रावण को नायक क्यों मानते थे दलित नेता पेरियार!

रविकान्त

पेरियार की पुण्यतिथि 24 दिसंबर को थी। पेरियार दूरदर्शी थे। उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में उपजे राष्ट्रवाद के ख़तरे को भाँपते हुए उन्होंने हिंदुत्व के साथ इसके गठजोड़ की संभावनाओं को देख लिया था। 1937 के चुनाव में मद्रास प्रांत में कांग्रेस की सरकार बनी। सी. राजगोपालाचारी प्रधानमंत्री (वर्तमान के हिसाब से मुख्यमंत्री) बने। उन्होंने स्कूलों में हिंदी भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया। 

मैं कहता हूँ कि हिंदुत्व एक बड़ा धोखा है, हम मूर्खों की तरह हिंदुत्व के साथ अब नहीं रह सकते। यह पहले ही हमारा काफ़ी नुक़सान कर चुका है। इसने हमारी मेधा को नष्ट कर दिया है। इसने हमारे मर्म को खा लिया है। इसने हमारी संभावनाओं को गड़बड़ा दिया है। इसने हमें हज़ारों वर्गों में बाँट दिया है। क्या धर्म की आवश्यकता ऊँच-नीच पैदा करने के लिए होती है? हमें ऐसा धर्म नहीं चाहिए जो हमारे बीच शत्रुता, बुराई और घृणा पैदा करे।’   –पेरियार

ई. वी. रामास्वामी नायकर परियार आधुनिक बहुजन चिंतन परंपरा के प्रमुख स्तंभ हैं। उनका जन्म एक शूद्र धनगर (गड़रिया) परिवार में 17 सितंबर 1879 को मद्रास प्रांत के इरोड में हुआ था। इनके पिता का नाम वेंकटप्पा नायकर और मां का नाम चिन्नाबाई था। वैंकटप्पा नायकर पेशे से व्यापारी थे। पेरियार रामास्वामी नायकर को केवल चौथी कक्षा तक औपचारिक शिक्षा प्राप्त हुई। 10 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर वे अपने पिता के साथ व्यापार में हाथ बँटाने लगे। उनका परिवार बहुत धार्मिक और रूढ़िवादी था। लेकिन रामास्वामी नायकर किशोरावस्था से ही तार्किक और चिंतनशील थे। धार्मिक पिता से वाद-विवाद के कारण उन्होंने धर्म और ईश्वर की सत्ता को जाँचने के लिए घर छोड़ दिया। ज्ञान की आस में उन्होंने काशी में संन्यासी जीवन बिताया। लेकिन जल्दी ही उन्हें ईश्वर के मिथ और संन्यास के पाखंड का बोध हो गया। इसलिए काशी और संन्यास त्यागकर पेरियार घर वापस आ गए।

स्वराज के लिए आंदोलन और कार्यक्रमों से प्रभावित होकर पेरियार रामास्वामी नायकर 1919 में कांग्रेस से जुड़ गए। 1920 में उन्होंने महात्मा गाँधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में भाग लिया। सांगठनिक क्षमता और सक्रियता से प्रभावित होकर कांग्रेस नेतृत्व ने 1922 में रामास्वामी नायकर को मद्रास प्रांत का अध्यक्ष बना दिया। कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में पेरियार ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। शराबबंदी, अदालतों के बहिष्कार से लेकर वायकोम सत्याग्रह में उन्होंने अपनी सक्रिय भागीदारी की। त्रावणकोर (केरल) के वायकोम मंदिर की सड़क से दलितों को गुजरने के अधिकार के लिए 1924-25 में हुए इस सत्याग्रह का नेतृत्व ख़ुद महात्मा गांधी ने किया। फलस्वरूप त्रावणकोर की महारानी और गांधी के बीच हुए समझौते से दलितों को अधिकार प्राप्त हुआ। लेकिन कांग्रेस में ब्राह्मणों के वर्चस्व और ब्राह्मणवादी नीतियों के कारण पेरियार का जल्दी ही इससे मोहभंग हो गया।

मद्रास प्रांत के गुरुकुलों में ग़ैर-ब्राह्मण बच्चों के साथ भेदभाव होता था। कांग्रेस द्वारा वित्त-पोषित इन गुरुकुलों में ब्राह्मण और ग़ैर-ब्राह्मण बच्चों के बैठने से लेकर भोजन में होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए पेरियार ने आवाज़ उठाई। कांग्रेस नेतृत्व ने पेरियार की मांग पर ध्यान नहीं दिया। 

1925 में उन्होंने मद्रास-कांग्रेस के सामने संगठन में ग़ैर-ब्राह्मणों को अधिक भागीदारी देने का प्रस्ताव रखा। उनकी यह मांग भी खारिज कर दी गई। इसके बाद पेरियार ने कांग्रेस से बग़ावत कर दी। अब वह कांग्रेस से अलग हो गए।

