अनुच्छेद-370 हटे एक साल हुआ फिर भी कश्मीर में मिलिटेंसी कम होती क्यों नहीं दिखती है?

सुहैल ए शाह

अनुच्छेद-370 हटाते वक्त कहा गया था कि इससे जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का भी अंत हो जाएगा. क्या एक साल बाद उस दिशा में कोई प्रगति हो सकी है?

पिछले साल पांच अगस्त को अनुच्छेद-370, जो भारत के संविधान में जम्मू-कश्मीर को एक विशेष स्थिति प्रदान करता था, हटाने के कुछ दिन बाद देश के गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि मोदी सरकार का यह निर्णय कश्मीर घाटी से मिलिटेन्सी को बिलकुल खत्म कर देगा.

“370 हटाये जाने के बाद कश्मीर में आतंकवाद का अंत होगा और जम्मू-कश्मीर प्रगति के मार्ग पर चल पड़ेगा. मेरे जेहन में इस बात को लेकर रत्ती भर भी शक नहीं है,” शाह ने 11 अगस्त 2019 को एक बुक लॉन्च के मौके पर पत्रकारों से बात करते हुए कहा था.

इस बात को अब एक साल से ऊपर हो गया है और अगर कश्मीर में सिर्फ पिछले करीब एक महीने पर ही नज़र दौड़ाई जाये तो गृह मंत्री का मिलिटेन्सी खत्म हो जाने का दावा काफी दूर की बात लगता है.

“पिछले एक महीने में मिलिटेंट्स के द्वारा किए गए लगभग आठ हमलों में 10 लोगों की जानें गयीं हैं और एक गंभीर रूप से घायल है. मारे गए लोगों में छह भाजपा से जुड़े लोग थे, तीन पुलिसकर्मी और एक असैनिक,” हाल ही में बारामूला और शोपियां में हुए एनकाउंटरों से पहले एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने सत्याग्रह को बताया था. बारामूला में चार सुरक्षाकर्मी और तीन मिलिटेंट्स मारे गये वहीं शोपियां में हुई मुठभेड़ में एक मिलिटेंट खेत रहा.

पुलिस अधिकारी के मुताबिक श्रीनगर में, जो कि जम्मू-कश्मीर की राजधानी है, पुलिसकर्मियों पर हमला होना इस बात का संकेत है कि आगे आने वाले दिन और कठिन होने जा रहे हैं. “और यह बात कि हमला करने वाले दोनों लोग कश्मीरी युवक थे और परेशानी करने वाली है.”

ये पुलिस अधिकारी अपना नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर कहते हैं कि हाल-फिलहाल में तो कश्मीर में मिलिटेन्सी खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे हैं. “हमने कश्मीर में कई दफा यह देखा है कि मिलिटेंट्स लगभग खत्म हो गए, लेकिन यहां मिलिटेन्सी आज तक खत्म नहीं हुई है.”

कश्मीर की राजनीति पर नज़र रखने वाले लोग भी यही मानते हैं इसके बावजूद कि कश्मीर में यह साल मिलिटेन्सी के खिलाफ सुरक्षाबलों के लिए काफी कामयाबी का साल रहा है.

लेकिन जानकार क्या सोचते हैं इसे बताने से पहले आंकड़ों पर एक नज़र डालनाज़रूरी है.

इस साल मार्च में, कोरोना वायरस लॉकडाउन शुरू होते ही, कश्मीर में सुरक्षा बलों ने मिलिटेंट्स के खिलाफ अपने अभियान तेज़ कर दिये थे. सिर्फ जून तक कश्मीर घाटी में इस साल मारे जाने वाले मिलिटेंट्स की संख्या 135 से ऊपर पहुंच गई और इनमें से 80 प्रतिशत लोग कश्मीरी ही थे.

“सिर्फ दक्षिण कश्मीर के चार जिलों में, जो मिलिटेन्सी का गढ़ माने जाते हैं, 18 के करीब मुढ़भेड़ें हुई हैं, जिनमें 48 से ज़्यादा मिलिटेंट मारे जा चुके हैं,” आर्मी की इंटेलिजेंस विंग में काम कर रहे एक सूत्र ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.

