सक्रिय राजनीति में भी देव आनंद ने खुद को अपने समकालीन अभिनेताओं से कहीं आगे साबित किया था.

पवन वर्मा

आपातकाल के बाद देव आनंद ने हिंदी फिल्म जगत के कई दिग्गजों के साथ मिलकर एक राजनीतिक पार्टी का गठन किया था.यह 1979 की बात है जब देव आनंद ने संजीव कुमार, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा और हेमा मालिनी सहित फिल्म उद्योग के कुछ और दिग्गज लोगों को साथ लेकर एक राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर दी. नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया (एनपीआई) नाम से बनी इस पार्टी के पहले अध्यक्ष खुद देव आनंद चुने गए.

हिंदी सिनेमा के पहले सदाबहार अभिनेता देव आनंद के बारे में कहा जाता है कि उनकी फिल्में अपने दौर से आगे की हुआ करती थीं. इस मामले में देव साहब की यह तारीफ यूं ही नहीं होती. मसलन हम उनकी एक शुरुआती फिल्म ‘बाजी’ (1951) की ही बात करें तो यह शहरी पृष्ठभूमि पर बनी क्राइम थ्रिलर थी जिसके बाद इस थीम पर हमारे यहां कई फिल्में बनी. 1965 में आई ‘गाइड’ ने उस दौर में एक विवाहित महिला के दूसरे पुरुष के साथ प्रेम संबंध जैसे विषय को बेहद खूबसूरती से परदे पर उतारा था. 1971 में रिलीज हुई हरे रामा हरे कृष्णा को कौन भूल सकता है जिसने पहली बार भारतीय दर्शकों को इतनी संजीदगी से हिप्पी कल्चर दिखाया था.

लेकिन यह बात सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है, अन्य क्षेत्रों में भी देव आनंद अपने समकालीनों से कहीं आगे दिखाई देते हैं और इनमें से एक क्षेत्र राजनीति भी है. वे हिंदी फिल्म उद्योग के शायद अकेले अभिनेता रहे होंगे जिसने राजनीतिक पार्टी का गठन किया था और बाकायदा इससे कई फिल्मी हस्तियों को जोड़ा था.

भारत में शीर्ष राजनेताओं के फिल्म कलाकारों से संबंध कभी अजूबा नहीं रहे. इसकी सबसे बड़ी मिसाल पंडित नेहरू के राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद के साथ मित्रवत संबंधों में देखी जा सकती है. लेकिन उस दौर में हिंदी फिल्म जगत का कोई भी जाना-माना कलाकार सक्रिय राजनीति में भागीदारी नहीं करता था. न ही राजनेता अपनी जनसभाओं के लिए ही फिल्म कलाकारों को बुलाते थे. इसके विपरीत दक्षिण भारत में एमजी रामचंद्रन और एनटी रामाराव जैसे दिग्गज कलाकार थे जो न सिर्फ सक्रिय राजनीति में आए बल्कि मुख्यमंत्री भी बने.

अपनी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ  में देव आनंद बताते हैं कि आपातकाल के दौरान वे हर दम संजय गांधी के करीबियों के निशाने पर रहे

हिंदी फिल्म कलाकारों के राजनीति से जुड़ाव की शुरुआत अस्सी के दशक से मानी जाती है. इसकी पृष्ठभूमि में 1975 के आपातकाल की काफी महत्वपूर्ण भूमिका रही. उस दौरान फिल्म उद्योग के एक तबके ने इसका जबर्दस्त विरोध किया था. देव आनंद और गायक-अभिनेता किशोर कुमार इन फिल्म कलाकारों में सबसे आगे थे. आपातकाल के विरोध में उन्होंने बाकायदा जनता पार्टी का समर्थन भी किया. 1977 में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो ये कलाकार उसके साथ थे. हालांकि इस गठबंधन में जल्द ही मतभेद पैदा हो गए. दो साल बाद ही यह सरकार गिर गई. कहा जाता है कि इस घटनाक्रम से देव आनंद और उनके साथियों का तत्कालीन राजनीतिक दलों से मोहभंग हो गया. तब इन लोगों ने तय किया कि वे अब किसी राजनीतिक पार्टी का समर्थन नहीं करेंगे और खुद अपनी एक पार्टी बनाएंगे.

हिंदी फिल्म उद्योग में यह एक नई तरह की हलचल थी और जाहिर है कि इसके अगुवा देव आनंद ही थे. अपनी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ में देव आनंद ने आपातकाल और नई राजनीतिक पार्टी के गठन पर काफी विस्तार से लिखा है. इसमें देव साब बताते हैं कि आपातकाल के दौरान वे हर दम संजय गांधी के करीबियों के निशाने पर रहे.

यह 1979 की बात है जब देव आनंद ने संजीव कुमार, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा और हेमा मालिनी सहित फिल्म उद्योग के कुछ और दिग्गज लोगों को साथ लेकर एक राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर दी. नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया (एनपीआई) नाम से बनी इस पार्टी के पहले अध्यक्ष खुद देव आनंद चुने गए. अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं, ‘मैं पार्टी का अध्यक्ष चुना गया था और मैंने वह चुनौती स्वीकार कर ली थी. इस पार्टी का मकसद था लोकसभा चुनाव में उन उम्मीदवारों का समर्थन करना जो अपने-अपने क्षेत्र में सबसे काबिल हैं.’

1979 जब इस राजनीतिक पार्टी की पहली रैली मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई तो आम लोगों सहित मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी यहां जुटी भीड़ को देखकर हैरान थीं

उसी साल जब इस राजनीतिक पार्टी की पहली रैली मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई तो आम लोगों सहित मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी यहां जुटी भीड़ को देखकर हैरान थीं. इस रैली में देव आनंद के साथ संजीव कुमार सहित प्रसिद्ध फिल्म निर्माता एफसी मेहरा और जीपी सिप्पी (शोले के निर्माता) शामिल थे. यहां इन लोगों के भाषण भी हुए. यह पहला मौका था जब हिंदी फिल्म उद्योग से जुड़ी हस्तियां राजनीति की बात कर रही थीं और उनको सुनने के लिए भारी भीड़ जमा थी.

कहा जाता है कि इस रैली ने कांग्रेस और जनता दल को आशंकित कर दिया था. वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी एक आलेख में बताते हैं इन पार्टियों ने तमाम फिल्मी कलाकारों को चुनावों से दूर रहने के लिए चेतावनी देनी शुरू कर दी थी. दूसरी तरफ एनपीआई में किसी को भी राजनीति का पूर्व अनुभव नहीं था. शायद यही सब वजह रहीं कि जब 1980 में लोकसभा चुनाव घोषित हुए तो पार्टी का कोई जानामाना चेहरा चुनाव मैदान में नहीं उतरा.

और फिर जल्दी ही फिल्मकारों ने इस पार्टी से खुद को दूर कर लिया. आखिरकार कुछ ही महीनों बाद खुद देव आनंद ने एनपीआई को भंग कर दिया था. 2008 के जयपुर साहित्य महोत्सव में देव आनंद शामिल हुए थे. तब इस मामले पर उनका कहना था कि राजनीति नरम दिल कलाकारों का काम नहीं हैं और उन्होंने अच्छा किया जो पार्टी भंग कर दी क्योंकि उन्हें चुनाव लड़ने के लिए काबिल उम्मीदवार ही नहीं मिल रहे थे.

सौज-सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/103588/dev-anand-film-star-political-party-emergency

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