हागिया सोफिया मस्जिद से लेकर अयोध्या तक धर्म और राजसत्ता के रिश्तों की कहानी

यूसुफ किरमानी

तुर्की के सुप्रीम कोर्ट ने हागिया सोफिया म्यूजियम को मस्जिद बनाने के पक्ष में फैसला दे दिया है तो भारत में बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर का मुद्दा और इससे जुड़ा अदालती फैसला फिर से बहस के केंद्र में आ गया है.

तुर्की में हागिया सोफिया म्यूजियम को फिर से मस्जिद बनाने का फैसला होने पर दुनिया भर में बहस छिड़ गई है. कैथलिक पंथ के प्रमुख पोप ने इस फैसले पर अफसोस जताया है. यह म्युजियम यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स में शामिल है. इसलिए इतिहासकार और प्राच्यविद भी इस फैसले का विरोध कर रहे हैं.

इतना ही नहीं भारत में दक्षिणपंथी विचारों के लोग अचानक म्यूजियम के बचाव में आ गए हैं और वे आधुनिक तुर्की के इतिहास का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि वहां के सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत है. अगर उस म्यूजियम को मस्जिद में बदला गया तो अनर्थ हो जाएगा. लेकिन भारत के लिए इनके मापदंड अलग हैं.

दिलचस्प ये है कि इस फैसले से भारत में सेकुलरवादी दो धड़ो में बंट गए हैं. भारत में सेकुलरवादियों का एक धड़ा कह रहा है – जैसे भारत में मस्जिद की जगह मंदिर बनाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुसलमानों ने स्वीकार कर लिया तो तुर्की में भी चूंकि वहां की सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के हक में फैसला सुनाया है तो उसे माना जाना चाहिए. लेकिन भारत में सेकुलरवादियों का एक दूसरा धड़ा कह रहा है कि इससे गलत परंपरा पड़ेगी. इसका विरोध होना चाहिए. इस तरह तो किसी भी देश में वहां का शासक या सत्तारूढ़ पार्टी किसी भी धार्मिक स्थल का स्वरूप बदल देगी. इसके लिए संयुक्त राष्ट्र एक नीति बनाए, जिसे दुनिया के सभी देश स्वीकार करें.

इतिहास को पलटने की कोशिश

धर्म दुनिया की हर सरकार के लिए आड़े वक्त में बहुत मदद करता है. किसी भी मुस्लिम बहुल आबादी वाले देशों में तुर्की एकमात्र देश है जिसने आधुनिकता को सबसे पहले अपनाया. लेकिन जब वहां के मौजूदा राष्ट्रपति रजब तैयब अर्दुआन ने घोषणा की कि इस्ताम्बूल में हागिया सोफिया म्यूजियम को फिर से मस्जिद में तब्दील किया जाएगा तो पूरी दुनिया का चौंकना स्वाभाविक है.

दरअसल, 532 ईस्वी में रोमन कैथोलिक राजा ने हागिया सोफिया का निर्माण चर्च के रूप में किया था. लेकिन 1453 ईस्वी में जब ओटोम्मन साम्राज्य के मेहमत (द्वितीय) ने जब इस इलाके को जीता तो यह चर्च मस्जिद में तब्दील कर दी गई. जब कमाल अतातुर्क यानी मुस्तफा कमाल पाशा ने 1923 में तुर्की की बागडोर संभाली तो तुर्की को आधुनिक और सेकुलर देश बनाने का संकल्प लिया. उन्होंने कई रुढ़िवादी चीजों पर प्रहार किया और पूरे तुर्की की शक्ल बदल डाली. मुस्तफा कमाल पाशा ने ही हागिया सोफिया को एक सेकुलर म्यूजियम में तब्दील कर दिया, यानी एक ऐसी इमारत जहां तुर्की की बहुलतावादी संस्कृति के दर्शन होंगे. इसका तुर्की में रहने वाली मामूली (माइनॉरिटी) ग्रीक ऑर्थोडॉक्स आबादी ने स्वागत भी किया था, क्योंकि इस चर्च के मूल कस्टोडियन वहां के बचे हुए ग्रीक लोग ही थे. लेकिन अब अर्दुआन ने उस इतिहास को पलट दिया है.

