कल बेहतर होगा, तभी जब हम स्वयं इस दिशा में कदम उठाएं

सुनीता नारायण

प्राकृतिक गैस एवं हाइडेल, बायोमास इत्यादि जैसे स्वच्छ साधनों से ईंधन मिले तो प्रदूषण के स्तर में स्थानीय स्तर पर कमी तो आएगी ही, साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन पर भी लगाम लगेगी.

यह हमारे जीवनकाल का सबसे अजीब एवं संकटग्रस्त समय है. लेकिन साथ ही साथ यह सर्वाधिक भ्रमित करने वाला भी है. ऐसा लगता है, जैसे कोरोना वायरस की वजह से हमें इंसानियत के सबसे अच्छे और बुरे, दोनों पहलू देखने को मिल रहे हैं. सबसे पहले तो न केवल दिल्ली में बल्कि विश्व भर से हवा के साफ होने की खबरें आ रही हैं. ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट के भी संकेत प्राप्त हुए हैं. इसके अलावा मानवीय दृढ़ता, समानुभूति एवं इन सबसे बढ़कर स्वास्थ्य एवं आवश्यक सेवाओं के लिए काम करने वाले लाखों लोगों के निस्वार्थ कार्य का प्रमाण प्राप्त हुआ है.

इस वायरस के खिलाफ चल रहे युद्ध को किसी भी सूरत में जीतने एवं लोगों की जानें बचाने का जज्बा ही कोविड-19 की लड़ाई का हॉलमार्क बनेगा. दूसरी ओर, इस वायरस से लड़ने के क्रम में हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे प्लास्टिक की मात्रा में आशातीत वृद्धि हुई है. देश में कई शहर ऐसे हैं, जो अब कचरा अलग करने की प्रक्रिया बंद कर रहे हैं, क्योंकि लगातार बढ़ते मेडिकल कचरे और प्लास्टिक के व्यक्तिगत सुरक्षा किट (पीपीई) की संख्या के सामने सफाई कर्मचारी बेबस हैं.

तो कह सकते हैं कि हम इस लड़ाई में पीछे जा रहे हैं. इसके अलावा, लोग सार्वजनिक परिवहन के साधनों का प्रयोग नहीं करना चाहते हैं. उन्हें डर है कि भीड़भाड़ वाले सार्वजनिक स्थानों पर संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा. इसलिए, जैसे-जैसे लॉकडाउन खुलेगा, शहरों की सड़कों पर निजी वाहनों की संख्या में निश्चय ही बढ़ोतरी होगी. इससे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार जीवाश्म ईंधनों से होने वाला उत्सर्जन भी बढ़गा.

यह ऐसा समय भी है जब हम मानवता को उसके सबसे बुरे रूप में देख रहे हैं. चाहे गरीबों को पैसे एवं भोजन उपलब्ध कराने में हुई देरी हो, जिनमें वो प्रवासी मजदूर शामिल हैं, जो नौकरियां छूट जाने की वजह से घर जाने को परेशान थे या जनता को जाति, धर्म एवं नस्ल के नाम पर बांटने की कोशिशें हों या फिर वैसे लोग हों, जिन्होंने अपने सगे संबंधी खो दिए, क्योंकि उन्हें समय पर चिकित्सकीय मदद नहीं मिल पाई. इन दिनों यह सब देखने को मिल रहा है. लेकिन हमें भविष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए क्योंकि कोरोना की इस रात का सवेरा भी अवश्य होगा और हम जिस दुनिया का निर्माण अभी करते हैं वही हमारा भविष्य होगा.

साथ ही साथ मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह कोरी बयानबाजी नहीं है और न ही सत्य की कोई लंबी खोज है. असंभव को संभव करना समय की मांग है और आज जब हम इस स्वास्थ्य संकट के चरम पर पहुंच चुके हैं, हमें काम करने के नए तरीके ढूंढ़ने होंगे. हम हालात के सामान्य होने का इंतजार नहीं कर सकते, क्योंकि तब यह न तो नया होगा और न ही अलग. और यह संभव है. हमें आवश्यकता है तो बस ऐसे रचनात्मक उत्तर ढूंढने की जो कई चुनौतियों से एकसाथ निपट सकें.

उदाहरण के लिए शहरों में होने वाले वायु प्रदूषण को लें. हम जानते हैं कि हवा में विषाक्त पदार्थों के उत्सर्जन के लिए वाहन सबसे अधिक जिम्मेवार हैं. सबसे अधिक प्रदूषण माल लेकर शहरों में आवाजाही करने वाले हेवी ड्यूटी ट्रकों से फैलता है. जनवरी (प्री-लॉकडाउन) में, हर महीने तकरीबन 90,000 ट्रकों ने दिल्ली में प्रवेश किया, वहीं अप्रैल में (लॉकडाउन के दौरान) शहर में प्रवेश करने वाले ट्रकों की संख्या घटकर 8,000 रह गई.

