी कद्र कम होती जाएगी. आज मुझे नायक लिया जाता है, कल चरित्र अभिनेता बना दिया जाऊंगा. हो सकता है इसके योग्य भी न गिना जाऊं. यहां हर कलाकार का यही हश्र होता है, इसलिए जो थोड़ा-बहुत मिलता है, उसके हर मिनट का सदुपयोग कर लेने की इच्छा होना स्वाभाविक ही है. इसी प्रयत्न में यह कमी काम में आ जाती है कि कई फिल्मों में अभिनय एक सा लगता है.

चरित्रों का अभाव

इस कमी को दूर रख सकने का एक तरीका यह है कि कहानियों में विविधता हो ताकि अलग-अलग तरह के चरित्र अलग-अलग फिल्मों में मिलें. हमारी फिल्मों का नायक हर फिल्म में एक ही सा काम करता है. कहानी अगर ‘ऑफ बीट’, सही अर्थों में फिल्म लीक से हटी हुई, न हो तो नायक को कुछ करने के लिए नहीं रह जाता है. गा दो, मुस्करा दो, छेड़ो-रूठो-मनाओ, इसलिए नायक बनने के साथ-साथ मैं वह सब भी बन लिया जिसका मुझे मौका मिल सका-हास्य कलाकार, खलनायक, सहनायक और तलवारबाज.

अपनी ओर से मैंने कभी किसी भूमिका को छोटी नहीं माना और न कभी किसी फिल्म को छोटी-बड़ी के पैमाने पर रखा. मेरा ख्याल है कि जहां कहीं भी कला का सवाल आता है, कोई वर्गीकरण बेमानी ही है. हर कोई अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयत्न करता है, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं हो सकता कि कोरी कला कहीं जीवित नहीं रह सकती जब तक उसे व्यापार का आश्रय प्राप्त न हो. फिल्म जगत में यह बात सामने खुलकर ही नजर आती है.

नए अवसरों की जरूरत

जिस तरह छोटी-बड़ी फिल्मों का वर्गीकरण किसी भी कलाकार के लिए किसी महत्व का नहीं होना चाहिए उसी तरह सहकलाकारों को भी किसी भी सीमा से मुक्त रखा जाना जरूरी है. आज नया हीरो नयी नायिका के साथ काम करने से हिचकिचाता है और नामवर नायिका नये आए अभिनेता को नायक लेने पर आपत्ति करती हैं. नामी कलाकार नये निर्देशक से घबराते हैं, नामी निर्देशकों को नये कलाकार फिजूल मालूम देते हैं. यह परस्पर नहीं बल्कि स्वयं पर अविश्वास का प्रतीक है, और कुछ नहीं. यह दूसरों के सहारे खड़े होने का प्रयत्न है. इन बातों को भूलकर बस अपना काम मजबूत करने की कोशिश करनी चाहिए. ऐसा होगा तो कोई असफलता, असफलता नहीं गिनी जाएगी, कोई हतोत्साहित नहीं हो सकेगा. फिल्म उद्योग का जो संकट है वह अविश्वास का संकट है. फिल्मों की कमियां ठीक तरह से समझने वाले लोगों की संख्या कम नहीं हैं. छोटे बजट की फिल्में बनाने के इच्छुक और नयों के हिमायती अनेक हैं पर परिस्थितिजन्य अविश्वास उन्हें मन की करने नहीं देता. विश्वास पैदा होने पर ही परिवर्तन आ सकेगा.

सौज- सत्याग्रह “

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