जबरा मारे औ रोऊन न देय

सत्यम श्रीवास्तव

यह बुंदेलखंड की ऐसी कहावत है जो किसी ‘बड़े आदमी’ द्वारा सताये गये किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपनी व्यथा सुनाते समय प्राय: उपयोग में लायी जाती है। दूसरे मौकों पर भी इसका इस्तेमाल होता है, लेकिन मुख्य बात है कि इस कहावत के प्रयोग के लिए एक सताने वाले की ज़रूरत है और एक सताये हुए की।

सताने वाला हमेशा बड़ा आदमी होता है जिसे ‘जबरा’ कहा गया है। जबरा कई वजहों से जबरा हो सकता है। उसके पास धन-दौलत हो सकती है, बाहुबल हो सकता है, उसके अख़्तियार में बड़ी तादाद में ज़मीनें हो सकती हैं और कुछ न भी हो तो वह जात से ही बड़ा हो सकता है। ये सब होते हुए उसके पास जो सबसे बड़ी चीज़ हो सकती है वो है उसके बड़े या जबरा होने की मान्यता।

यह मान्‍यता उसने अर्जित की है, पीढ़ियों से मिली है या आज के युग में उसकी शिक्षा-दीक्षा से संविधान के मार्फत उस तक पहुंची है। वह कई-कई बार कई-कई तरह से किसी कमजोर को सता सकता है। यहां कमजोर व्यक्ति वह होगा जिसके पास इनमें से कुछ नहीं होगा, लेकिन उसके पास भी उसका अपना ‘मान’ होगा। अफ़सोस, कि उसका मान खुद उसकी ही नज़रों में किसी जबरा से कम होगा। उसे यह बतलाया गया है, उसने भोगा भी है कि उसके आंसुओं की कीमत, उसकी तकलीफ़ों का मूल्य, उसकी खुशी का वज़न इन जबर लोगों से बहुत कम है।

सताने के लिए किसी बड़े बहाने की ज़रूरत नहीं भी हो सकती है। यह जबर के ऊपर है कि उसे कब ऐसा लग जाये कि उसकी मानना नहीं हुई है (या अव-मानना हुई है)। गाँव-गाड़ों में निकट इतिहास तक ऐसी घटनाएं आम थीं कि गढ़ी के बाहर बैठे किसी ठाकुर साहब के सामने कोई तथाकथित नीच जात का व्यक्ति साइकिल पर बैठ कर निकल गया और इससे उस गढ़ी और गढ़ी के बाहर बैठे दाऊ साब का अपमान या संवैधानिक शब्दावली में कहें तो अवमानना हो गयी। दाऊ साब ने इसके जवाब में उसे सता दिया। इस रिवाज़ को इतिहास की किताबों में सामंतवाद कहा जाता है।  

‘दाऊ साब’ इतिहास में ही नहीं, हमारे वर्तमान में भी जिंदा हैं। गढ़ी अब स्थानीय हवेलियां भर नहीं हैं बल्कि वह बड़े-बड़े दूसरे परिसरों में पसर गयी हैं। दाऊ साब अब ताज़ा हवा खाने के लिए गढ़ी के बाहर नहीं बैठते बल्कि संभव है कोई महंगी मोटरसाइकिल चलाते हुए पाए जाएं और चूंकि वो मोटरसाइकिल चला रहे हैं तो उनकी गढ़ी भी मोटरसाइकिल की सवारी कर रही हो। किसी को अकेला जानकर हमें यह नहीं समझना चाहिए कि उसकी पीठ, उसकी गद्दी, उसकी पदवी और उसकी गढ़ी उसके साथ नहीं है।

