प्रोफ़ेसर यशपाल हर बच्चे को समझ का चस्का लगा देना चाहते थे – अपूर्वानंद

प्रोफेसर यशपाल मानते थे कि प्रश्न करना मनुष्य होने का प्रमाण था इसलिए वे शिक्षकों से कहा करते थे कि बच्चों का पूछा कोई भी प्रश्न पाठ्यक्रम से बाहर नहीं है यशपाल कहा करते थे कि हमारा मकसद बच्चों में समझ का चस्का पैदा करने का होना चाहिए. एक बार उन्हें यह चस्का लग गया, फिर तो हर मुश्किल सफ़र उनके लिए मजेदार हो जाएगा
24 जुलाई 2017 को जब प्रोफेसर यशपाल को आख़िरी बार देखा तो लगा कि जीवन से विदा लेते समय शायद उनको कोई पछतावा नहीं रहा होगा. इस शरीर ने और उसके हरेक अंग ने वह हर काम पूरी तरह कर लिया था जिसकी उससे उम्मीद थी. आंखों ने देखा और अंतरिक्ष की गहराइयों में झांककर कर दूर-दूर तक देखा, पैरों ने अनंत दूरियां तय कीं, हाथों ने ऐसी चीज़ें बनाईं जिन्हें बनाना मुश्किल था, उस वक्त जब हाथों और दिमाग के अलावा कल्पना को साकार करने के लिए बहुत कम बाहरी मदद मौजूद थी. दिमाग ने सोचा और खूब सोचा और कल्पना की छलांगें लगाईं. किसी भी अंग, किसी भी इंद्रिय को इसका अफ़सोस न होगा कि उससे कुछ काम लेना बाकी रह गया है, अभी और काश कि कुछ दिन और मिल जाते! लैटिन अमरीकी कवि हिमनेज़ की आदर्श मृत्यु का यह ख़याल उन्हें सामने निश्चल देखते हुए आता ही रहा.

प्रोफेसर यशपाल ने खूब सोचा और खूब काम किया और खूब कल्पनाएं कीं. वे उस दौर के वैज्ञानिक थे जब आप एक ही साथ वैज्ञानिक और कलाकार हो सकते थे. वैसे भी यशपाल का मानना था कि जैसे इंसान एक होता है, ज्ञान भी एक है. एक कलाकार को भाषा की संवेदना अगर नहीं तो उसके आविष्कारक होने में शक है. इसीलिए वे बार-बार यह कहते थे कि आईआईटी हो या और वैज्ञानिक शिक्षण संस्थान, उसमें समाज विज्ञान, साहित्य और कला का होना और बराबरी से होना ज़रूरी है. यह बात उलट कर भी कही जा सकती है.

यशपाल का काम कॉस्मिक किरणों पर था. उनके सोचने का तरीका और ज़िंदगी को मापने का पैमाना भी एक तरह से कॉस्मिक ही था. लेकिन इस कारण वे कठोर न थे, उदार और क्षमाशील ही थे. उसके और बेहतर होते जाने और इंसान बनते जाने में उनका गहरा यकीन था. दुनिया के पास भी बेहतर होते जाने के अलावा और कोई विकल्प न था.

कई बार यह सोचता रहा था कि वे ऐसे दुर्द्धर्ष आशावादी कैसे और क्योंकर हैं. उनसे बात करते हुए अहसास हुआ कि वे संतान ही थे ऐसे वक्त की जब आशा ही आशा थी और मनुष्यता में विश्वास उसकी क्षुद्रता के यथार्थ पर कहीं भारी था. उन्हें देखते हुए मुझे अक्सर भीष्म साहनी याद आ जाते थे जिनके मिजाज़ में उतना ही इत्मीनान था और जिन्होंने अपने कथा साहित्य में मनुष्यता की बुनियादी अच्छाई में इसी तरह का विश्वास गढ़ा. कोई छोटापन कर सकता है, यह सोचकर ही उन्हें तकलीफ होती थी, जैसे दूसरे की क्षुद्रता से वे भी कुछ कमतर हो जाते हों.

एक घटना याद आती है. उन्होंने 2004 की स्कूली राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के निर्माण का नेतृत्व किया था और उस पर बहस चल रही थी. एक वामपंथी संस्था ने उन्हें यह कहकर बुलाया कि पाठ्यचर्या के दस्तावेज पर चर्चा होनी है. मुझे अंदाज था कि वहां उन पर हमले के अलावा कुछ न होगा. फिर भी वे गए. वहां उन पर जिस तरह आक्रमण किया गया, उससे वे अचंभित रह गए. लेकिन इसे उन्होंने वामपंथियों की क्षणिक जहालत मानकर झटक दिया और इस वजह से उनके बारे में आख़िरी राय कायम न की.

