वह कौन सी वजह थी जिसने दुर्गा पूजा को बंगाल का सबसे बड़ा पर्व बना दिया?

चंदन शर्मा

बंगाल में दुर्गा पूजा की इस लोकप्रियता के तार छह सदी पीछे जाते हैं और भारतीय दर्शन में ‘भक्ति’ की संकल्पना देने वाले कृतिबास ओझा से जुड़ते हैं राम को दुर्गा की आराधना करते हुए दिखाकर वे दोनों संप्रदायों के बीच एकता और संतुलन कायम करने में सफल रहे. इस प्रसंग से राम का नायकत्व तो स्थापित हुआ ही, शक्ति यानी नारी की अहमियत भी बरकरार रही.कृत्तिबासी रामायण में तमाम चुनौतियों के बीच सुंदर सामंजस्य होने के चलते यह धीरे-धीरे पूरे बंगाल में मशहूर होती चली गई.

शारदीय नवरात्र के मौके पर देश में दुर्गा पूजा का त्योहार हर साल पूरे धूमधाम से मनाया जाता है. इसमें हर इलाके की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएं जुड़ी होती हैं. बात चाहे मैसुरु के जंबू सावरी दशहरे की हो या कुल्लू-मनाली के दशहरे की या गुजरात के गरबा नृत्य के साथ मनाए जाने वाले उत्सव की, देश के हर इलाके में इस त्योहार का अलग ही रंग है.

पर पश्चिम बंगाल का दशहरा इन सबसे अलग है. 10 दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के दौरान वहां का पूरा माहौल शक्ति की देवी दुर्गा के रंग का हो जाता है. बंगाली हिंदुओं के लिए दुर्गा और काली की आराधना से बड़ा कोई उत्सव नहीं है. वे देश-विदेश जहां कहीं भी रहें, इस पर्व को खास बनाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते.

ऐसे में एक स्वाभाविक सी जिज्ञासा उठती है. आखिर वह कौन सी घटना या परंपरा रही जिसके चलते बंगाल में शक्ति पूजा ने सभी त्योहारों में सबसे अहम स्थान हासिल कर लिया.

कृत्तिबास ओझा का योगदान सबसे अहम

आधुनिक हिंदी साहित्य के ओजस्वी कवियों में से एक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने आज से करीब 80 साल पहले एक लंबी कविता लिखी थी-’राम की शक्तिपूजा.’ इसकी विशेषता यह है कि कई आलोचक इसे न केवल निराला जी बल्कि हिंदी साहित्य की भी सबसे अच्छी कविता मानते हैं. इस कविता का कथानक यह है कि इसमें राम और रावण के युद्ध का वर्णन किया गया है. राम ने इसमें रावण को हराने के लिए शक्ति की देवी ‘दुर्गा’ की आराधना की है.

कहा जाता है कि निराला जी ने इस कविता का कथानक पंद्रहवीं सदी के सुप्रसिद्ध बांग्ला भक्तकवि कृत्तिबास ओझा के महाकाव्य ‘श्री राम पांचाली’ से लिया था. पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में रची गई यह रचना वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गई ‘रामायण’ का बांग्ला संस्करण है. इसे कृत्तिबासी रामायण’ भी कहा जाता है. इसकी खासियत है कि यह संस्कृत से इतर किसी भी अन्य उत्तर भारतीय भाषा में लिखा गया पहला रामायण है. यह तुलसीदास के रामचरित मानस के रचे जाने से भी डेढ़ सदी पहले की बात है.

कृत्तिबासी रामायण की कई मौलिक कल्पनाओं में रावण को हराने के लिए राम द्वारा शक्ति की पूजा करना भी है. आलोचकों के अनुसार इस प्रसंग पर बंगाल की नारी-पूजा की परंपरा का साफ असर है. कृत्तिबास ओझा ने इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए अपने महाकाव्य में शक्ति पूजा का विस्तार से वर्णन किया. महाकवि निराला ने अपना काफी समय बंगाल में गुजारा था. आलोचकों के अनुसार इसलिए उन्हें भी इस प्रसंग ने मोहित किया और अंतत: उन्होंने इसे अपनी कविता का कथानक बनाने का फैसला लिया.

इस महाकाव्य में निराला ने इसका वर्णन किया है कि किस तरह नैतिक शक्तियों के स्वामी भगवान राम, आसुरी शक्तियों के ​मालिक रावण से लंका की लड़ाई में हार रहे हैं. अपनी इस दशा से विचलित राम तब कहते हैं, ‘हाय! उद्धार प्रिया (सीता) का हो न सका.’ इसी समय उनके अनुभवी सलाहकार जांबवंत सुझाते हैं कि वे यह लड़ाई इसलिए हार रहे हैं कि उनके साथ केवल नैतिक बल है. वे आगे कहते हैं कि कोई भी लड़ाई केवल नैतिक बल से नहीं जीती जा सकती, उसके लिए तो ‘मौलिक शक्ति’ का साथ जरूरी है. जांबवंत कहते हैं, ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन! छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो, रघुनंदन!!’ जांबवंत की इन बातों का आशय दुर्गा की नौ दिनों तक कठोर साधना से था. राम ने अंतत: ऐसा करके ​शक्ति की देवी को प्रसन्न कर सिद्धि प्राप्त की और रावण को हराने में कामयाब हुए.

