भारत को काम करने वाला सामाजिक लोकतंत्र बनाने के लिए राज्य पूंजीवाद को खत्म करना होगा

टी एन नायनन

अगर भारत को एक गतिशील सामाजिक लोकतंत्र बनना है, तो उसे अनुशासित टैक्स व्यवस्था तैयार करके कॉर्पोरेट की ताकत पर लगाम लगाते हुए सरकारी पूंजीवाद की राह पकड़ने से बचना होगा.

भारत में कौन-सी व्यवस्था चल रही है? सामाजिक लोकतंत्र की या लोकतांत्रिक समाजवाद की? आपको यह शब्दों का खेल लग सकता है, लेकिन दोनों बिलकुल दो बिलकुल अलग चीजें हैं. पहली व्यवस्था लोकतांत्रिक है और नियंत्रित पूंजीवादी ढांचे के अंदर काम करती है. इसमें बजट को सबके लिए सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों की खातिर पैसे जुटाने का साधन माना जाता है. ये प्रावधान अमीरों से ज्यादा गरीबों के लिए बनाए जाते हैं, मसलन- बुज़ुर्गों की सहायता, सरकारी स्कूलों की व्यवस्था, सरकारी सहायता या सरकारी भुगतान से चलने वली स्वास्थ्यसेवा, अभावग्रस्त लोगों के लिए रोजगार आदि के रूप में प्रावधान,आदि. लोकतांत्रिक समाजवाद इससे अलग व्यवस्था है. इसमें उत्पादन के साधनों पर सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण पर ज़ोर दिया जाता है, लेकिन यह लोकतांत्रिक राज्यतंत्र के तहत किया जाता है (इसलिए यह कम्युनिस्ट शासन से अलग है, जो खुद को ‘जनता का गणतंत्र’ कहता है).

फ्रांस में दोनों व्यवस्था चलती है. वहां राष्ट्रीयकरण, और उदार सामाजिक लाभों की लहरों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र का आकार बहुत बड़ा है. आश्चर्य की बात यह है कि यह व्यवस्था बहुत अच्छी तरह चल रही है, जबकि भारत दोनों राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्थाओं के बीच लड़खड़ाता रहा है. हमारे यहां सार्वजनिक क्षेत्र बड़ा है और करदाताओं के पैसे बरबाद करता रहा है. वैसे, हमने समाज कल्याण व्यवस्था नाम का दूसरा चूल्हा भी जला रखा है जिसके तहत ग्रामीण रोजगार गारंटी, नकदी भुगतान और मुफ्त स्वास्थ्य बीमा (जो कि सरकारी स्कूलों और स्वास्थ्य कार्यक्रम के अलावा है) आदि की हांडी चढ़ी हुई है. यह पैकेज निरंतर बढ़ता गया है और अब यह प्रस्ताव भी किया जा रहा है कि सरकार सबके लिए बुनियादी आमदनी की भी व्यवस्था करे. यह तब है जबकि पश्चिम यूरोप के सामाजिक लोकतांत्रिक देशों को ऐसे कल्याणकारी पैकेज क्षमता से बाहर लग रहे हैं और वे इनको सीमित करने के कदम उठा रहे हैं, राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों के अधीन फ्रांस भी यही करने जा रहा है.

हमने दो-दो चूल्हे जला रखे हैं लेकिन हमने कभी यह नहीं सोचा कि इन पर चढ़ी हांडी में पकाने के लिए हमारे पास क्या है. इसमें शक नहीं कि कुछ सरकारी उपक्रमों ने व्यवस्था की ताकत दी और लाभ भी दिए, मसलन स्टेट बैंक, इंडियन ऑइल, जीवन बीमा निगम, हालांकि निजी क्षेत्र से मुक़ाबला इनके लिए चुनौतीपूर्ण रहा है. असली समस्या इंदिरा गांधी की इस मान्यता के कारण थी कि अगर आप बाज़ार को ठीक से नहीं चला सकते तो उसका अधिग्रहण कर लीजिए (मसलन अनाज उगाही, आयातों के लिए सरकारी ट्रेडिंग की अनिवार्यता); और यह भी कि अपर्याप्त पूंजी के कुशल उपयोग से ज्यादा महत्वपूर्ण है छोटे-से संगठित क्षेत्र में रोजगारों को बचाना. इसलिए कपड़ा, इंजीनियरिंग आदि की सैकड़ों फर्मों का अधिग्रहण किया गया. ये फ़र्में स्वामित्व में बदलाव के बाद भी या उसके कारण भी काम करने में विफल रहीं, जबकि एअर इंडिया, टेलिकॉम की दो बीमार कंपनियां और सरकारी बैंकों ने नकदी बरबाद करना जारी रखा.