मारे जाने वाले मिलिटेंट्स में कुछ चोटी के कमांडर भी शामिल थे. इनमें हिजबुल मुजाहिदीन का रियाज़ नाइकू, उसका साथी जुनैद सहराई (जो कश्मीर के वरिष्ठ अलगाववादी नेता अशरफ सहराई का बेटा था), अंसार घज़्वतुल हिन्द का बुरहान कोका, लश्कर-ए-तोईबा का बशीर कोका और जैश-ए-मुहम्मद का पाकिस्तानी मूल का मिलिटेंट रहमान भाई शामिल हैं.

इसके चलते जून के महीने में कश्मीर के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस, विजय कुमार ने यहां तक कह दिया था कि दक्षिण कश्मीर से मिलिटेंट्स का लगभग सफाया हो गया है और अब “सुरक्षा बल उत्तर कश्मीर में इनका सफाया करने पर फोकस करेंगे.” उनका कहना था कि कश्मीर घाटी में मिलिटेंटों की संख्या “जो पिछले साल दिसम्बर में 252 थी, अब 100 से 200 के बीच ही बची है.”

तब से अब तक करीब दो महीने बीत चुके हैं और अगर आर्मी के हमारे सूत्र की मानें तो इस समय सिर्फ दक्षिण कश्मीर में ही 120 के आसपास मिलिटेंट्स हैं “जिनमें से 80 स्थानीय और 30 के करीब पाकिस्तानी मूल के हैं.”

इस अफसर ने सत्याग्रह को बताया कि पिछले कई सालों में दक्षिण कश्मीर में मिलिटेंट्स का आंकड़ा 150 के आसपास रहा है. “उस हिसाब से देखा जाये तो इनकी संख्या में कोई खास कमी नहीं आई है, क्यूंकि कश्मीर में युवाओं का हथियार उठाने का सिलसिला अभी तक खत्म नहीं हुआ है” वे अफसर सत्याग्रह को बताते हैं.

और जानकारों की मानें तो यह सिलसिला अभी हाल फिलहाल में तो खत्म होता नहीं दिखाई दे रहा है.

“उसके दो कारण हैं,” कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार और “कश्मीर रेज एंड रीज़न” नाम की किताब के लेखक. गौहर गिलानी सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं. गिलानी इसका पहला कारण अनुच्छेद-370 हटाये जाने को बताते हैं.

“370 हटाये जाने का निर्णय एक विचारधारा के आधार पर लिया गया था सिर्फ एक पार्टी के राजनीतिक हितों को नज़र में रख के,” गिलानी कहते हैं, “इस एकतरफा फैसले ने कश्मीर में मुख्यधारा की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है और अगर आप इस समय मुख्यधारा के लोगों से बात करें तो उनके पास भी इसका कोई हल नज़र नहीं आता. वो लोग हमेशा अमन शांति की बातें करते आए हैं. लेकिन अब उनके पास भी कोई बहस नहीं बची है और यह कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा रखने वाले लोगों की जीत है.”

दूसरा, गिलानी कहते हैं, कि मिलिटेन्सी दो तरह की होती है – एक, जो हथियार उठा कर व्यक्त की जाये और दूसरी जो इंसान के दिमाग में होती है.

“और जिस तरह के हालात अभी कश्मीर में बन रहे हैं, अनुच्छेद-370 हटाये जाने के बाद, ऐसा लगता है कि कश्मीर के ज़्यादातर लोग दिमाग से मिलिटेंट हो गये हैं, बस फर्क यह है कि उनके हाथों में हथियार नहीं हैं,” गौहर गिलानी कहते हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि कश्मीर में मुख्यधारा का इतनी बेइज्ज़ती के साथ विलुप्त होना अपनी भूमिका ज़रूर निभाएगा.