पेरियार ने 1926 में आत्मसम्मान आंदोलन शुरू किया। मद्रास प्रांत में ब्राह्मणों का शासन-प्रशासन में वर्चस्व था। केवल 3 फ़ीसदी आबादी वाले ब्राह्मणों का समाज, राजनीति और धर्म के सभी पायदानों पर कब्जा था। शूद्रों और अति शुद्रों (दलित) की स्थिति बहुत नाजुक थी। जाति, वर्ण, धर्म और ईश्वर के नाम पर शूद्र और दलितों का अपमान और शोषण होता था।

समता पर आधारित समाज

आत्मसम्मान आंदोलन ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी। जाति, धर्म और ईश्वर की अवधारणा को खारिज करते हुए पेरियार ने समता पर आधारित समाज बनाने का प्रस्ताव किया। शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले और डॉक्टर आंबेडकर की तरह पेरियार ने भी साम्राज्यवाद से मुक्ति के पहले सामाजिक मुक्ति की मांग की। पेरियार का कहना था, हमें स्वराज नहीं बल्कि स्वाभिमान का राज चाहिए। 9 जनवरी 1927 को उन्होंने ज़ोर देकर कहा,

तिलक का दावा है कि स्वराज उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। चूँकि, वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वे ब्राह्मण हैं और ऐसे मनुष्य मानते हैं कि बाक़ी लोग उनसे हीन हैं; यह भावना ही अपने आप में उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसलिए इस अर्थ में तिलक को स्वराज शब्द का उपयोग करने के लिए बाध्य किया गया था; जो इस उद्देश्य के लिए निरर्थक, परिणामों की दृष्टि से भ्रांतिपूर्ण, अपने जन्मसिद्ध अधिकार के लिए राजनीति से अपनाया हुआ है। मगर हम दूसरों को भरमाकर जीवित रहने के अभ्यस्त नहीं हैं। बजाय इसके हम मनुष्यता को उसके वास्तविक अर्थों में खोजने के इच्छुक हैं। इसलिए हम कहेंगे कि आत्मसम्मान हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमें यह मानना होगा कि स्वराज तभी संभव है जब पर्याप्त आत्मसम्मान हो अन्यथा यह अपने आपमें संदिग्ध मसला है।”

ज्योतिबा फुले की तरह पेरियार भी शूद्रों और अछूतों को भारत का मूल निवासी मानते हैं। विदेशी- ब्राह्मण-आर्यों ने शूद्रों- अछूतों को ग़ुलाम बनाया। इस ग़ुलामी को अनवरत जारी रखने के लिए जाति और वर्ण व्यवस्था उन पर थोपी गई। धर्म और ईश्वरवाद के नाम पर शूद्रों-दलितों और स्त्रियों का शोषण किया गया। धर्म के पाखंड का पेरियार ने मुखर होकर विरोध किया। ईश्वरवाद की तार्किक आलोचना करते हुए उन्होंने कहा, ‘मनुष्य के अतिरिक्त पृथ्वी के किसी प्राणी के लिए ईश्वर का कोई औचित्य नहीं है। धर्म की आवश्यकता नहीं, जाति की नहीं, मात्र मनुष्य के लिए ईश्वर, धर्म एवं जातियों का अस्तित्व क्यों?’

ईश्वर के अस्तित्व को खारिज करते हुए पेरियार ने कहा,

ईश्वर नहीं है, ईश्वर नहीं है, ईश्वर बिल्कुल नहीं है, जिसने ईश्वर का आविष्कार किया है वह मूर्ख है, जो ईश्वर का प्रचार करता है वह धूर्त है, जो ईश्वर को पूजता है, वह जंगली है।

पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’ लिखकर राम के चरित्र को प्रश्नांकित किया है। इसमें राम आर्य संस्कृति के प्रतीक पुरुष हैं। पेरियार की रामायण के नायक रावण हैं। पेरियार ने आर्य संस्कृति के बरक्स द्रविड़ अस्मिता को स्थापित किया।

आत्मसम्मान आंदोलन के 1930 के वार्षिक जलसे में स्त्रियों और उत्पीड़ित वर्गों के लिए समान अधिकारों की माँग की गई। पेरियार ने स्त्री पराधीनता की कड़ियों का पर्दाफाश किया।

मानीखेज है कि नवजागरण के दौर में स्त्री की शिक्षा और उसके अधिकार को सबसे अधिक बहुजन नायकों ने ही उठाया। पेरियार ने स्त्री की पराधीनता को स्पष्ट करते हुए लिखा,

पुरुष स्त्री को अपनी संपत्ति मानता है और यह नहीं मानता कि उसके ही समान स्त्री की भी भावनाएँ हो सकती हैं।

आगे वे लिखते हैं,

पुरुष के लिए एक महिला उसकी रसोइया, उसके घर की नौकरानी, उसके परिवार या वंश को आगे बढ़ाने के लिए प्रजनन का साधन है और उसके सौंदर्यबोध को संतुष्ट करने के लिए एक सुंदर ढंग से सजी गुड़िया है।

धर्म की बेड़ियों में जकड़ी स्त्री-पराधीनता को बेपर्दा करते हुए पेरियार पूछते हैं,