अब जैसे-जैसे लॉकडाउन खुलता है, आखिर हम ऐसा क्या कर सकते हैं, जिससे प्रदूषण लॉकडाउन के पहले वाले स्तर पर ही रहे? दरअसल लॉकडाउन के दौरान भारत ने स्वच्छ ईंधन एवं वाहन तकनीक की तरफ एक कदम बढ़ाया है. हेवी ड्यूटी ट्रकों की बात की जाए तो अप्रैल के पहले के बीएस-4 मॉडलों एवं वर्तमान के बीएस-6 मॉडलों के प्रदूषण की मात्रा में नब्बे प्रतिशत का अंतर आता है. यह भी सच है कि ऑटोमोबाइल उद्योग बड़े पैमाने पर वित्तीय संकट झेल रहा है. यह हमारे लिए एक अवसर बन सकता है. अगर सरकार अपने पुराने वाहनों को नए से बदलने के लिए ट्रक मालिकों को सब्सिडी देने की एक स्मार्ट योजना तैयार कर ले तो यह गेम चेंजर साबित हो सकता है.

लेकिन साथ ही साथ यह सुनिश्चित भी करना होगा कि पुराने ट्रकों को कबाड़ में बदलकर उन्हें रिसाइकिल किया जाए, ताकि उनसे और प्रदूषण न फैले.

सार्वजनिक परिवहन के साथ भी कुछ ऐसे ही हालात हैं, सुरक्षा का दबाव लगातार बना हुआ है. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि सार्वजनिक परिवहन के बिना हमारे शहर ठप हो जाएंगे. हमें अब जाकर इसके महत्व का एहसास हुआ है. इसलिए, भविष्य के ऐसे शहरों का पुनर्निर्माण करने के लिए, जो गाड़ियों नहीं, बल्कि इंसानों के आवागमन को ध्यान में रखकर बनाए गए हों, का समय आ चुका है और सरकार से वित्तीय प्रोत्साहन अपेक्षित है. हमें सभी सावधानियों के साथ सार्वजनिक परिवहन को फिर से शुरू करने की आवश्यकता है. हमें इसे तेजी से इस तरह बढ़ाना है, जिससे साइकिल चालकों एवं पैदल चलने वालों को भी साथ लेकर चला जा सके.

आंकड़ों से पता चलता है कि हमारी रोजमर्रा की यात्राओं का एक बड़ा हिस्सा 5 किमी से कम का है. इसलिए ऐसा किया जाना संभव है. लेकिन आज हमने विघटन के जिस पैमाने को देखा है, वह इसी तरह के पैमाने पर प्रतिक्रिया की मांग करता है. यह किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए कल्पनाशीलता के साथ-साथ ठोस, जुनूनी कारवाई की जरूरत है. जहां तक उद्योगों एवं उनसे होने वाले प्रदूषण की बात है तो सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि ये उद्योग किस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं. अगर हम ईंधन के तौर पर कोयले की जगह प्राकृतिक गैस के प्रयोग की ओर कदम बढ़ा सकें तो इससे प्रदूषण में भारी कमी आएगी.

उसके बाद अगर हम ईंधन के तौर पर विद्युत का इस्तेमाल करें और वह विद्युत प्राकृतिक गैस एवं हाइडेल, बायोमास इत्यादि जैसे स्वच्छ साधनों से मिले तो प्रदूषण के स्तर में स्थानीय स्तर पर कमी तो आएगी ही, साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन पर भी लगाम लगेगी. एक बार फिर मैं कहना चाहूंगी कि यह सब संभव है. लेकिन यह सब इस विश्वास पर आधारित है कि हम एक बेहतर कल चाहते हैं.

कोविड-19 केवल एक भूल या दुर्घटना नहीं है, बल्कि यह उन कार्यों का एक परिणाम है जो हमने एक ऐसी दुनिया के निर्माण के लिए उठाए हैं, जो असमान और विभाजनकारी है और प्रकृति व हमारे स्वास्थ्य को नजरंदाज करती हैं. तो इस मुगालते में न रहें कि कल बेहतर होगा, यह बेहतर होगा और बेहतर हो सकता है, लेकिन तभी अगर हम स्वयं इस दिशा में कदम उठाएं

सुनीता नारायण  प्रसिद्ध पर्यावरणविद है। सौज- न्यूजलांड्री

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