तुर्की में अर्दुआन के खिलाफ माहौल बन रहा है. अर्दुआन के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ जस्टिस एंड डेवलेपमेंट पार्टी (एकएपी) की पकड़ 2018 से लगातार कमजोर हो रही है. जिस तरह कट्टरता पूरी दुनिया में बढ़ी है, तुर्की भी उससे अछूता नहीं है. विकसित देश होने के बावजूद तुर्की में हालात वहां की सरकार के नियंत्रण से बाहर जा रहे हैं. विदेशी निवेशक तुर्की को छोड़कर जा रहे हैं. कोविड-19 की वजह से तुर्की की पूरी अर्थव्यवस्था को धक्का लगा है. जनवरी से अप्रैल 2020 तक तुर्की के विदेशी मुद्रा रिजर्व में 25 बिलियन डॉलर की कमी आई है. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पूरी तरह रुक गया है.

बेरोजगारी वहां भी बढ़ रही है. ऐसे में अर्दुआन ने उसी धर्म नामक मोहरे का इस्तेमाल किया जो अक्सर तमाम सत्ताधीश अपनी जनता का ध्यान बंटाने और उनकी धार्मिक भावनाओं को भुनाने के लिए करते हैं.

बाबरी मस्जिद और हागिया सोफिया म्यूजियम

तुर्की में चर्च से मस्जिद और मस्जिद से म्यूजियम और फिर मस्जिद विवाद भारत में बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बीच बहस ले आया है. लोग उस इतिहास को पढ़ रहे हैं और बता रहे हैं कि किन हालात में बाबरी मस्जिद को मुद्दा किन ताकतों ने बनाया. देश जब आजाद हुआ तो संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन बाबा साहब आंबेडकर ने लीक से हटकर एक चमत्कृत करने वाला संविधान पेश किया जिसकी सही मायने में पूरी आत्मा सेकुलर थी. जिसे भारत की बहुलतावादी संस्कृति का गहराई से अंदाजा था.

अयोध्या में सन् 1527 में बाबरी मस्जिद का निर्माण मुगल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बाकी ने कराया था. इस तरह जब देश आजाद हुआ तो बाबरी मस्जिद थी. देश ने बाबा साहब के लिखे सेकुलर संविधान को स्वीकार किया यानी ऐसा देश जो अपनी बहुलतावादी संस्कृति में विश्वास करता है और जहां हर धर्म के मानने वाले को आजादी हासिल है. 800 साल के शासन के बाद मुगल सल्तनत जब पूरी तरह खत्म हो गई और उसके बाद करीब दो सौ साल अंग्रेजों की यहां हुकूमत रही, कभी हिन्दू महासभा ने अयोध्या में राम जन्मस्थान का मुद्दा नहीं उठाया. किसी तरह की कोई शिकायत दर्ज नहीं हुई. लेकिन 22 दिसंबर 1949 को बाबरी मस्जिद में कुछ मूर्तियां रख दी गईं. इस घटनाक्रम के पीछे हिन्दू महासभा की भूमिका थी. 22 दिसंबर 1991 में न्यू यॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट में रामचंद्र दास परमहंस के हवाले से कहा गया है कि मैं ही वह शख्स था, जिसने बाबरी मस्जिद के अंदर मूर्तियां रखी थीं. हॉर्पर कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित कृष्णा झा और धीरेंद्र के. झा की प्रकाशित किताब अयोध्याः काली रात में भी इस घटना का जिक्र आया है.

बाद में बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर एक राजनीतिक मुद्दा बना. हिन्दू महासभा के बाद जनसंघ और उसके बाद आरएसएस-बीजेपी ने इस मुद्दे को गरमाए रखा. मामला कोर्ट में चलता रहा. इसी दौरान 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार इस चुनावी वादे के साथ आई कि वह हर तरह का उपाय करके अयोध्या में राम मंदिर का रास्ता प्रशस्त करेगी. 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के नेतृत्व में बेंच ने अयोध्या में विवादित जगह पर राम मंदिर बनाने का आदेश दे दिया. रंजन गोगोई अब भाजपा शासित असम से राज्यसभा पहुंच चुके हैं.