लोग यहीं गलती कर जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि उस व्यक्ति से हमेशा डरना चाहिए जो किसी हवेली या गढ़ी या पदवी या पीठ का मालिक है। उसकी ‘मानना’ ही उसका होना है। जैसे ही आपने उसे कम माना या बिलकुल नहीं माना या इरादतन या गैर-इरादतन आपने उसका मखौल उड़ा दिया, तो उसकी अवमानना हो जाएगी। अवमानना केवल सामंतवाद का गहना नहीं है बल्कि यह हमारे जनतंत्र में भी उसी रुतबे से बहुत से महामहिमों के गले में रत्नजड़ित हार सा सजा हुआ है। यह टोटका है। जो इस गहने को पहन लेता है वो मखौल से बच जाता है। किसी की निंदा से उनकी रक्षा करता है। किसी की हाय से बचाता है। इससे पहले कि कोई बुरी नज़र उनका कुछ बिगाड़ पाये यह रत्नजड़ित नागमणि मखौल उड़ाने वाले के ऊपर पलटवार कर देगी। उसकी हाज़िरी लगा देगी और चाहे तो मुर्गा भी बना देगी।

जबरा का आभूषण उसकी मानना (मान्यता) है या इसके उलट कहें तो जिसकी मानना है, वही जबरा भी है। तमाम माल असबाब के बावजूद यह जरूरी नहीं है कि उससे किसी मज़लूम को कोई फायदा ही हो बल्कि उसकी मानना करते-करते उसकी चिरौरी की आदत बनी रहती है और समाज में एक संतुलन भी बना रहता है। इससे जो जबर हैं वो जबर बने रहते हैं और जो मज़लूम है वो मज़लूम बने रहते हैं।

नयी शिक्षा नीति के तहत इतिहास की किताबों से सामंतवाद के अध्याय हटाकर उसे अवमानना नाम के नये अध्याय के रूप में शामिल किया जा सकता है। कुछ समय बाद नयी पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम बनने भी हैं, तो यह सही समय होगा और मौजूदा उदाहरणों से सीधा जुड़ा हुआ है जिससे विद्यार्थियों को इस विषय को व्यावहारिक स्तर पर समझने में भी मदद मिलेगी।

इससे समाज में भी अवमानना को लेकर सजगता बरकरार रहेगी और महामहिमों का इकबाल भी बुलंद बना रहेगा। वैसे भी, यही तो है जिसे बचाया जाना बहुत ज़रूरी है ताकि समाज में गद्दियों, गढ़ियों और पीठों की सत्ता बनी रहे।

इसका बेहतरीन और सफल प्रयोग उत्तर प्रदेश में किया गया। मुख्यमंत्री के ओहदे से ज़्यादा ऊंचा ओहदा किसी भी तौर पर मठाधीश के ओहदे का है। जनता और तमाम सत्ता प्रतिष्ठानों ने इस प्रयोग को बहुत सराहना प्रदान की है। राष्ट्रपति जैसी संस्था भी मठ के मठाधीश के सामने पहले झुकना ज़रूरी समझती है।

मुख्यमंत्री की आलोचना की जा सकती है, उसकी नीतियों और कृत्यों पर उसका पुतला जलाया जा सकता है, उसे काले झंडे भी दिखाये जा सकते हैं लेकिन एक मठाधीश के लिए ऐसे कोई प्रावधान समाजसम्मत नहीं हैं। धर्मसम्मत भी नहीं हैं। ऐसा किये जाने पर अदालतों से पहले समाज ही सज़ा सुनाने में सक्षम है। यह नया प्रयोग इतना सफल रहा है कि अब बड़े पैमाने पर ‘हिन्दू अदालतों’ के वजूद में आने की खबरें भी आने लगी हैं और इसे लेकर देश की अदालतों की तरफ से कोई संज्ञान न लिया जाना इन आशंकाओं को जन्म देता है कि ये बनती हुई हिन्दू अदालतें मौजूदा अदालतों के लिए मुफीद हैं। मौजूदा अदालतें मुतमईन भी हैं कि ये हिन्दू अदालतें आने वाले समय में माय लॉर्ड्स की मानना को बचाये रखने में महती भूमिका निभा पाएंगी। बहुत संभव है कि सर्वोच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की गद्दी पर अब उन्हें बैठाया जाये जो पहले से कहीं मठाधीश हों। इससे लोग स्वत: अवमानना जैसी हरकतों से बाज़ आ जाएंगे।