इसके अतिरिक्त, गिलानी यह भी कहते हैं, कि पिछले एक साल में कश्मीर में हिंसा बढ़ी है और यह हाल-फिलहाल में आयीं “ह्यूमन राइट्स की रिपोर्ट्स” भी दर्शाती हैं. “इस बढ़ती हिंसा का भी अपना असर हो सकता है. अभी नहीं तो आने वाले सालों में.”

दिल्ली में स्थित, “इंस्टीट्यूट ऑफ कॉन्फ्ल्क्टि मैनेजमेंट” के कार्यकारी निदेशक, अजय साहनी, की सुनें तो कश्मीर में बात हाथ से इसलिए निकल गयी है, क्यूंकि जब मौका था तब कश्मीर में घट गयी मिलिटेन्सी का कोई राजनीतिक लाभ नहीं लिया गया.

“2012 में बिलकुल खत्म हो गयी थी मिलिटेन्सी कश्मीर में और तब ज़रूरत थी एक राजनीतिक पहल की, जो कहीं नज़र नहीं आई,” साहनी सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं, “और उस पर अब की सरकार ने ऐसा ध्रुवीकरण का माहौल बना दिया है कि आप जितने भी मिलिटेंट मारोगे उतने पैदा होते चले जाएंगे.”

आंकड़ों से भी अजय साहनी की बात की पुष्टि हो जाती है. क्यूंकि अगर एक तरफ 135 से ज़्यादा मिलिटेंट मारे गए हैं वहीं आंकड़ों के मुताबिक इस साल अभी तक 74 से ज़्यादा लोगों ने हथियार भी उठाए हैं.

अजय साहनी कहते हैं कि ऐसा माहौल बना दिया गया है कश्मीर में कि पाकिस्तान तो चलो जो करता है करता रहेगा, लेकिन एक घरेलू आधार बन गया है, युवाओं के लिए हिंसा के रास्ते पर चल पड़ने के लिए.

गिलानी की “मुख्यधारा” वाली बात को आगे बढ़ाते हुए अजय साहनी कहते हैं कि कश्मीर में इस समय ‘राजनीतिक आउटरीच’ की सारी पहलें खत्म कर दी गयी हैं.

“ज़मीन पर सिर्फ एक पार्टी (भाजपा) दिख रही है और उनका कोई भी आउटरीच नहीं है कश्मीर में,” साहनी कहते हैं और साथ ही यह भी जोडते हैं कि कश्मीर में जो काम सुरक्षा बलों का था वे उसे बखूबी अंजाम दे रहे हैं, लेकिन अब वहां ज़रूरत एक राजनीतिक पहल और लोगों का विश्वास जीतने की है.

लेकिन, साहनी बताते हैं, इसके बजाय कि लोगों का विश्वास जीता जाये भाजपा कश्मीर को अपने राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल कर रही है, “यह दिखा कर कि देखो भाई हम कश्मीर के मुसलमानों के साथ क्या-क्या कर रहे हैं.”

अजय साहनी के मुताबिक एक राजनीतिक पहल के बजाय, जम्मू के खिलाफ कश्मीर को खड़ा कर दिया जा रहा है और हिन्दू के खिलाफ मुसलमान को. “ऐसे माहौल में कौन यह उम्मीद भी कर सकता है कि कश्मीर में मिलिटेन्सी खत्म होगी.”

ये तो हो गयी जानकारों की बातें. इससे परे अगर ज़मीन पर हो रही कुछ चीजों पर भी एक नज़र डाली जाये तो आसानी से समझ में आ जाता है कि कश्मीर में निकट भविष्य में हालात सामान्य होने की उम्मीद कर पाना कितना मुश्किल है.

इन चीजों में सबसे पहला है मारे गए मिलिटेंट्स के परिजनों को उनके शव नदेना.

इस साल अप्रैल से पहले कश्मीर में मारे जाने वाले स्थानीय मिलिटेंट्स की शिनाख्त के बाद उनके परिजनों को बुलाया जाता था और शव उनके हवाले कर दिये जाते थे. इनके जनाज़ों में हजारों लोग आते थे और अगर सुरक्षा एजेंसियों की मानें तो यहीं सबसे ज़्यादा मिलिटेंट्स को रिक्रूट किया जाता था.