धार्मिक स्थलों के मामले में सरकार क्या कोई पक्ष है

भारत में जाने- माने शिक्षाविद और मुस्लिम बुद्धिजीवी फैजान मुस्तफा जैसे लोग तुर्की के उस म्यूजियम का स्वरूप मस्जिद में किए जाने के खिलाफ हैं. इसी तरह जेएनयू के पूर्व छात्र नेता जिनकी छवि भारत विरोधी बनाने की कोशिश हुई, उमर खालिद के विचार भी फैजान मुस्तफा के विचारों से मेल खाते हैं. उनका कहना है कि तुर्की सरकार की इस पहल का विरोध होना चाहिए. पत्रकार सीमा चिश्ती ने भी भारत से इसकी तुलना करते हुए इसे तुर्की की मौजूदा सरकार की अदूरदर्शिता बताई है.

बाबा साहब का सेकुलर संविधान लागू करने के बाद अगर उस समय की केंद्र सरकार ने यह तय कर दिया होता कि 1947 में भारत के सभी धार्मिक स्थलों की जो स्थिति है, वही बनी रहेगी. उसमें किसी भी तरह की तब्दीली नहीं की जाएगी तो यह देश बहुसंख्यक आबादी को धर्म की अफीम चटाए जाने से बच जाता. लेकिन धर्म की अफीम चटाने की शुरुआत तो 1949 से ही हो गई थी. पंडित नेहरू ने जब देश की बागडोर संभाली तो उन्होंने भी गुजरात के सोमनाथ सहित देश के कई मंदिरों का जीर्णोद्धार करने के लिए ट्रस्ट बनवाए. नेहरू ने ही सोमनाथ मंदिर को बनवाने की जिम्मेदारी अपने गृहमंत्री सरदार पटेल को सौंपी. इससे सेकुलर भारत में गलत संदेश गया.

बाबा साहब इन मुद्दों पर उस समय की सरकार से कभी सहमत नहीं थे. नेहरू के बाद उनके नाती राजीव गांधी ने भी एक गलती दोहराई. उन्होंने जनवरी 1986 में अयोध्या में विवादास्पद जगह का ताला खोलकर वहां पूजा शुरू करा दी. वह अपने ढंग से धर्म की अफीम चटाकर मामले को आगे बढ़ाना चाहते थे. लेकिन इस देश के बहुसंख्यकों को आरएसएस की मदद से भाजपा ने जो अफीम चटाई थी, वह कांग्रेसी अफीम से ज्यादा असरदार साबित हुई.

हालांकि बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला विवादों से परे नहीं है. अदालत का यह आदेश कि केंद्र सरकार एक ट्रस्ट बनाए, जिसकी देखरेख में अयोध्या में राम मंदिर बनेगा, कम विवादास्पद आदेश नहीं है. क्योंकि हमने जिस संविधान को आत्मसात किया है, वह यह आदेश नहीं देता है कि किसी धार्मिक स्थल या किसी धर्म विशेष को लेकर केंद्र सरकार की कोई भूमिका होगी. इस तरह न्यायपालिका और सरकार दोनों ही एक धर्म विशेष को आगे बढ़ाने या उसे महत्व देने की भूमिका निभा रहे हैं. …तो यही तुर्की में भी हो रहा है. वहां राष्ट्रपति अर्दुआन के फैसले पर वहां की सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी. लेकिन मुस्तफा कमाल पाशा के बनाए जिस संविधान को तुर्की ने आत्मसात किया था, म्यूजियम को मस्जिद में बदलने का फैसला उसकी भावना के विपरीत है. हागिया सोफिया म्यूजियम वैसे भी एक विश्व धरोहर (वर्ल्ड हैरिटेज साइट) है, इसलिए उसे किसी धार्मिक स्थल में बदला जाना गलत है.

तुर्की के राष्ट्रपति अर्दुआन इन दोनों घटनाओं से बहुत कुछ सीख सकते हैं. लेकिन असली सवाल वही है कि क्या भारत के बहुसंख्यक लोग भी इन घटनाओं से कुछ सीखने को तैयार हैं?

(यूसुफ किरमानी वरिष्ठ पत्रकार हैं और व्यक्त विचार निजी हैं) सौज- दप्रिंट

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