जबर को और जबर बनाने के लिए यह एक अच्छा प्रयोग साबित हो सकता है। इससे देश में कोई तो ऐसी जगह होगी जो आलोचना से परे रहेगी और लोगों को उस कानून के राज़, संविधान की सत्ता जैसे  70 साल से चले आ रहे ऐतिहासिक भ्रमों के बोझ व ‘’आज़ादी जैसे गैर-मामूली व्यसन की दासता’’ से लगे हाथ मुक्ति भी मिलेगी। फिर देश और समाज में समरसता और संतुलन का प्राचीन वैभव कायम हो सकेगा।

वैसे भी, जबर की मार के बाद रोने का कोई मतलब नहीं है। आपके रोने से जिल्ले इलाही की आलोचना की गंध आ सकती है। आपके आँसू की तासीर उनकी कैफियत के लिए ठीक नहीं। अब रोते हुए आप उनकी महिमा तो नहीं ही बढ़ाएंगे, तो एक नया विधान भी बनाया जा सकता है कि इस देश में जबर के सताये जाने पर कोई रोएगा नहीं। एक अध्यादेश लाकर तत्काल प्रभाव से इसे लागू किया जा सकता है। इसमें एक प्रावधान यह भी लाया जा सकता है कि अगर कोई रोता नहीं है, माफी भी नहीं मांगता है, बल्कि आँखों में आँखेँ डालने की गुस्ताखी करता है तो उसे अतिरिक्त दंड दिया जाये। यह दंड ऐसा हो कि आने वाले समय में जबर जिल्लेइलाही का इकबाल कमजोर किये जाने की कोई जुर्रत न हो। लोग डरना न छोड़ें। कानून के राज के स्थान पर डर का राज़ स्थापित करने के लिए रामराज्य की स्थापना के साथ-साथ इस तरह के अध्यादेश लाना भी एक अच्छी पहल हो सकती है। गोस्‍वामीजी लिख गये हैं, ‘’भय बिनु होय न प्रीति’’, इसलिए यह शास्‍त्रसम्‍मत भी है।

कुछ प्रावधान सच बोलने को लेकर भी किये जा सकते हैं। जैसे, आप एक खबर कहीं देखें कि किसी बड़े न्यायाधीश के नाती के मुंडन में देश के प्रमुख सत्ताधारी शामिल हों और आपको सच बोलने की लत लगी हुई है। तो आप संविधान के नशे में चूर होकर कह डालें कि ऐसा नहीं होना चाहिए, सत्ताधारी लोग ऐसे महामहिमों के समक्ष किसी आम नागरिक की तरह ही एक पार्टी हैं और मुंडन जैसे संस्कार जो समाज में श्रेष्ठता और हीनता के सनातनी विभाजन को बार-बार पुनर्स्थापित करने के लिए ही किये जाते हैं, उसमें एक समानता पर आधारित धर्मनिरपेक्ष देश के मुखिया और न्यायालय को इस तरह एकमेव नहीं होना चाहिए। अब इस सच से कई जबर लोगों को आंच लग सकती है। इसलिए ऐसे सच पर बन्दिश लगाया जाना भी ज़रूरी है। अध्यादेश के मुख्य प्रावधानों में इसे जोड़ा जा सकता है।

कल जब देश के एक जाने-माने वकील प्रशांत भूषण को सज़ा का ऐलान हो, तब उस सज़ा में माननीय सर्वोच्च अदालत को एक जोरदार आदेश भारत सरकार को भी देना चाहिए और इसे समयबद्ध किया जाना चाहिए कि अगले 2 माह 7 दिवस के अंदर भारत सरकार एक अध्यादेश लाये जिसमें जबर के मारे जाने पर रोने जैसी स्वाभाविक मानवीय कार्यवाही पर रोक हो। ऐसा सच जिसकी आंच जबर पर आती हो, वैसे सच के सामाजिक बर्ताव को निषिद्ध किया जाये और साथ ही हिन्दू अदालतों की तर्ज़ पर स्थानीय स्तर पर जो भी जबर है उसकी मानना की रक्षा के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की अदालतों के गठन को सरकार-समाज भागीदारी (एसएसपी) के मॉडल पर प्रोत्साहित किया जाये।

सौज- जनपथ

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