अप्रैल के महीने से यह सब बदल गया. अब पुलिस मारे गए मिलिटेंट्स के शव उनके परिजनों को न देकर अपने आप ही उनका अंतिम संस्कार कर देते हैं.

आईजीपी, विजय कुमार, ने हाल ही में कहा था कि अगर वे ये जनाजे होने देंगे तो कोरोना वाइरस फैलने का खतरा बहुत बढ़ जाएगा. “मेरी ज़िम्मेदारी बनती है कि कफन-दफन के दौरान लॉकडाउन की स्थिति बनाए रखूं. इसीलिए मिलिटेंट्स के शव हम खुद ले जाकर दफन कर देते हैं.”

अब अगर विजय कुमार और सुरक्षा एजेंसियों की बात ठीक भी है, तो भी खास तौर पर इन मिलिटेंट्स के परिजनों में आम तौर पर कश्मीर के लोगों में उनके साथ अन्याय किये जाने का भाव घर कर रहा है.

“क्यूंकि ‘युद्ध’ के दौरान ये कुछ ऐसी रेखाएं होती हैं जो दोनों तरफ से पार नहीं होनी चाहिए” गौहर गिलानी कहते हैं कि सरकार का शव न देने वाला यह अभ्यास कश्मीर को काफी महंगा पड़ने वाला है.

“शायद अभी नहीं, लेकिन हो सकता है पांच साल बाद मारे गए मिलिटेंट का छोटा भाई या फिर उसका कोई रिश्तेदार इस बात पर गौर करे कि उन्हें शव क्यूं नहीं दिया गया. चाहे इसके पीछे कोई भी कारण रहे हों उसको तो यह अन्याय ही लगेगा,” गिलानी कहते हैं.

गौहर गिलानी की बात विस्तार से समझ में आती है हाल ही में पुलवामा जिले के त्राल इलाक़े में हुई एक घटना से. त्राल में तीन साल पहले मारे गए एक मिलिटेंट के 48 वर्षीय पिता ने हाल ही में मिलिटेंट गुट, जैश-ए-मुहम्मद के लिए हथियार उठा लिए हैं. ऐसा कश्मीर में पहली बार हुआ है कि किसी मिलिटेंट का पिता मिलिटेंट बना हो.

“यही में भी कह रहा हूं… ज़रूरी नहीं है अभी. एक साल, दो साल, तीन साल बाद भी किसी मारे गए मिलिटेंट का कोई रिश्तेदार यह सोच कर हथियार उठा सकता है कि उसके साथ अन्याय किया गया था, शव न देकर,” गौहर गिलानी कहते हैं.

अजय साहनी कहते हैं कि यह एक और उकसावा है, “या यूं कह लें कि कश्मीर के मुसलमानों को नीचा दिखाने की एक और कोशिश. यह उन्हें इस बात का अहसास दिलाने की अनगिनत कोशिशों में से एक है जहां उन्हें कहा जाता है कि वे भारत के और नागरिकों से अलग हैं.”

और, साहनी कहते हैं, कि आप किसी इंसान को कितना भी दबा लें आखिर हश्र तो वही होता है जो हम अभी तक देखते आए हैं.

इन मारे गए मिलिटेंट्स के परिजन भविष्य में क्या कर सकते हैं, ठोस तौर पर कोई नहीं बता सकता लेकिन सरकार की परिजनों को शव न देने की कवायद के खिलाफ जैसे को तैसा वाली प्रतिक्रिया अभी भी देखने को मिल रही है.

तीन अगस्त की शाम को, अपने घर ईद मनाने गए एक सैनिक को मिलिटेंट्स ने दक्षिण कश्मीर के कुलगाम ज़िले से अगवा कर लिया. उनकी गाड़ी जला दी गयी थी. कुछ दिन बाद शोपियां जिले में, सैनिक शाकिर मंजूर के घर के पास एक सेब के बगीचे में उनके कपड़े मिले. कुछ दिन पहले मिलिटेंट्स द्वारा रिलीज़ की गयी एक ऑडियो क्लिप में यह कहा गया कि शाकिर को मार दिया गया है.