हिंदू- धर्म में ज्ञान की और धन की देवियों को पूजा जाता है। फिर ये देवियाँ महिलाओं को शिक्षा तथा संपत्ति का अधिकार प्रदान क्यों नहीं करतीं? महिलाओं को तर्कसंगत ज्ञान और वैश्विक मामलों से संबंधित पर्याप्त शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें ऐसे साहित्य, इतिहास या कहानियों से दूर रखा जाना चाहिए जो अंधविश्वास और भय को जन्म देती हैं। महिलाओं की पराधीनता के कई कारणों में से प्रमुख कारण यह है कि उन्हें संपत्ति का अधिकार नहीं है।

इस कारण पेरियार विवाह संस्कार को खारिज करते हैं। वह स्त्री और पुरुष की समता के पक्षधर हैं। उनका कहना है कि विवाह एक अनुबंध है। इसमें दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। उन्होंने स्त्रियों को मंगलसूत्र त्यागने का आह्वान किया। वे कहते हैं कि जिस तरह गले में पट्टा डालकर जानवरों को खूंटे से बांध दिया जाता है, उसी तरह पुरुष स्त्री के गले में मंगलसूत्र डालकर उसे अपने मातहत करता है।

समता और न्यायपरक समाज के लिए पेरियार ने जाति के उन्मूलन पर जोर दिया। क्या जातिवाद को नष्ट करना इतना आसान है? जाति व्यवस्था अन्याय और शोषण पर आधारित है। इसका इतिहास बेहद क्रूर है। दरअसल, जाति हिंदुत्व का मूल है। जाति के दुष्चक्र को समझाते हुए पेरियार कहते हैं,

यद्यपि मैं पूरी तरह जाति को ख़त्म करने को समर्पित थालेकिन जहाँ तक इस देश का संबंध है, उसका एकमात्र निहितार्थ था कि मैं ईश्वर, धर्म, शास्त्रों तथा ब्राह्मणवाद के ख़ात्मे के लिए आंदोलन करूँ। जाति का समूल नाश तभी संभव है, जब इन चारों का नाश हो। यदि इनमें से कोई एक भी बचता है, तब जाति का आमूल उच्छेद असंभव होगा… क्योंकि जाति की इमारत इन्हीं चारों पर टिकी है।

पेरियार जाति का उन्मूलन कर शूद्रों- दलितों को द्रविड़ पहचान देना चाहते थे। इसी से स्वतंत्रता, समानता और आत्मसम्मान सुरक्षित हो सकता है।

पेरियार दूरदर्शी थे। उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में उपजे राष्ट्रवाद के ख़तरे को भाँपते हुए उन्होंने हिंदुत्व के साथ इसके गठजोड़ की संभावनाओं को देख लिया था। 1937 के चुनाव में मद्रास प्रांत में कांग्रेस की सरकार बनी। सी. राजगोपालाचारी प्रधानमंत्री (वर्तमान के हिसाब से मुख्यमंत्री) बने। उन्होंने स्कूलों में हिंदी भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया। 

दरअसल, हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान के नारे के तहत पेरियार ने इसे द्रविड़ भाषाओं पर हिंदी को थोपने के प्रयास के तौर पर देखा। आर्य भाषा संस्कृत से संबद्ध मानी गई हिंदी का पेरियार ने पुरजोर विरोध किया। द्रविड़ अस्मिता के आधार पर उन्होंने एक अलग द्रविड़नाडु राष्ट्र की मांग की।

कांग्रेस छोड़ने के बाद पेरियार ग़ैर- ब्राह्मणों द्वारा स्थापित जस्टिस पार्टी (स्थापना-1916) से जुड़ गए। 1938 में उन्हें जस्टिस पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। हिंदी विरोधी आंदोलन और द्रविड़ अस्मिता के आधार पर उन्होंने 1940 में द्रविड़ कड़गम की स्थापना की। आगे चलकर उनके सहयोगी सी.एन. अन्नादुरई से पेरियार के मतभेद हो गए। अन्नादुरई ने 14 सितंबर 1949 को द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की स्थापना की। ग़ौरतलब है कि मद्रास प्रांत में ग़ैर-कांग्रेसवाद को अन्नादुरई के नेतृत्व में ही सफलता प्राप्त हुई। 1967 में डीएमके की सरकार बनी। अन्नादुरई के प्रयास से मद्रास प्रांत का नाम तमिलनाडु हुआ।

शूद्रों, अछूतों और स्त्रियों के अधिकारों के लिए समर्पित, ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व के विरोधी रामास्वामी नायकर को उनके अनुयायियों ने थंथाई (पिता) और पेरियार (महान) की उपाधियाँ प्रदान कीं। 1970 में यूनेस्को ने पेरियार को ‘दक्षिण-पूर्व एशिया का सुकरात’ घोषित किया। वास्तव में, पेरियार भारत की सुदीर्घ बहुजन परंपरा के वाहक हैं। उन्हें आधुनिक चार्वाक भी कहा जा सकता है। 24 दिसंबर 1973 को 93 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। उन्हें नमन और श्रद्धांजलि!

लेखक दलित लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।सौजः सत्यहिन्दी

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