हिंसा भी उनके हिसाब से एक तरह की इंसानी जहालत का ही नतीजा थी. मैं उनसे मजाक किया करता था कि मूर्खता को इसी वजह से गंभीरता से लिया जाना चाहिए क्योंकि उसके नतीजे घातक हो सकते हैं. लेकिन शायद उन्होंने अपने लंबे जीवन में मूर्खता के अनेक प्रकार देखे थे और उसे झेलने और उसके बावजूद जीने का एक सहारा हास्य बोध था.

हास्य बोध इसी कारण दोनों में बहुत तीव्र था. आप यह कह सकते हैं कि यशपाल हों या भीष्म साहनी, ये गांधी-नेहरू युग की संतान थे. नेहरू में एक तरह का अधैर्य, मूर्खता और फूहड़पन को लेकर था लेकिन गांधी उसे भी मनुष्यता का हिस्सा ही मानते थे. बिना यह माने उससे संघर्ष करना संभव न था. गांधी के लिए इस संघर्ष में एक बड़ा सहारा हास्य था. उन्होंने कहा भी था कि अगर उनमें हास्य बोध न होता तो उनका जीना कठिन था.

जीवन के प्रति आशा, इंसान की बुनियादी अच्छाई के आखिरकार उभर आने का विश्वास उन्हें लगातार सक्रिय रखता था. संभवतः इस वजह से बालिगों से अधिक वे बच्चों से बात करना पसंद करते थे. नीति निर्माण संबंधी विचार-विमर्श के मौके पर भी वे आयोजकों से आग्रह करते थे कि क्या कुछेक घंटे उस इलाके के बच्चों के साथ बातचीत के लिए निकाले जा सकते हैं.

यशपाल के कद के किसी वैज्ञानिक या लेखक अथवा कलाकार ने बच्चों के लिए अपनी ज़िंदगी का इतना बड़ा हिस्सा शायद ही निकाला हो. वे उनसे सवाल आमंत्रित करते थे. और फिर, उन्हीं के मुताबिक़ उन पर सोचने की कोशिश करते थे. सवाल के एक ठीक-ठीक उत्तर से अधिक महत्त्वपूर्ण उस पर सोचने की यह कोशिश और उसकी प्रक्रिया है.

प्रश्न करना उनके लिए मनुष्य होने का प्रमाण था. इस कारण अपने शिक्षा संबंधी दस्तावेजों में उन्होंने बच्चों के सवाल करने के अधिकार की हिफ़ाजत की गारंटी करने की वकालत की. कक्षा में और बाहर उन्हें सवाल करने दो. शिक्षकों से उन्होंने कहा, कोई भी प्रश्न पाठ्यक्रम के बाहर नहीं है.

भारत जैसे समाज में, जहां सामाजिक और धार्मिक विधानों पर प्रश्न करना पाप है, सवाल करने को बुनियादी इंसानी हक मानना क्रांतिकारी ख्याल है. सिर्फ भारत ही क्यों बाहर भी हमने ऐसी सत्ताओं के इतिहास देखे हैं जो सवाल करनेवाले को शक के दायरे में डाल देती हैं.

यशपाल भारतीय राष्ट्र के उषाकाल के तरुण थे. इसलिए इस राष्ट्र और उसकी मानवीय संभावनाओं को लेकर वे कभी निराश नहीं हुए. लेकिन उन्होंने यह देखा था कि यह राष्ट्र किस इंसानी जद्दोजहद से बना और उसे किस इंसानी संकीर्णता से लड़ना पड़ा.

इसी कारण वे राष्ट्र के उस विचार से सहमत नहीं हो सकते थे जो इंसान को आज़ाद करने और उसे एक बड़ी मनुष्यता का सदस्य बनाने की जगह संकीर्ण दायरे में कैद करता हो और सिर्फ एक के प्रति ही वफादार मानता हो. इंसान की खुदमुख्तारी और उसकी स्वायत्तता उनके लिए बड़ा मूल्य थी. उस पर किसी तरह की पाबंदी से उन्हें उलझन होती थी.

यशपाल को ऐसा लगता था कि हिंसा और संकीर्णता कुदरत के तौर-तरीकों को न समझने की वजह से होती हैं. इसीलिए समझ उनका प्रिय शब्द था. प्रत्येक शैक्षिक प्रयास इस समझ को बढ़ाने के लिए होना चाहिए. और समझने की शक्ति हर किसी में है.

यशपाल कहा करते थे कि हमारा मकसद बच्चों में समझ का चस्का पैदा करने का होना चाहिए. एक बार उन्हें यह चस्का लग गया, फिर तो हर मुश्किल सफ़र उनके लिए मजेदार हो जाएगा.

अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/108662/pratyashit-professor-yash-pal-life-and-work

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