साहित्य में सबसे पहले भक्ति की संकल्पना कृत्तिबास ओझा ने ही दी

कृत्तिबास ओझा का जन्म 1381 में बंगाल में हुआ था. वे केवल कवि ही नहीं थे बल्कि दार्शनिक भी थे. काव्य से इतर दर्शन में उनका योगदान इसलिए अहम माना जाता है कि ‘भक्ति’ की संकल्पना सबसे पहले उन्होंने ही दी थी. मध्यकाल में उनके बाद महाराष्ट्र से पंजाब तक और राजस्थान से असम तक कई भक्तकवि हुए. सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, रैदास, दादू, नानक, शंकरदेव, तुकाराम, मीराबाई जैसे इन सभी संतों ने कहीं न कहीं भक्ति की इनकी मान्यता को ही स्वीकार किया. ​प्रसिद्ध आलोचक रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इन कवियों ने अपनी रचना और भक्ति से विदेशी आंक्रांताओं के आक्रमण से हताश जनता को बहुत बड़ा संबल दिया. उनके अनुसार इनका मूल उद्देश्य कविता करना नहीं बल्कि अपने इष्टदेव की आराधना करना था. यानी ये पहले भक्त और फिर कवि थे.

कृत्तिबास ओझा ने आचार्य शंकर के अद्वैत वेदांत की मान्यता कि ‘सब ब्रह्म हैं’, से अलग राय प्रस्तुत की. उनकी भक्ति की संकल्पना के अनुसार भगवान और भक्त दोनों बराबर नहीं हो सकते, इनमें हमेशा अंतर रहता है. उनका मानना था कि भक्त यदि पूजा, साधना, जप-तप आदि उपायों को करे तो ही उसे भगवान का साथ मिल सकता है. ओझा का मानना था कि अद्वैत वेदांत के ‘सब बराबर हैं’ कह देने से लोग निठल्ले हो गए हैं. उनके अनुसार, इससे समाज का कल्याण नहीं हो सकता, उन्हें साधना करनी ही होगी.

जानकारों के अनुसार इस दर्शन का फायदा यह हुआ कि तमाम कवियों ने अगली कुछ सदियों में अपनी रचनाओं में मध्यकाल की हताश करने वाली सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को विस्तार से उकेरा. इन्होंने इसके लिए प्राचीन भारत की गौरवपूर्ण कथाओं का सहारा लिया. इन कथाओं की तत्कालीन समय के अनुसार व्याख्या हुई और उसे आमलोगों की भाषा में प्रस्तुत किया गया. यही नहीं इसमें समस्याओं का समाधान भी सुझाया गया. आलोचकों के अनुसार भक्तकवियों ने भले ही भक्ति को मूल समाधान बताया, लेकिन इसके मतलब कहीं गहरे थे. वे समझते थे कि देश की दुर्दशा का कारण मानवीय गुणों का ह्रास होना है, इसलिए सबसे पहले लोगों में मानवता का विकास करना जरूरी है. भक्ति और भगवान का सहारा लेकर इन भ​क्तकवियों ने लोगों में अनुशासन, मेहनत, आत्मविश्वास, दया, प्रेम जैसे गुणों का विकास करने की कोशिश की.

कृत्तिबासी रामायण ने ही बंगाल में दशहरा लोकप्रिय बनाया

वा​ल्मीकि रामायण की बांग्ला भाषा में पुनर्प्रस्तुति​ इसी सोच का नतीजा थी. आलोचकों के अनुसार राम की कहानी के जरिए कृत्तिबास ओझा समाज में न्याय और अन्याय के द्वंद्व को दिखाना चाहते थे. उनका मकसद था कि लोग समझें कि जीत अंतत: सत्य, न्याय और प्रेम की होती है. वे बताना चाहते थे कि रावण और उसके जैसे तमाम आतताइयों को एक दिन हारना ही होता है. आलोचकों का मानना है कि उनकी इस रचना का मकसद केवल भक्ति करना नहीं, बल्कि लोगों में इतिहास और मानव सभ्यता के प्रति समझ विकसित करना भी था. उनके अनुसार इस प्रसंग का आशय यही था कि केवल नैतिक बल से अन्याय को हराया नहीं जा सकता. उसकी हार तो तभी होती है जब न्यायी और सत्य के साथ खड़ा इंसान ‘मौलिक’ रास्ते का भी अनुसरण करे.

बंगाल में नारी-पूजा की परंपरा प्राचीन समय से प्रचलित है. इसलिए वहां शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का काफी असर है. दूसरी ओर वहां वैष्णव संत भी हुए हैं, जो राम और कृष्ण की आराधना में यकीन रखते हैं. पहले इन दोनों संप्रदायों में अक्सर संघर्ष होता था. कृत्तिबास ओझा ने अपनी रचना के जरिए शाक्तों और वैष्णवों में एकता कायम करने की काफी कोशिश की. आलोचकों के अनुसार राम को दुर्गा की आराधना करते हुए दिखाकर वे दोनों संप्रदायों के बीच एकता और संतुलन कायम करने में सफल रहे. इस प्रसंग से राम का नायकत्व तो स्थापित हुआ ही, शक्ति यानी नारी की अहमियत भी बरकरार रही.

कृत्तिबासी रामायण में तमाम चुनौतियों के बीच सुंदर सामंजस्य होने के चलते यह धीरे-धीरे पूरे बंगाल में मशहूर होती चली गई. इसके साथ दुर्गा भी वहां के जनमानस में लोकप्रिय होती गईं. यही नहीं पिछली पांच शताब्दियों में दुर्गा पूजा और दशहरा न केवल बंगाल बल्कि देश के दूसरे इलाकों का भी महत्वपूर्ण त्योहार बन चुका है. इस पर बंगाल का असर यदि देखना हो तो दुर्गा की प्रतिमाओं की बनावट को देखा जा सकता है जिन पर बंगाली मूर्तिकला का साफ असर है.

सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/109955/how-durga-puja-became-most-celebrated-festival-of-bengal

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