“कोरोना वाइरस के चलते उनका शव हम उनके परिजनों को नहीं दे पाएंगे. हम उनके परिवार का दुख समझते हैं क्यूंकि हुमारे भी शव हमारे परिवारों को नहीं दिये जा रहे हैं” ऑडियो क्लिप में कहा गया. हालांकि पुलिस अभी भी शाकिर की तलाश जारी रखे हुए है.

यह जैसे को तैसे का भाव कश्मीर को कहां लेकर जाएगा किसी को नहीं पता, लेकिन यह ज़रूर तय है कि मिलिटेंट्स के परिवारों को उनके शव न देना कश्मीर के युवाओं को और नाराज़ करने का काम ज़रूर कर रहा है. ऊपर से कश्मीर में सिर्फ यही नहीं है जो पहली बार हो रहा है. हाल ही में दक्षिण कश्मीर में मिलिटेंट्स के परिवारों के साथ कुछ ऐसा और हुआ जो पहले शायद ही कभी किया गया था.

“पहले कुछ भी होता था लेकिन कभी किसी मिलिटेंट की मां या बहन पर किसी ने न उंगली उठाई थी और न उन्हें परेशान किया था. भले ही कभी भाई या पिता को हिरासत में ले लिया गया हो लेकिन मां-बहनों के साथ कभी बुरा सुलूक नहीं किया गया था,” अजय साहनी सत्याग्रह को बताते हैं. लेकिन यह भी कुछ समय पहले बदल गया.

19 जून की रात को, मारे गए एक मिलिटेंट तौसीफ शेख के, कुलगाम स्थित घर पर सुरक्षा बलों ने छापा मारा और उनकी मां नसीमा बानो को गिरफ्तार कर लिया. उन पर यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम) के तहत केस दर्ज किया गया है और वे अभी भी हिरासत में ही हैं.

कुलगाम के एसएसपी, गुरिंदर पाल, सत्याग्रह को बताते हैं कि नसीमा स्थानीय युवकों को मिलिटेन्सी की तरफ जाने के लिए उकसा रही थीं. “हाल ही में तीन स्थानीय युवकों ने मिलिटेंट गुट जॉइन किया है और नसीमा को इस मामले में सीधे तौर पर शामिल पाया गया है” पाल कहते कि नसीमा को “पब्लिक इंटरेस्ट” में गिरफ्तार किया गया है.

फिर तीन अगस्त को कुलगाम जिले में ही मारे गए एक मिलिटेंट की बहन को तफ्तीश के लिए हिरासत में लिया गया था. “उनसे तफ्तीश करके उन्हें आधे घंटे में घर जाने दिया गया था,” कुलगाम के एक पुलिस अफसर सत्याग्रह को बताते हैं.

इन घटनाओं पर कश्मीर में खूब चर्चा हुई है और लोगों में इस बात को लेकर काफी गुस्सा भी है. यह एक और चीज़ है जो आने वाले समय में कश्मीर के युवाओं में अन्याय का भाव जगा सकती है.

गौहर गिलानी कहते हैं कि इसका एक और पहलू यह भी है कि लड़ाई में हमेशा एक ही पलड़ा भारी नहीं रहता है. “एक तो यह कि इन सब हरकतों से सरकार यहां की नयी पीड़ी को और दूर कर रही है और दूसरा यह कि जब आप परिवारों पर हाथ डालेंगे तो आप उनके लिए भी यह दरवाजा खोल देते हैं.”

गिलानी कहते हैं कहते हैं कि इसका नमूना हम पहले भी देख चुके हैं जब 2018 में दर्जनों पुलिसकर्मियों के परिजनों को मिलिटेंटों ने एक ही दिन में अगवा किया था. “पूरा प्रशासन हिल गया था तब, और ऐसा फिर हो सकता है.”

एक और वजह जो यह बताती है कि कश्मीर से मिलिटेन्सी फिलहाल कहीं नहींजा रही है.