विकल्प स्पष्ट है. छोटे मगर बढ़ते सामाजिक कल्याण पैकेज को अगर अपने बूते के लायक बनाना है, तो सार्वजनिक क्षेत्र को काम करके दिखाना होगा या नहीं तो उसे भंग करना होगा ताकि सरकार एक चूल्हा बंद कर सके. यह वैसी परीक्षा है जिसे अर्थशास्त्री लोग बजट की कठोर सीमा कहते हैं. बैंकों और एयरलाइनों में सरकारी प्रबंधन को वित्तीय राहत न दी जाए.

उपयुक्त सामाजिक लोकतंत्र के लिए टैक्स-जीडीपी का ऊंचा अनुपात चाहिए. भारत की प्रति व्यक्ति आय के स्तर के मद्देनजर यह फिलहाल बराबर है (16-17 प्रतिशत). लेकिन यह स्थिर है या गिर रही है, वैसे भी वह इस पर्याप्त स्तर के कहीं करीब नहीं कि गंभीर सामाजिक कल्याण के लिए कोश जुटा सके. समस्या का मूल यह है कि जीएसटी और आयकर, दोनों की चोरी की जाती है. प्रति माह 1 लाख रुपये कर-पूर्व आय करने वाले 80 लाख कारोबारियों में से केवल एक तिहाई ही अपना देय टैक्स भुगतान करते हैं.

अंतिम आधार है समानता. 18वीं सदी में अपने कुलीन तबके को बलि चढ़ा चुके फ्रांस को इसका जबरदस्त एहसास है. ब्रिटेन इसके विपरीत है, जहां 19वीं सदी के अंत में भी यह स्थिति थी कि 11,000 परिवारों का उसकी कुल भूमि के दो तिहाई हिस्से पर कब्जा था. जैसा कि मशहूर लेखक डीएच लॉरेंस लिख चुके हैं कि ब्रिटेन मैं अगर आप अपने पड़ोसी से ज्यादा अमीर हैं तो आप अपने को उससे बेहतर मानते हैं जबकि ऑस्ट्रेलिया में खुद को बस तकदीरवाला मानते हैं. भारत में एक फ्रेंच ऊर्जा कंपनी के सीईओ ने बताया कि फ्रांस में अगर गली में खड़ी आपकी कार बाकी कारों से ज्यादा अच्छी दिखी, तो कोई-न-कोई उस पर अपनी कार की चाबी से खुरचने का निशान लगाकर आपको संदेश दे देगा. भारत व्यवस्था का लिहाज करने वाले गणतंत्र से ज्यादा एक चुनावी लोकतंत्र है और वह समाजवादी दौर से पहले वाले ब्रिटेन की ओर बढ़ रहा है, जिसमें राज्यतंत्र पर ताकतवर अरबपतियों का नियंत्रण था.

सो, अब जबकि बजट बनाने की तैयारियां शुरू होने वाली हैं, हमारे सामने ये कुछ बुनियादी चुनौतियां उपस्थित हैं. अगर भारत को एक गतिशील सामाजिक लोकतंत्र बनना है, तो उसे अनुशासित टैक्स व्यवस्था तैयार करके कॉर्पोरेट की ताकत पर लगाम लगाते हुए सरकारी पूंजीवाद की राह पकड़ने से बचना होगा.

सौज- दप्रिंटः  इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे लिं पर क्लिक करें-

https://theprint.in/opinion/what-india-must-do-to-be-a-functioning-social-democracy-stop-practising-state-capitalism/565264/

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