सरकार के इतना कड़ा रुख अपनाने के बावजूद भी मिलिटेंट्स कश्मीर में आए दिन अपनी साख को बढ़ाने के लिए नए-नए तरीके इस्तेमाल कर रहे हैं. हाल ही में मिलिटेंट्स के कुछ नए गुट सामने आए हैं, जिनमें से एक “द रजिस्टेंस फ्रंट” है और दूसरे का नाम “पीपल्स एंटी-फासिस्ट मूवमेंट” है. पुलिस अधिकारियों की मानें तो ये नयी बोतलों में पुरानी शराब ही हैं.

“पाकिस्तान पर दबाव था अन्तराष्ट्रीय स्तर पर, कश्मीर में आतंकवाद चलाने के खिलाफ. इसीलिए ये नए नए गुट सामने आ रहे हैं. लेकिन हक़ीक़त यह है कि हो वही रहा है बस एक-दो नए नामों के साथ,” एक आला पुलिस अधिकारी ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.

लेकिन अगर इन गुटों की हरकतों पर बारीकी से नज़र डाली जाये तो इनका मक़सद सिर्फ पाकिस्तान पर दबाव कम करना नहीं है.

“पीपल्स एंटी-फासिस्ट मूवमेंट” का हाल ही में एक वीडियो आया था जिसमें, मुंह छुपाए हुए मिलिटेंट्स, ने एक पुलिस वाले को मारने की ज़िम्मेदारी कुबूल की थी. ऐसे वीडियो कश्मीर में आम हैं, लेकिन इस वीडियो को जो बात इसे खास बनाती है वह है इसमें लगातार सुनाई देता संगीत.

पहले जो भी वीडियो आते थे वे शुरू भी कुरान की तिलावत से होते थे और खत्म भी. इस वीडियो में भी कुरान शरीफ रखा हुआ दिखाई देता है लेकिन संगीत भी बजता रहता है. और वह भी कोई आम संगीत नहीं इटली का मशहूर फोक सॉन्ग “बेला चाओ”. यह गाना दूसरे विश्व युद्ध में इटली के लोग अपनी एंटी फासिस्ट लड़ाई के दौरान गाया करते थे और हाल ही में यह नेटफ्लिक्स की एक सीरीज मनी हाइस्ट की वजह से पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया है.

इसके अलावा ये नए मिलिटेंट्स गुट अब अक्सर अपनी प्रेस रिलीज़ उर्दू छोड़कर अंग्रेजी में देने लगे हैं.

कश्मीर की मिलिटेन्सी को बारीकी से जानने वाले दक्षिण कश्मीर में रह रहे एक वकील, मुहम्मद आसिफ, सत्याग्रह से बात करते हुए यह कहते हैं कि मिलिटेंट्स के परंपरागत तरीकों से थोड़ा परे हटने के दो कारण हो सकते हैं.

“एक यह कि अन्तराष्ट्रीय स्तर पर यह राय कायम की जाये कि कश्मीर के लोगों की लड़ाई धर्मनिरपेक्ष है. और दूसरा नयी पीढ़ी, जो शायद ज़्यादा धार्मिक नहीं हैं, उसको मिलिटेन्सी की तरफ आकर्षित किया जाये,” आसिफ कहते हैं कि इससे कितने युवाओं को मिलिटेन्सी की तरफ आकर्षित किया जा सकता है, यह देखने वाली बात होगी. “हालांकि कश्मीर में मिलिटेन्सी और धर्म को कभी अलग नहीं किया जा सकता है.”

कश्मीर घाटी में आगे क्या होगा यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन यह बात स्पष्ट है कि कश्मीर के हालात अनुच्छेद-370 हटाये जाने के एक साल बाद अगर यह मान लें कि बिगड़े नहीं हैं तो जरा से भी सुधरे भी नहीं लगते हैं. और ऐसा तब है जब यह दौर कोरोना महामारी का है. ऐसे में सिर्फ दुआ ही की जा सकती है कि कश्मीर का आने वाला कल आज से बेहतर और अमन और शांति से भरा होगा.

सौज- सत्याग्रह

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